शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

व्यन्ग विवाद के बिना

नई दुनिया में 15-10-10 को प्रकाशित व्यन्ग
 

आजकल कुछ मन नहीं लग रहा है, बिलकुल मजा ही नहीं आ रहा। कुछ भी हमारे मनमाफिक नहीं हो रहा है। अब कोई विवाद ही नहीं चल रहा। अयोध्या प्रकरण में शांति रही। कॉमनवेल्थ गेम्स भी अच्छी तरह निपट गए। भारतीय खिलाड़ी भी ठीकठाक चल गए। फिल्म-जगत में शांति है। नेताओं के बयान भी उधम वाले आ रहे हैं लेकिन फिर भी कोई विवाद नहीं हो रहा। सचमुच ऐसे बुरे दिन तो हमने कभी देखे नहीं।

भई, हम तो शुद्ध हिंदुस्तानी हैं। घर से लेकर राजनीति के मंच पर बिना विवादों के जी नहीं पाते हैं। हमें तो हर चीज में विवाद की आदत पड़ी हुई है। शुरू से संयुक्त परिवार में रहे हैं। यही देखते आ रहे हैं। बचपन से ही मां प्रोत्साहित करती रहती थी कि कैसे चुपके से दादा-दादी की बात सुनी जाए और फिर उन्हें नमक-मिर्च लगाकर पिताजी को सुनाया जाए और मां के पक्ष में एक अच्छा सा विवाद खड़ा किया जाए।

बड़े हुए तो देश की किस्मत भी परिवार की तरह हो गई। सरकारें भी पूरी तरह संयुक्त परिवार पैटर्न पर चलने लगीं। कितने ही दल, कितने ही समर्थन। नाना प्रकार के विवाद, नाना प्रकार की बातें। लोगों की विवादात्मक आत्मा अधिक ही जाग उठी। कभी किसी ने किसी धर्म को कुछ कह दिया और दंगे हो गए। कभी किसी की बात का कोई मतलब निकाल दिया और झट से शहर बंद, राज्य बंद और देश बंद कर दिया। मीडिया की महत्ता अधिक बढ़ी तो भाई लोग सुर्खियों में आने के लिए तरह-तरह के विवाद पैदा करने लगे। साहित्य, कला, फिल्म, पत्रकारिता, खेल, सामाजिक सेवाएं और राजनीति आदि में विवाद घुसने लगे। सभी जगह विवाद। अब तो ऐसी आदत पड़ गई कि सुबह चाय के साथ एक विवाद नहीं मिले, तो हाजमा बिगड़ जाता है। अब ऑफिस में भी कहां तक काम करें। जब तक चाय की दुकानों पर दो-चार घंटे इन चीजों पर बहस नहीं कर लेते थे, तब तक मजा ही नहीं आता।

पर अब तो सब कुछ सूना-सूना लग रहा है। कैसा जमाना आ गया। कहां तो हम एक साधारण-सी बात को पकड़कर पूरे शहर में धूम मचा देते थे। कोई बोले तो विवाद, कोई न बोले तो विवाद। पर अब देख रहे हैं कि सब जगह शांति है। यह देश कैसे चलेगा। हमारा क्या, हम तो ऑफिसों के किस्सों से भी विवाद उठा लेंगे। पर इन राजनीतिक हस्तियों का क्या होगा। ये तो यही मानकर चल रहे हैं कि एक राजनेता का सच्चा कर्तव्य यही है कि वो विवादों को वैज्ञानिक ढंग से उठाए, सामाजिक तौर से प्रस्तुत करे और राजनीतिक ढंग से फायदा उठाए।

इतनी विवाद लायक बातें हो रही हैं। पर जनता के कान पर जूं ही नहीं रेंग रही। पहले तो विवादों से ही सरकार बन और बिगड़ जाती थी। पर अब कुछ नहीं हो रहा। सो कम से कम मेरे लिए नहीं तो उनके लिए तो जरा सोचो। विवादों के बिना जग कितना सूना है
 
   
   


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व्यन्ग सड़क

अमर उजाला में १४-१०-१० को प्रकाशित व्यन्ग



प्यारी सड़क। तुम्हें प्यारी शब्द का संबोधन इसलिए नहीं दे रहा हूं कि तुम रूप और रंग में कैटरीना कैफ को मात दे रही हो। इस शब्द का प्रयोग यहां दार्शनिक रूप में किया जा रहा है, क्योंकि तुम अब अल्लाह को प्यारी हो गई हो।
तुम्हें देखकर भारतीय दर्शन में मेरा विश्वास गहरा हो गया है। दर्शन में कहा गया है कि सब कुछ क्षणिक है। सच ही तो कहा गया है, तुम ठीक से जन्म ले भी नहीं पाती हो कि मौत के नजदीक पहुंच जाती हो। किसी-किसी सड़क को देखकर तो लगता है कि उसकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि एक ही है। कई बार सड़कें प्रसूति काल में ही दम तोड़ देती हैं।

बहुत समय पहले सुना था कि ढाका की मलमल बहुत ही महीन होती है। पर तुम्हारी परत तो उसे भी मात कर देती है। इतनी बारीक लगती हो कि कभी-कभी जमीन और तुममें कोई फर्क ही नहीं लगता। इसी से पता चलता है कि सड़क निर्माण की कला कितनी निपुणता हासिल कर चुकी है।

वर्षा ऋतु जा चुकी है। सभी लोग प्रसन्न हैं। ठेकेदार भी प्रसन्न हैं कि तुम्हारी अकाल मृत्यु के जो इलजाम उन पर लगने वाले थे, वे अब वर्षा को ट्रांस्फर हो जाऐंगे। ठेकेदार न केवल पुरानी सड़क का खून करने के आरोप से मुक्त होंगे, बल्कि नई सड़क के टेंडर से आह्लादित भी होंगे।

हे सड़क, तुम केवल सड़क नहीं हो, गड्ढे, पोखर, चरागाह, सभा-स्थल, निर्माण सामग्री वहन स्थल और न जाने क्या-क्या हो। कीचड़ भरा पोखर तलाशते मवेशी अब तुममें ये सारी विशेषताएं पाकर धन्य हैं। स्वाइन फ्लू और डेंगू के मच्छर तुम्हारी ही शरण में विकास की ओर अग्रसर होते हैं।

आज जहां लोग अलगाववाद की साजिश रच रहे हैं, वहां तुमने अपने एक ही स्वरूप से देश को एकता के अद्भुत सूत्र में बांध रखा है। जम्मू-कश्मीर से कन्याकुमारी तक तुम एक जैसी नजर आती हो। वही डामर और सीमेंट रहित, गड्ढों और कीचड़ से युक्त, उन्मुक्त जानवरों के समूहों से सुसज्जित, कचरों से शोभित।

तुम अपने छोटे से जीवन में दूसरों के लिए जीती हो। सरकार बहुत कम कीमत में सड़क बनवाकर प्रसन्न है, ठेकेदार उस कम कीमत में से भी कमीशन देने के बाद लाभ कमाकर खुश है। जनता भी हर साल नई सड़क पाकर प्रसन्न है।

भारतीय दर्शन के मुताबिक, तुम आत्मा की तरह मरकर भी अजर- अमर हो। बेशक तुम मर चुकी हो, लेकिन जल्दी ही नए टेंडर निकलेंगे। तब तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। बस इसी विश्वास के कारण तुम्हारी बार-बार अकाल मृत्यु मुझे उतना दुखी नहीं करती।

शरद उपाध्याय

व्यंग्य बीवी और सरकार

डेली न्यूज़ में 13-10-10 को प्रकाशित  

सरकार से मुझे हमेश शिकायत रही है। वो हमेशा मेरे लिए कोई न कोई परेशानी खड़ी कर देती है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। सरकार ने कॉमनवेल्थ का आयोजन क्या कर लिया। मेरी तो मुसीबत ही खड़ी हो गई है। बीवी ने नाक में दम कर दिया है। घर आता हूं तो बस वो पीछे पड जाती है। वो यही कहती है कि 'तुमने घर का क्या हाल बना रखा है। कोई भी आता है, इसका हाल देखकर नाक-भौं सिकोड लेता है। मेरे घर वाले भी अब ताने देने लगे हैं। अब तो फर्नीचर बदल दो, कार ले आओ। थोडा स्टेटस ऊँचा करो अब तो सहेलियां भी हंसी बनाने लगी है। मुझे तो बहुत ही शर्म आती है।'

मैं उसे समझाता हूं, बैंक की पासबुक बताता हूं, नाना प्रकार के उधार के बिल पेश करता हूं। यहां तो घर के राशन तक के लाले पड रहे हैं। मुन्ना की फीस का प्रश्न है। मुन्नी को डाक्टर ने खून की कमी बताई है, उसे अच्छी खुराक देनी है। यह भी बताता हूं। कि दो महीने गांव मनीआर्डर नहीं कर पाया। अम्मा-बाउजी मुसीबत में है। गांव का घर साहूकार के पास गिरवी रखकर रोटियां चल रही है। सो तुम्हारी कार, सोफे कैसे ले आउं।'

पर वो हंसती है। कहती है कि अकेले तुम्हारी ही हालत खराब थोड़े ही है। सरकार को भी देखो। वो भी तो कॉमनवेल्थ करा रही है। उससे तो तुम्हारी हालत मुझे बहुत ठीक लगती है।कहीं से भी उधार ले लो।आजकल मुए लोन देने के लिए पीछे ही पड़े रहते हैं। मैं उसे बहुत समझाता हूं, कहता हूं। देख लोन लेना बड़ी बात नहीं है। पर भई लोन चुकाना भी तो पड़ेगा यह सब कैसे होगा।वो फिर झुंझलाती है। 'सारी दुनिया की बातें तुम मुझे ही समझाते हो। सरकार को नहीं देखते। अकेले तुम्हारे साथ ही तो मुसीबत नहीं है। बिचारी सरकार ही कितनी परेशानियों से घिरी रहती है। जरा उसे ही देखो। कितनी मंहगाई बढ़ रही है। लोगों का जीना दुश्वार हो गया है। पर सरकार के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं है। कश्मीर का हाल बुरा हो रहा है। दिन-रात आतंकवादी घटनाऐं पीछा नहीं छोड ती। नक्सलवादी कभी भी उधम कर बैठते हैं। कहीं बाढ है, तो कहीं सूखा हो जाता है। कभी साम्प्रदायिकता सिर उठा लेती है। इतने पर भी बिचारी इतना बड़ा भंडारा कर रही है। नासपीटे मेहमान कितनी हंसी उड़ा रहे हैं, बार-बार धमकी दे रहे हैं, खाने से लेकर सभी चीजों की क्वालिटी में मीनमेख निकाल रहे हैं। पर सरकार कितनी शालीनता से इन्हें झेल रही है।'
मैंने धीरे से यही कहा,' देखो, इतना बड़ा खर्चा करूंगा। तो फिर बाकी चीजों के लिए पैसा कहां से लाउंगा। भई, जो तुम खर्चे बता रही हो और फिर जो जिम्मेदारियां हमारे उपर है। इन्हें देखकर मेरा हार्ट अटैक नहीं हो जाए।'

वो झुंझला गई,' अब जिम्मेदारियां अकेले तुम्हारे उपर ही है। क्या करते हो तुम। असली जिम्मेदारियां देखनी है। तो सरकार को देखो। कितनी बुरी हालत में है। क्या है खजाने में, कर्जा ही कर्जा है। फिर भी इतना बड़ा भंडारा करा रही है। खाने को दाने नहीं है फिर भी पांच पकवान खिला रही है और फर्स्ट क्लास अरेंजमेंट। क्या शाही ठाठ-बाट से अतिथियों की सेवा कर रही है। और एक तुम हो, जरा सा मेरे घर से कोई आ जाए तो तुम्हारा मुंह चढ जाता है। और दिल की बात तो तुम करो ही मत। दिलदार होना तो कोई हमारी सरकार से सीखे।देखो, पाकिस्तान से दिन-रात कलह चल रही है, मुआ आतंकवादी भेजता रहता है और दूसरी ओर सरकार के खींसे में कर्जे के अलावा कुछ नहीं है। खुद के बाढ पीढितों के पास खाने को नहीं है। पर दिल देखो, झट से करोड़ों डालर दान में दे दिए।'कहकर उसने हिकारत भरी नजर से मुझे देखा।

अब मैं क्या करता। फिर भी अंतिम हथियार फेंक ही दिया।,' देखो, घर का हाल बुरा है। मुन्ने की तबियत कभी ठीक नहीं रहती। मुन्नी को डाक्टर ने अच्छी डाईट खिलाने के लिए कहा है। और फिर अम्मा-बाबूजी.......'

पर उसने वाक्य पूरा ही नहीं करने दिया,' बस रहने दो... अकेले तुम्हारे घर में ही बीमारी है। कभी सरकार का हाल देखा है। वो बिचारी कभी कहती नहीं है तो क्या । उसका तो पूरा कुनबा ही बीमार है। कोई स्वान फलू से जूझ रहा है, कोई डेंगू से पीड़ित है। लाखों लोग टी०बी० के शिकार हे , बच्चे कुपोषण से पीडित है। दवाईयों के अभाव में रोजाना हजारों लोग दम तोड देते हैं। पर कभी वो किसी के सामने रोना रोती है। आज तक सरकार के मुंह से एक भी बात नहीं सुनी। क्या शान से जीती है और एक तुम हो.. दो जनों की क्या जिम्मदारी आ गई। बस घबरा गए।' कहकर वो कोपभवन में चली गई।

और मैं.... मेरे पास करने को है ही क्या। मैं तो बस लोन के फार्म लेकर बैंको के चक्कर लगा रहा हूं। बस कहीं से भी कर्जा मिल जाए और बीवी की इच्छा पूरी हो जाए। सरकार की लाईफ स्टाईल ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा.

 

 

 

 

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

व्यंग्य कॉमनवेल्थ नियमावली

नई दुनिया में आज दिनांक 4-10-10 को प्रकाशित व्यंग्य



कॉमनवेल्थ गेम्स केवल खेल नहीं, राष्ट्रीय पर्व हैं और पर्वों को सफल बनाने के लिए हमें कुछ व्रत लेने पड़ते हैं, कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। अतः यह भव्य आयोजन सफल बनाने के लिए हमें भी कुछ करने की जरूरत है। आशा है, आप हमेशा की तरह निराश नहीं करेंगे।

सर्वप्रथम, हमें चेहरे पर मुस्कराहट का स्थायी भाव रखना पड़ेगा। यह जरूरी है क्योंकि हमने सभी मेहमानों से कह दिया है कि "अतिथि देवो भव"। क्या पता वे इसे सही मान बैठे हों। सो आप सभी लोग इस बात का ध्यान रखें। अब हो सकता है कि पीछे से कोई मच्छर आपको काट रहा हो। आपको डेंगू का भय सता रहा हो। लेकिन सावधान, उन्हें बिल्कुल नहीं एहसास दिलाना है। हालांकि यह एक मुश्किल काम है क्योंकि इतनी विषम परिस्थितियों में रहने के कारण तुम मुस्कराना भूल गए हो। पर देश के लिए इतना त्याग तो करना ही पड़ेगा। लगातार मुस्कराने के कारण हो सकता है तुम्हें खांसी आने लगे पर खांसना मत। अतिथियों के नाजुक मन पर स्वाइन फ्लू का भय आ गया तो हमारी तो नाक ही कट जाएगी।

यातायात के नियमों के पालन न करने की तुम्हारी जन्मजात आदत है पर उसे कुछ दिन के लिए सुधार लेना। अगर तुम्हें लगे कि तुम्हारी आजादी पर कुठाराघात है तो घर से ही मत निकलना। मन न माने तो जी कड़ा कर लेना क्योंकि आयोजन को सफल बनाने में लगी भारतीय पुलिस तुम्हें डंडा भी मार सकती है। इस डंडे को प्रेमभाव से स्वीकार करना। विरोध करने पर देश की छवि बिगड़ सकती है। अगर कुछ दिन लाइट व पानी की परेशानी हो तो उसे हंसकर स्वीकार करना। तुम्हें कुछ कहना नहीं है।

हालांकि भारतीय पुलिस सजग है लेकिन फिर भी यदि कोई तुम्हारा पॉकेट मार ले, घर में चोरी कर ले तो खेलों के सफलतापूर्वक संपन्न होने का इंतजार करना। रिपोर्ट की जल्दी मत करना। कोई गुंडा बदमाश छेड़े या लूटपाट करने की कोशिश करे तो दे-लेकर निपटा लेना। लुट जाना, पिट जाना। कहीं पुलिसवाला सामने भी दिख भी जाए तो आवाज मत लगा बैठना। समूची पुलिस एक महत्वपूर्ण समारोह संचालित करने में जुटी है। तुम्हें उसे डिस्टर्ब नहीं करना है। यूं तो भिखारियों को हम पहले ही बाहर भिजवा चुके हैं लेकिन फिर भी घर से बाहर निकलो तो नहा-धोकर, साफ कपड़े पहनकर निकलना, नहीं तो उन्हें लगेगा कि तुम वापस आ गए हो। अगर तुम्हें कोई अतिथि स्लम की ओऱ जाता हुआ दिखाई दे तो उसे उधर जाने मत देना। कुछ भी झूठ बोल देना। घबराना मत। हम भी तो इतने समय से बोल रहे हैं।

हमें कुछ भी करना पड़े। पर इन खेलों को सफल बनाना है। ७० हजार करोड़ रुपए स्वाहा हुए हैं। भूखे मरो, बीमार मरो, असुविधा में जीओ पर हमें देश की छवि का तो खयाल करना ही है

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शनिवार, 25 सितंबर 2010

व्यंग्य जड़ मजबूत करने का दर्शन

नई दुनिया सन्डे में 26-09-10 को प्रकाशित व्यन्ग



आजकल मैं राष्ट्र की जड़ें मजबूत करने में लगा हुआ हूं। बहुत दिनों से सरकार पीछे पडी हुई थी। मान ही नहीं रही थी। बार-बार कह रही थी, भई कर लो। सो क्या करता। मजबूरी में करना पड़ा
हमारी यही आदत है। हम अपने आप कुछ नहीं कर पाते। जब कोई कहता है। तो ही कुछ करते हैं। जनसंखया बढाए जा रहे थे, सरकार ने कहा भई नियंत्रण करो। नारा दिया कि हम दो हमारे दो। तो हमें सोचना पड़ता . नहीं तो दो तो कभी हमारी आदत में ही शामिल नहीं थे। जब तक एक टीम नहीं बना लेते थे, तब तक चैन नहीं लेते थे। ऐसी स्थिति में नियंत्रण करना मुश्किल काम था। पर क्या करते सरकार ने कहा तो करना पडा
पर अभी चैन से बैठे नहीं थे ये राष्ट्र की जड़ें मजबूत करने की बात आ गई। अब हम तो साहब फिर सोच में पड गए। एक अकेला आदमी क्या-क्या करे। पर ठीक है भाई इन कमबखत जड़ों का भी कुछ करते हैं। चाहे कुछ भी करना पड़ें पर मजबूत करके ही दम लेंगे। जब परिवार जैसी चेतन चीज ही कम कर ली तो ये जड तो कहां ठहरती है।
अब परेशानी यही आ गई कि आखिर ये कमबखत जड़ें कमजोर क्यों हुई। क्या बात हो गई। सरकार मजबूत करने के लिए कह रही हैं तो इसका मतलब यही हुआ कि वो मान कर चल रही है कि जड़ें कमजोर है। भई मिटटी-मिटटी पर भी करोंडो रूपए खर्च होते हैं। भांति-भांति की खादें भी दे ही देते हैं। अच्छी-खासी गोंद भी तो डालते हैं फिर ऐसा कैसे हो गया।'
काम करना ही शुरू किया था। कि सरकार भी मिल गई। सरकार हमें काम करते देखकर आशंकित हो गई। गठबंधन सरकारों के जमाने में ऐसा हो जाता है कि हर काम को शक की निगाह से देखा जाता है। हमने आश्वस्त किया कि ऐसी कोई बात नहीं है। हम केवल राष्ट्र की जड़ मजबूत करने के लिए आए हैं और वो भी उसी के कहने पर। सरकार बार-बार कहती रहती है कि राष्ट्र की जड़ें मजबूत करें। सो आ गए।
सरकार वहां बैठी हुई थी। मैंने पूछा,' तुम यहां क्या कर रही हो। क्या तुम भी राष्ट्र की जड़ें मजबूत करने में लगी हो।'वो हंसी,' हां, हमारा ध्यान भी जड़ों की ओर ही है। पर हम इन दिनों पार्टी की जड़ें मजबूत करने में लगे हैं। बस पार्टी की जड़ें थोड़ी ठीक-ठाक सी हो जाऐं। ये गठबंधन वाले कभी भी कुछ कह देते हैं। कभी भी पौधे को हिला देते हैं। पौधा एक ओर लटक जाता है और जड़ें हिल जाती है। और फिर दूसरों की क्या कहें। ये अपने क्या कम है। आते-जाते ही झिंझोड जाते हैं।'
'पर राष्ट्र की जड़ों का क्या करें। इनमें कैसे गड़बड़ी हो गई। सुना है मिटटी में ही मिलावट थी।'
सरकार एक मिनट के लिए सोच में पड गई। 'अब भैया मिटट्‌ी की क्या कहें। अपनी मिटटी क्या कम खराब हो रही है। अब थोड़ी मिलावट हो भी गई होगी। आजकल जमाना ही मिलावट का है। हर चीज में मिलावट है। आदमी को आदत ही मिलावटी चीज खाने की हो रही है। अब बच्चे को शुद्ध दूध दे दो तो दस्त हो जाऐंगे। पचेगा कैसे। सो उसमें भी कहीं मिलावट कर दी होगी।'
'सुना है जड़ों को जो खाद दी है। उसमें नाइट्रोजन थोडा कम था।'
'अब भैया, जब इतनी बड़ी दुनिया में ऑक्सीजन कम हो रहा है। कार्बनडाई आक्साइड बढ रहा है। तो इतने से खाद के कट्टे की बिसात ही क्या है। जो नाईट्रेजन को रोक सके।'
'पर यह सब सरकार को भी तो देखना तो चाहिए।'
'भैया सरकार क्या-क्या देखे। सरकार खुद सरकार को देखे। विपक्षियों को देखे। मंहगाई डायन को देखे। मंत्रियों को देखे, किस-किस को देखें। अब कॉमनवेल्थ कराया था कि विपक्ष में जड़ें मजबूत होगी। पर भाई लोग न जाने कौन से टेन्ट-हाउस में पहुंच गए। कमबखत ने सामान की कीमतों से ज्यादा ही किराया वसूल लिया। तुम भी कुछ करो न प्लीज।'
अब मैं क्या कहता बस आजकल जड़ें मजबूत करने में लगा हुआ हूं। क्या करूं बिचारी सरकार के पास तो समय ही नहीं है।

व्यंग्य हमारा जेल दर्शन

डेली न्यूज़, हम लोग में २६-०९-१० को प्रकाशित व्यन्ग


 
 
भारतीय जेल सेवा आपका हार्दिक स्वागत करती हैं। हम सदैव अपने भाईयों की सेवा को तत्पर है एवं सर्वश्रेष्ठ सेवा देने का वादा करते हैं। विश्व में नाना प्रकार की जेलें हैं। उनमें हमारी जेल अनूठी हैं एवं सर्वश्रेष्ठ हैं।
हम कोई भी काम करते हैं तो सबसे पहले अपनी संस्कृति का ध्यान रखते हैं। इसलिए हमने अपनी सेवा का यही मोटो बना रखा है 'अतिथि देवो भवः'। हमारी जेल में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को हम देवता की संज्ञा ही नहीं देते वरन्‌ देवत्व के आधार पर 'यथासंभव' ध्यान भी रखते हैं। हम सदैव यही मानकर चलते हैं। कि गलती सभी करते हैं, कौन गलती नहीं करता। अब इस अभागे की तो किस्मत ही खराब थी, जो पकड़ा गया, अब पकड़ा गया तो कानून तो इसे सजा देगा, बिल्कुल मानेगा नहीं। बिचारा अबोध प्राणी सबूत तक नहीं मिटा पाया। अब इसने तो कर दिया लडकपन, कानून ने भी दे दी सजा। पर हम ऐसा नहीं कर सकते। भई सीधी सी बात है 'अतिथि देवो भव'।
अब कोई भी हमारे यहां आए। हम तो सदैव सर्वश्रेष्ठ सेवा देने का वादा करते हैं। बेहतर पैकेज, बेहतर सुविधाऐं। हमारा तो यही सिद्धांत हैं। कोई हमारे भरोसे ही अपना घर-बार छोड कर यहां आया है। अब यहां भला मन से कौन आता है। बिचारे मजबूरी में ही आते हैं। उनकी मजबूरी देखकर ही हमने अत्यन्त निम्न दरों पर बेहतर सुविधाऐं प्रदान की है। अब एक भला आदमी, आवेश में आ गया। किसी का सिर फोड दिया, किसी की जेब काट दी, कोई घोटाला कर दिया, बिचारा भला ही तो था इसलिए पकड ाई में आ गया। बुरा होता तो हत्थे चढता क्या।
अब हम भी तो भले आदमी ही हैं। हम तो पूरी कोशिश करते हैं। कि जैसे यह अपने घर में रह रहा था, वैसा ही माहौल उसे यहां दे। अगर वो घर पर चिकन-बिरयानी खाता था। रोजाना सोमरस का पान करता था। जर्दे-सिगरेट का शौकीन था। तो हमें क्या परेशानी है। हमारी जेलें कोई घर से कम है क्या। भई खूब मजे से खा। हम तो पक्के समाजवादी हैं। तू भी खा, हम भी खाऐंगे। दोनों भाई मिलकर खाऐंगे। क्या फर्क पडता है, पूरा देश ही खा रहा है।हमारा देश विकासशील देश है। निरंतर प्रगति की ओर अग्रसर हो रहा है। पुरातन जेल व्यवस्था में जो चिट्टी -पत्री लिखने की तकनीक थी, उसे हमने पीछे छोड़ दिया है। हमारी यह कोशिश रहती है कि यथासंभव सभी कैदी-भाईयों को संचार की नई सुविधाओं से अवगत कराऐं। नाना प्रकार की मोबाईल कंपनियों को हम सेवा का अवसर देते हैं। इससे देश का विकास होता है और कैदियों व अन्य 'सामाजिक' लोगों में मानवीयता और सद्‌भाव पनपता है। नहीं तो व्यक्ति बिचारा पांच साल के लिए जेल आया। तो लोग तो उसे भूल ही जाऐंगे। इसलिए हम कोशिश करते हैं। कि वो मोबाईल पर सभी लोगों के सम्पर्क में रहे।
आजकल तकनीक के अनोखे कमाल देखने को मिल रहे हैं। लोग घर बैठे मोबाईल के जरिए अपना व्यवसाय चला रहे हैं। हमने भी इस तकनीक को अपना लिया है। चूंकि अभी प्रयोग के स्तर पर है इसलिए कुछ 'चुनिंदा' लोगों को ही हम सुविधा देते हैं। अभी केवल बड़े-बड़े 'भाई', कुछ प्रभामंडल वाले नेताओं को ही इसका प्रयोग करने की अनुमति दे दी है। इनकी सफलता से हम इसे आम कैदियों को भी देने की सोच रहे हैं। हम तो यही चाहते हैं कि सरकार इसे नेट से जोड़ें और लोगों को वीडियों क्रांफ्रेस आदि की सुविधाओं से जोड़ा जाए। जिससे सरकार की आय भी बढ सके।
और फिर हम तो कर्म के सिद्धांत पर चलते हैं। अब इतना बड़ा भाई है, बिचारा कितनी मेहनत कर रहा था, मुम्बई से दुबई तक की भाग-दौड में लगा था, स्मगलिंग, सट्टा, फिक्सिंग से लेकर सुपारियां लेने के कर्म उसे करने पडते थे। अब दुर्भाग्यवश वो हमारे हत्ते लग गया तो क्या हम उसकी प्रतिभा को जंग लगने देंगे। नहीं हम ऐसा पाप नहीं करते। उसे मोबाईल सुविधा प्रदान कर उसे कर्म-पथ की ओर अग्रसर करते हैं। उससे इतना अच्छा व्यवहार करते हैं कि उसे लगता ही नहीं कि जेल में है।
और इससे तो हमारी संस्कृति का 'सर्वे भंवतु सुखिनः' का सिद्धांत फलित होता है कि सभी सुखी हों। मामूली दरों पर सुविधा पाकर भाई भी खुश, हम भी खुश सब खुश। अब हम भी खुश होंगे ही। भई 'कुछ' घर पर लेकर जाते हैं। तो बीवी तो खुश होगी ही, बच्चे भी नई-नई चीजें पाकर आह्‌लादित हो उठते हैं। यही सच्चा 'सर्वे भंवतु सुखिनः' का सिद्धांत है।
अब कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं। कि पुलिस के रहते हुए भी कभी-कभी जेलों में कितने भंयकर झगड़े होते हैं। लोग मर तक जाते हैं। तो भैया, झगडे कहां नहीं होते। तुम तो घर में रहते हो। बिल्कुल अलग-अलग, सगे भाई हो, एक ही मां के कोख से जन्मे। तुम भी तो एक-दूसरे के खून के प्यासे हो। तो यहां तो कितना बड़ा संयुक्त परिवार है। कितनी सारी विचारधाराऐं हैं। सो कभी-कभी ऐसा हो भी जाता है।इसलिए इसे अन्यथा नहीं लेना चाहिए।
हम तो इतना अच्छा माहौल देते हैं, सुविधाऐं देते हैं। फिर भी कुछ लोग जेल को अछूत की संज्ञा देते हैं। तो हम उनके लिए भी सोचते हैं। हमारा दिल कितना बड़ा है। वे भले ही हमारी जेलों को अपवित्र मानें। पर हम दया का परिचय देते हैं। उन बिचारों को भी बीमार घोषित कर अस्पताल में भर्ती कराने की सुविधा भी प्रदान करते हैं।
अब आप से तो क्या छिपा है। हमारी जेलों ने इतनी तरक्की की है। कि यहां से सरकार तक चल जाती है। कभी-कभी दुर्भाग्यवश ऐसा हो जाता है कि कोई महान विभूति ऐसे में शिकंजे में आ जाती है। तो हम उन्हें विशिष्ट का दर्जा देकर उन्हें सभी सुविधाऐं प्रदान करते हैं। उनके लिए स्पेशल जेल तक की व्यवस्था तक हो जाती है। बिहार में हमने ऐसा ही किया था।
यह आपके सामने है हमारी विकास की गाथा। पर हम यहीं नहीं रूके हैं। हम निरंतर विकास कर रहे हैं और यथासंभव जेलों को घर की तरह सुविधाऐं देने को तत्पर हैं। हमारी लगातार यही कोशिश हो रही है। कि इसे घर से बेहतर बना सकें। हालांकि मीडिया हमारे विकास में निरंतर बाधा उत्पन्न करता रहता है। लेकिन फिर भी हम पवित्र उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। हमारे विकास की गाथा देखने के लिए हम चाहते हैं कि प्रगति की यह यात्रा स्वंय अपनी आंखों से देखें। एक बार सेवा का अवसर दें। भारतीय जेल आपका हार्दिक स्वागत करती है।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

व्यंग्य प्यारे डेंगू अब चले भी जाओ

 

 

 



 

  नई दुनिया में 25-09-10 को प्रकाशित




 

प्यारे डेंगू,

तुम फिर आ गए। मैं ऐसा कृत्घन नहीं कि तुम्हारे आने से खुश न होउं। पर क्या करूं। तुम भी बस, समय नहीं देखते हो और चले आते हो। तुम सोच रहे होंगे कि मुझे क्या हो गया। मैं क्यों नहीं खुश हूं। तुम हर साल आते हो। भारी भरकम बजट और घोटालों की अपार संभावनाऐं लेकर आते हो। तुम्हें आने में देर होती है तो बच्चे पूछने लग जाते हैं। क्या बात है पापा इस बार डेंगू अंकल नहीं आए। हमारी दीवाली कैसे मनेगी।

पर इस बार तुम बिन बुलाए ही चले आए। तुम भी क्या करो। तुम्हें पता नहीं चला होगा कि हम इस बार घोटाले के मामले में आत्मनिर्भर हो गए। अब भैया हमारे यहां कॉमनवेल्थ गेम हो रहे हैं । हम तो बड़े मगन हैं। छातों से लेकर एयरकंडीशनर सभी में कूट रहे हैं। लोग तोप खरीद में कमाते हैं। हम तो केवल किरायों में ही कमा गए। सब लोग अपनी प्रतिभा के अनुसार जुगाड में लगे हुए थे। सब-कुछ ठीक चल रहा था। कि अचानक तुम आ गए।

तुम आते हो। खैर चले आओ। अच्छी बात है। अतिथि देवो भव। हम अपनी पंरपरा निभाते हैं। हर साल कितने ही लोगों को तुम्हारी भेंट चड़ा देते हैं। पर इस बार तो तुम थोडा ध्यान रखते। तुम्हें पता नहीं था कि इस बार हम कॉमनवेल्थ गेम करा रहे हैं। पता है तुम्हारी वजह से हमारे खेलों का कितना अपमान हुआ। हमारे एक मंत्रीजी तो यह तक कह गए कि खेलों की वजह से तुम आए हो। अब तुम भी बस। क्या तुम हर साल बिना नागा के नहीं आते हो। क्या तुम पहली बार ही आए थे।

तुम भी बस कैसे हो। हमने खेलों के लिए गडडे खोदे और तुमने सोचा कि सरकार तुम्हारे लिए स्वीमिंग पूल बना रही है। तुम वहीं पैदा हो गए। तुम्हें और कोई जगह नहीं मिली। बस कर दिया झट से खेलों को बदनाम। एक तो खेलों की पहले ही वाट लगी हुई है। तुम और कहीं ही चले जाते। तुम्हें भी बस बस दिल्ली के गडडे मिले। अरे हमारा तो पूरा देश ही गडडे में पड़ा हुआ है। जहां जाते, गडडे अपने आप ही पैदा हो जाते।हम खेलों के लिए कितने गंभीर हैं। तुम समझ ही नहीं रहे हो। हमने भिखारियों तक को भेज दिया। कह दिया, जाओ, भारत दर्शन करके आओ। देश की संस्कृति को समझो। फिर समझकर वापस आ जाना। बिचारे खेलों तक वे भ्रमण पर हैं। और तुम जो हो कुंए के मेंढक ही रहोगे। यहीं पड़े हो।

अब तुम कोई नेता भी नहीं हो। यहां कौन सी तुम्हारी पार्लियामेंट हैं। जो तुमसे दिल्ली नहीं छूटती। तुम तो आकर बस गडडे में कूद पड़े अरे कितनी मुश्किल से खेलों के लिए खोदे थे। सोचा था आज कॉमनवेल्थ का छोटा गडडा खोदा है, कल एशियाड का बड़ा गडडा खोदेंगे। और ईश्वर ने चाहा तो एक दिन ओलंपिक का सबसे बड़ा गडडा खोदकर पटक देंगे। चाहे पूरे देश को उसमें धकेलना पड़े

पर इस देश में कुछ अच्छा भला कैसे हो सकता है। अचानक तुम आ धमके। अब क्या करें। पूरे विश्व में फजीहत हो गई। पहले ही क्या कम हो रही थी। अब सब देश सर्टिफिकेट मांग रहे हैं। अब कहां से लाकर दे सर्टिफिकेट। सो भैया तुम अब कहीं चले जाओ। बस खेल करा लेने दो। आजकल तो हम बस एक ही बात चाहते हैं। कि बस किसी तरह यह खेल निपट जावे। तब तक के लिए तुम कहीं भी चले जाओ। समूचा देश खुदा पड़ा है। सब तरफ गडडे हैं। हर जगह गडडे ही गडडे हैं । उनमें भ्रसटाचार का इतना सडा पानी भरा हुआ है। कि तुम्हारी सात पीढियां तर जाऐगी। मरी हुई जनता को जितना चाहे डंक मारो। वो बेजुबान है, कुछ नहीं कहेगी। वो सदा से सहती आई है। सो भैया अब चले भी जाओ।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

व्यंग्य मानसून जा, जा, जा

नई दुनिया में दिनांक 17-09-10 को प्रकाशित मेरा व्यंग्य









अजी साहब, आजकल के आदमी का भी कोई मोरल नहीं है। अब देखिए न्‌। दो महीने पहले तक तो दुनिया जहान के देवी-देवता ढोक रहा था। पर्यावरण और औद्योगिकरण को गालियां दे रहा था। आसमान से निगाहें ही नहीं हटा रहा था। बार-बार बस मानसून को बुलाने के लिए यही गा रहा था। बस एक बार आ जा। पहले झलक से ही खुश होने का दावा कर रहा था। लेकिन अब हाल यह है कि सब मिलकर मानसून के पीछे पड़े हैं। 'मानसून जा, जा, जा।'
सब लोग परेशान है। कोई डेंगू की चपेट में है। तो कोई स्वानफलू से परेशान है। बहुत सी जगह बाढ का माहौल चल रहा है। सरकार खुद मानसून से परेशान है। कॉमनवेल्थ सर पर है और मानसून है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा। सरकार, मौसम विभाग से बार-बार यही पूछ रही है। कि भई इसके जाने का समय बताओ।
सारा देश चिल्ला रहा है। सरकार कोस रही है। पर मानसून बेशर्म बना हुआ है। सरकार ने कॉमनवेल्थ के लिए गडडे खोदे। लेकिन वो वहां भी जा घुसा। सरकार ओलंपिक की संभावनाऐं तलाश रही थी। पर मानसून ने उसमें डेंगू और स्वान-फलू जा तलाशा । ठेकेदारों के शिकार स्टेडियम मानसून के कारण आंसूं बहा रहे हैं। आज अगर यह भीषण मानसून नहीं होता। तो कम से कम ये अनगिनत छेद ढके हुए तो रहते।
सरकार ने कॉमनवेल्थ कराया था। भई चलो खिलाडियों को प्रोत्साहन मिलेगा। नए-नए रिकार्ड बनेंगे। पर मानसून गलत जा समझा। अब वो कई कीर्तिमान तोड चुका है। इतने सालों से लोग यज्ञ पर यज्ञ कराए जाते थे प्रार्थनाऐं कराए जाते थे। शायद मानसून इन सब प्रार्थनाओं के कारण अधिक ही द्रवित हो गया और बरस बैठा। और फिर बरस भी ऐसा रहा है। कि रूकने का नाम ही नहीं ले रहा।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

व्यंग्य मजूरी बढ़ा दे रे भैया

 नई दुनिया ( DELHI) में 28/08/2010 को प्रकाशित



आजकल हम सांसदों के दिन ही बहुत बुरे आ गए हैं। कोई हमारी सुनने को ही तैयार नहीं है। कहां हम दिन-रात लोगों की नहीं सुना करते थे। लोग कह-कहकर परेशान हो जाते थे लेकिन हमारे कानों पर जूं नहीं रेंगती थी। पर हमारा हाल भी अब जनता जैसा हो गया है।

इतने दिनों से मांग रहे हैं। कि भई हमारी मजूरी बडा दो। हमारी तन्खवाह ज्यादा कर दो। पर कोई मान नहीं रहा। अब देखिए न मंहगाई कितनी बढ गई है। हर चीज कितनी मंहगी हो गई। तुम क्या समझते हो हमें मंहगाई का पता ही नहीं है। ये तुम जो दिन-रात मंहगाई का रोना रोते हो। वो क्या हमारे कान में नहीं पडता। कितनी ही बार हमने खुद अपनी आंखों से अखबार में पड़ा है कि मंहगाई कितनी बढ गई है। तुम समझते हो कि हमें घर से कोई नहीं कहेगा तो हमें पता ही नहीं चलेगा। हमें सब पता है। हमने एक बार टी०वी० पर भी सुना था।

अब जब सब कह रहे हैं। तो सही ही कह रहे होंगे। हमारी आवाज न सुनो। तो कम से कम जनता की आवाज तो सुनो। अब तन्खवाह भी मामूली सी बड़ी है। तीन सौ गुना कितने से हैं। कोई हमें गरीबी की रेखा से नीचे बसर करने वाला समझ रखा है। अब पचास हजार रूपए में आजकल आता क्या है। ये तो हमारे एक बच्चे के जेबखर्च से भी कम है। बीवी का खर्च सुनोगे तो दस गुना वेतन भी कम पडता नजर आएगा।

अब लोग हंसते हैं। भई हमें वेतन की क्या जरूरत। मैं जानता हूं हमारे यहां ऐसे लोगों की कमी नहीं है। जो सांसद का पद मुफत में स्वीकार करने को तैयार है। पर भैया ये पद क्या हमने ऐसे ही लिया है। पूरा जीवन झोंक दिया है। जब जाकर यह पद मिला है। आज सरकारी कर्मचारियों ने छठा वेतन आयोग ले लिया। वे मजे में हैं। बैंक वालों की तनखवाऐं अच्छी हो गई है। और उपर से सब स्थाई हैं। अब भैया हम तो कोई परमानेंट कर्मचारी तो हैं नहीं। बस आज हैं, कल का क्या भरोसा। और फिर यहां तक कैसे आए हैं हम ही जानते हैं।अब भई सभी लोगों के मजे हैं। खूब सुविधाऐं हैं। जीवन भर मजे करते रहते हैं। सभी अपने बच्चों के प्रति कितने सजग रहते हैं। अब सब तो अपने बच्चों के लिए इतना सोचें तो हम क्या अनाथ छोड़ दें। हमें उनका भविद्गय नहीं दिखता क्या। क्या उन्हें सांसद, विधायक बनने की अधिकार नहीं है क्या। कल से उन्हें भी चुनाव लडने हैं, चार पैसे नहीं बचेंगे तो कैसे चुनाव लड पाएंगे अब ये बच्चे भी क्या करें। शुरू से ऐसे माहौल में रहते हैं। कैरियर के रूप में ले देकर राजनीति ही बचती है। फिर बीवी को भी तो कुछ करना ही पडता है जहां घर चला लेती है वहां देच्च चलाना कौनसी बड़ी बात है। और कल से इसके लिए कोई पद की फ्रिक नहीं करो तो फिर तुम ही आरोप लगाओगे कि देखो महिलाओं के अधिकार की रक्षा नहीं कर रहे हैं। यहां सबसे बड़ी बात आती है कि हम तो लाख इन्हें चुनाव लड़ाएं पर फिर चुनाव लडने के बाद जीतने की क्या गारंटी है।

सो बस इसीलिए लगे पड़े हैं। वेतन बढवाना ही चाहते हैं। सरकार तीन सौ प्रतिशत पर तो मान गई है। पर इतने से क्या होता है। हमें मिलता ही क्या है। थोड ा सा कार्यालय खर्च, संसद भत्ता, मुफत बिजली, घर और थोड़ी सी पेंशन । कुछ रेलवे के फ्री पास देते हैं। अब इनमें कौनसा अहसान कर रहे हैं। रेलवे और रोडवेज के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों तक को भी यह सुविधा आजीवन मिलती है।

अब सुन भी लो। बडवा भी दो।पांच सौ प्रतिशत की तो कह रहे हैं। वैसे काम तो हमारा हजार से भी नहीं चलेगा। पर कोई बात नहीं गरीब देश होने के नाते गुजर-बसर कर लेंगे। काट लेंगे। भगवान तुम्हारा भला करे।

महंगाई और सपने

दैनिक ट्रीब्यून 28/08/2010 को प्रकाशित व्यन्ग









इन दिनों मैं कई सुंदर-सुंदर सपने देख रहा हूं। क्या करूं, अब दिन ही ऐसे आ गए हैं। बहुत सोचता हूं कि एक बार हिम्मत करके अपनी इच्छाओं को पूरी कर ही लूं। पर अफोर्ड नहीं कर पाता। आखिर हैसियत भी तो होनी चाहिए। अब तो दिन में किसी के सामने इच्छा प्रकट करने में ही डर लगने लगा है। सोचता हूं कहीं सामने वाला यह नहीं सोचने लग जाए कि कहीं ये पागल तो नहीं हो गया है। सो सपने देख-देखकर ही काम चला रहा हूं।
अब लाख सोचता हूं कि सपने नहीं देखूं। पर मन का क्या करूं। मन पर कैसे काबू रखूं। उसने तो बहुत अच्छे-अच्छे दिन देखे हैं। पर अब की बात अलग है। रात को बस खवाबों में उनके दीदार करता हूं। सुंदर-सुंदर सी गोल-मटोल... लाल-लाल खिला हुआ रंग ....... आप चौंक गए न। आप भी बस...। आपकी सोच कभी सुंदर अभिनेत्रियों से आगे बढ़ेगी ही न। अरे भई मैं तो अरहर की दाल और टमाटर की बात कर रहा हूं। आजकल मंहगाई इतनी बढ गई है। कि बस अब चिंतन-सुख से ही काम चला रहे हैं।

सुबह उठता हूं। तो रसोई का ताला खोलकर काम शुरू करता हूँ , आजकल मंहगाई इतनी हो गई है कि यह सब जरूरी हो गया है। आजकल किसी का भरोसा नहीं है। कमरों के ताले लगाने का अब कोई फायदा नहीं है। टी०वी०, फ्रिज और इलेक्ट्रेनिक्स आईटम आजकल कौन चोरी करता है। अगर कोई घर से घी, तेल, शक्कर सेफ में रखे टमाटर ले जाए तो लेने के देने पड जाऐंगें।

रसोई के मामले में अभिनव प्रयोग शुरू कर दिए हैं अब बकायदों दानों की गिनती होती है। रोजाना रेट देखकर दानों की संखया कम कर दी जाती है। चूंकि स्तर बनाए रखना जरूरी है। इसलिए दाल बनती जरूर है पर वो किसी रहस्य से कम नहीं होती। उसमें दाल की कितनी कम मात्रा डाली गई है। यह कोई अनुभवी गोताखोर ही बता सकता है। सूखी सब्जी अब इतिहास का विशय रह गई है।
भगवान भला करे इन चिकित्सकों का, जिनकी वजह से अब इज्जत बनी रह जाती है। जब भी कोई मेहमान सब्जी या बिना चुपड़ी रोटी को देखकर नाक-भौं सिकोडता है। तो उसे स्वास्थ्य का हवाला दे दिया जाता है कि हद्‌य रोग से बचने के लिए डाक्टर घी की सखत मना करता है। सो हमने तो लाना ही बंद कर रखा है। और सब्जियों में तो आजकल इतने कैमिकल आने लगे हैं। कि बस उन्हें खाते हुए ही डर लगने लगा है। अब चाय में कम शक्कर तो पूछो ही मत। शुगर
की प्रॉब्लम कोई छोटी-मोटी थोड़ी हे हम तो बस अब रामदेव महाराज की शरण
में आ गए हैं। हमारे घर में तो सब बनना ही बंद हो गया है। मिठाईयों की दुकान पर गए
अर्सा हो गया। उनके दाम पढ कर सिहरन सी होने लग जाती है। अब तो कहीं पार्टी में जाते हैं तो जरा ज्यादा खा आते हैं। बाद में उन्हें ही याद करके जी बहलाते रहते हैं।
और रही बात घूमने की तो अब घर से बाहर कहां निकलो। कहीं भी जाओ पेट्रेल का खर्चा देखकर जान निकल जाती है। अब हमारी किस्मत ऐसी कहां कि घूमे हम और खर्चा सरकार वहन करे। यह हमारे भाग्य में कहां। और पर्यटन की तो सोचो ही मत। आजकल तो टी०वी० पर देखकर ही घूम लेते हैं।
बाकी... और अब करें क्या। सो सुंदर-सुंदर सपने देख लेते हैं। सपनों में ही अच्छा खा लेते हैं, अच्छा पी लेते हैं और घूम लेते हैं। हां, सपनों में बिल्कुल कंजूसी नहीं करते। अच्छे-अच्छे सपने देख रहे हैं। खूब सलाद खा रहे हैं, बढिया सब्जी बनवा लेते हैं, रोटी बिना देसी घी के नहीं खाते और तो और दो-दो दालें पी जाते हैं। हां, खाने के बाद मीठा खाना कभी नहीं भूलते। अब क्या करें, पुरानी आदत है, छूटे नहीं छूटती।
सो जीवन इसी तरह चल रहा है। अब असल में अफोर्ड करने की स्थिति रही नहीं है। सो बस सपने देख रहे हैं, प्यारे-प्यारे सपने, लाल-लाल टमाटर के, सुंदर-सुंदर दालों के, घी-तेल से लबालब थाली के। आप भी देखिए, सचमुच बहुत ही मजा आ रहा है।

व्यंग्य बरखा का अदभुत सौन्दर्य

 डेली न्यूज़ / जयपुर में 28/08/2010 को प्रकाशित व्यन्ग






कहते हैं कि भगवान देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। वाकई आजकल मानसून के साथ यही चल रहा है। कहां दो महीने पहले हम पानी की बूंद-बूंद को तरस रहे थे। और आज आलम यह है कि चारों ओर बारिश का भरपूर नजारा देखने को मिल रहा है। आज इन नजारों को गइराई से देखा जाए तो न जाने कितने मेघदूतों का जन्म हो जाए। वातावरण अत्यन्त सुहाना लग रहा है। चारों ओर गंदे पानी के भरे हुए गडडे मन को मोह लेते हैं। गर्मी के दिनों में सूखे गडडे, जो निरंतर गहराई दिखने के कारण शर्मिंदा थे, अब लबालब भरे हुए पानी ने उन्हें ढक लिया है। जिस तरह झील पर पंछी उडते हुए बहुत सुखद प्रतीत होते हैं।उसी तरह गडडें पर मच्छर के लार्वा पंछियों की तरह क्रीड करते मन को मोह लेते हैं।

सडकें, सडकें न लगकर आईस स्केट का मैदान प्रतीत होती है। यहां पर आदमी चलता कम है और फिसलता अधिक है। इस पर छाया मिटटी और कीचड पर्यावरण चेतना को बढावा देता है। अब पर्यावरणवादी चारों ओर कंक्रीट के जंगल का रोना नहीं रोते। क्योंकि सभी जगहें कीचड और मिटटी से ढकी हुई है। यह भविष्य के प्रति अच्छे संकेत हैं। हम एक सुनहरे कल की ओर बढ रहे हैं। हमारी यह अदभुत सडके कल से न केवल चलने के काम आएगी। बल्कि इन पर छाई मिटटी पर हम खेती भी कर सकेंगे। हो सका तो अगले एशियाड में स्केटिंग के स्टेडियम पर करोड़ों रूपए खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि यह काम द्राहर की सडकों पर बखूबी किया जा सकेगा।

वर्षा ने चारों ओर एक अद्‌भुत माहौल बना दिया है। सब-कुछ सुहाना लग रहा है। आओ फिर हम क्यों घर में चुपचाप बैठे हैं। बाहर सडक में छाए इस अदभुत नजारे से लोग अत्यन्त भावुक हो गए हैं। उनकी आंखे भीगी हुई हैं। उनके आंसू थम नहीं पा रहे हैं। घर-घर में 'आई-फलू' जो हो गया है। यही नहीं, डेंगू और स्वाईन फलू, जिन्हें लोगों ने बिल्कुल ही भुला दिया था। अब पुनः अपने लोगों के बीच पधार आए हैं। यही नहीं, नाना प्रकार के वायरस, जो पूर्व में अत्यन्त गर्मी के कारण विचलित थे। वे अत्यन्त सुहाने मौसम को पाकर फिर से लोगों के बीच में आ गए हैं। पीलियायुक्त लोगों के चेहरे सूर्य के समान दमक रहे हैं। डाक्टर प्रफुल्लित हैं और क्लीनिक पर लगी भीड़ को देखकर फूले नहीं समा रहे हैं। भांति-भांति के मरीज उनके उत्साह में अत्यधिक वृद्धि कर रहे हैं।

पशुओं का सूखा भी अब खत्म हो गया है। नाना प्रकार के पशु जो प्रायः सड कों पर बैठे रहते थे, पूर्व में उन्हें गर्मी दूर करने के लिए पोखर व गडडों की तलाश में न जाने कितने किलोमीटर घूमना पडता था। अब उनकी परेशानियां दूर हो गई हैं। सडकें ही छोटे-मोटे पोखर व गडडों में तब्दील हो गई हैं। वे इतने आराम हैं। कि वहीं चर लेते हैं व वहीं मल-मूत्र विर्सजन कर लेते हैं। उनके इस कर्म से समूचा वातावरण सुगंधमय हो गया है। सड कों पर जगह-जगह हुए गोबर व मिटटी को देखकर गांव के लिपे-पुते आंगन याद आ रहे हैं।

चारों ओर हर्ष का माहौल है। सड के बनाने वाले ठेकेदार अत्यन्त हर्ष की मुद्रा में है। जो सडक स्वाभाविक रूप से टूटने जा रही थी, अब उसका श्रेय वे वर्षा को देकर प्रसन्न हैं। और तो और वे इन टूटी हुई सड कों को निहारकर भविश्य के टेंडर को पाने की कल्पना से फूले नहीं समा रहे हैं।

अधिकारीगण भी खुश हैं। टेंडर खुलेंगे तो उनके घर में भी खुशियों की बहार आएगी। लोग जो पूर्व में सडकों की दुर्दशा से दुखी थे, वे यही सोचकर सुखी है कि भविष्य में एक दिन फिर इन पर डामर की अत्यन्त महीन चादर फिर चदेगी

सो बाहर निकलकर यही गुनगुना लें। 'आज रपट जाऐं तो....' अब साहब बाहर निकलेंगे तो फिसलेंगे तो सही। तो गिरते-गिरते गुनगुनाने में क्या हर्ज है।

डेंगू और राष्ट्रमंडल

  हरिभूमि में 28/08/2010 को प्रकाशित व्यन्ग

 

मैं कला विषय का विधार्थी रहा हूं। विज्ञान मुझे कभी समझ नहीं आया। कोई कुछ भी कह देता है। तो मान लेता हूं। अभी स्वास्थ्य मंत्री का बयान आया है कि खेलों के कारण दिल्ली में डेगूं फैला है। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। पहले मैनें सोचा कि भई यह खेल कोई मच्छर की वैरायटी तो नहीं है। कहीं विदेशियों ने खेल के माध्यम से कहीं कोई बीमारी तो नहीं भिजवा दी। पर मैंने सोचा तो वाकई मुझे सही लगा। कोई भी आयोजन हो। कुछ न कुछ बात हो जाती है। जब तक कोई विवाद खड़ा नहीं हो तो कोई कार्य उचित तरीके से सम्पन्न नहीं होता। लेकिन अब क्या करें। पूरी दुनिया में नाक रखने के लिए हमने राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन किया। अब क्या करें। लोग-बाग तो देश का नाम उंचा नहीं रखते। तो अब सरकार तो कुछ तो करेंगी। परंतु सब उल्टा हो गया। देश में सब ओर कभी-कभी मुझे समझ नहीं आता। कि कौन सी चीज किस कारण से उत्पन्न हुई है। मैं अपने दिमाग पर बहुत ही जोर डालता हूं। कुछ समझ नहीं पाता। अब मैं ठहरा कला का विधार्थी, यही सोचकर रह जाता हूं। कि डेंगू किसी वायरस से हुआ होगा। किसी बदमाश मच्छर की शरारत होगी। लेकिन अब पता चला कि यह क्यों हुआ। भई बड़े लोगों की बातें ही निराली है। वो ही सही तरीके से समझ पाते हैं। कि कौनसी चीज कैसे होती है।

आज यदि देखा जाए तो दिल्ली विश्व के सर्वाधिक साफ द्राहरों में है। गंदगी तो उसे कहीं दूर से भी नहीं छूती है। वहां कोई किसी तरह का कीटाणु आते हुए ही शर्माता है। न तो कोई बीमारी होती, और न कहीं किसी तरह की गंदगी। वहां के लोग इन बीमारियों का नाम भी नहीं जानते हैं। वो तो बेडा गर्क हो। इन राष्ट्रमंडल खेलों का। जो न जाने कौन-कौन सी बीमारियां हमें दे जा रहे हैं।

अब देखिए, इन खेलों के कारण ही जगह-जगह निर्माण कार्य चल रहे हैं। न जाने कितनी जगह गद्दे खुदे हुए हैं। न जाने कितनी जगह पानी भरा हुआ है। मानसून भी इस साल इतना बरसा कि बस चारों ओर पानी ही पानी हो रहा है। बस मौका पाकर डेंगू का वायरस भी मैदान में कूद गया है।

यानी कि खेल ही सभी मुसीबतों का कारण हैं। खेल नहीं होते तो भ्रष्टाचार नहीं होता। आज हम विश्व के सामने नए रिकार्ड बनाने को मजबूर नहीं होते कि एक सामान की कीमत से कई गुना राशी उसके डेढ माह के किराए के लिए दी जाती है। खेल का आयोजन नहीं होता तो नेताजी मानसून मिसाईल से इसके विनाश का आह्‌वान नहीं करते। खेल नहीं होता तो प्रधानमंत्री को निरीक्षण के लिए मजबूर नहीं होता। और सबसे बड़ी बात तो खेल नहीं होता तो कम से कम डेंगू तो नहीं होता।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

नई दुनिया में 13.08.10 को प्रकाशित व्यंग्य ‘आओ खेल खेलें’

इन दिनों मुझे गर्व की अनुभूति हो रही है। अब करूं भी क्या। खेल के इस अदभुत परिवेश पर मुग्ध हूं। खेल का ऐसा रूप कहीं नहीं देखा। खेल केवल खेल नहीं है। बल्कि मानो तो खेल कुछ भी नहीं है। खेल तो मात्र निमित्त मात्र है। असली खेल तो पीछे है। हमारे यहाँ खेल-परंपरा का अदभुत विकास हो रहा है। दूसरे देश खेल केवल खेल का आयोजन कर अपने आपको धन्य मान बैठते हैं। पर हम उन काहिल लोगों में से नहीं है। वहाँ लोग सिर्फ खेल खेलते हैं। इधर हम खेल में भी खेल खेल डालते हैं।
अब राष्ट्र्मंडल खेल होने को हैं। इंतजाम जो है पूरा होने का नाम ही नहीं ले रहे। रोजाना कोई न कोई अड़चन खड़ी हो जाती है। अभी कुछ भी पूरा नहीं हुआ। लोग आरोप लगाते हैं तो मंत्रीजी खिसिया जाते हैं। वे भी कह ही देते हैं। क्या करें, यह हमारी संस्कृति है कि हम हर काम आखिरी क्षणों में करते हैं चाहे शादी हो या कुछ और। पर कुछ लोग इसके नाकाम होने पर खुशी मनाने की घोषणा कर बैठते हैं।
हमारा देश खेलप्रधान देश है। यहाँ कदम-कदम पर नाना प्रकार के खेल खेले जाते हैं। परदे के आगे खेल होता है। परदे के पीछे खेल होता है। हम ओलंपिक में क्यों पदक नहीं ले पाते। क्यों हार जाते हैं। कुश्ती में क्यों चित्त हो जाते हैं। कारण यह नहीं है कि हम किसी से कम हैं। या हम किसी से कमजोर हैं। बस एक ही बात यह है। कि हमारे यहाँ केवल खिलाड़ी मैदान पर नहीं खेलता। उसके भीतर और भी खेल चलता रहता है। अब गेंद हाथ में है, अगर वो ढंग से पास दे दे तो दूसरा खिलाड़ी गोल कर सकता है। पर वो कैसे दे वो दूसरे खेल के कारण मजबूर है। जिसे पास दे वो तो दूसरे फेडरेशन वाला है। उसका आका तो दूसरा है। यहाँ स्वामीभक्ति मजबूर कर देती है। और वो पास नहीं देता। पहलवान है वो दम ही नहीं लगाता। अब दूसरे गुट का अध्यक्ष चुन लिया गया है।तो इस गुट वाले खिलाड़ी का नैतिक दायित्व बन जाता है। कि वो बिना लड़े ही चित्त हो जाए। क्योंकि वो जानता है कि वो खुद भले ही प्रत्यक्ष रूप से चित्त हो जाए। पर चित्त तो दूसरे गुट का अध्यक्ष ही हो रहा है। अब हार का जिम्मा उसके गुट पर आएगा तो ही अपने आका के अगली बार चांस पक्के होंगे।
फिर टीम में भी ऐसा हो जाता है। टीम का कप्तान भी एक-दो खिलाड़ी तो अपने खास आदमी खिलाता है। भई देखिए ऐसा बनता भी है। बिचारा सालों साल मेहनत कर, न जाने कितनी विभूतियों की सेवा कर-करके थक गया है। कितने हाथ-पांव दर्द कर रहे हैं। कोई तो दबाने वाला भी चाहिए। फिर दो-चार लोग हाँ में हाँ मिलाते रहें तो कप्तान का आत्मविश्वास मजबूत होता है। अब बदले में भले ही वे गोल करे या नहीं। या रन बनाए या नहीं। सो ऐसे खेल चलते ही रहते हैं।
जब कप्तान के दो-चार खास होते हैं। तो फिर जो संभावित कप्तान का दावेदार होता है। जो बिचारा किन्हीं कारणों से कप्तान का पद लेने से वंचित रह गया। वो भी अपने एक-दो खिलाड़ियों के साथ इसी प्रयत्न में लगा रहता है। कि किसी तरह इस कप्तान को फेल किया जाए। ताकि आगे कप्तान बना जा सके। अब वो कितनी आसान गेंद हो, गोल में नहीं डालता। कितना भी आसान टार्गेट हो। बल्ला उठाता ही नहीं। आप सोच रहे होंगे कि इसे खेलना ही नहीं आता। अरे, वो जितनी गहराई से खेल रहा है। उतनी तो कोई सोच ही नहीं सकता। असली खिलाड़ी तो वही है। बाकी सब बेकार है।
अब राष्ट्र्मंडल खेलों में भी ऐसा ही हो रहा है। अय्यर जी खेल की बर्बादी की दुआ मंाग रहे हैं। अब राजनीति का खेल शुरू हो गया है। तरह-तरह की अटकलें शुरू हो गई है। लोग उन खेलों को भूल गए हैं। अब असली खेल इधर शुरू हुआ है। लोग इधर अटकलें लगा रहे हैं। क्या पार्टी में फूट पड़ गई हैं। ये ऐसा क्यूं बोल रहे हैं। इसका क्या कारण है। थोड़े दिन बाद यही होगा। विदेशों से आए खिलाड़ी दर्शक दीर्घा में बैठे रहेंगे और इधर राजनीति के नए-नए खेल चलते रहेंगे। यह तो देश के भाग्य में हे . लोग भी क्या करें। राजनीतिक पद तो वैसे ही कितनी मुश्किल से मिलते हैं। अब सभी लोंगो का मन करता है। सो वे खेलों के ही पदाधिकारी बन बैठते हैं। बिचारों ने कभी हाॅकी या बल्ला तो उठाया होता नहीं सो बस वहाँ भी वो राजनीतिक खेल शुरू कर देते हैं। जो नहीं बन पाते या प्रतीक्षा सूची में होते हैं। वो बाहर बैठकर कुछ न कुछ बोलते रहते हैं। इसी उम्मीद के साथ कि कभी न कभी परमात्मा उनकी सुनेगा।
सो सब खेल रहे हैं। समूचा देश खेल रहा है। सभी कहीं न कहीं लगे हुए हैं। तो आप क्या कर रहे हैं। चलिए उठिए कोई खेल ही खेलते हैं।

रविवार, 1 अगस्त 2010

व्यन्ग व्यन्ग नासा वालों के नाम

इन दिनों मैं बहुत शर्मिंदा हूं। किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। क्या करूं, अपने अभियान में असफल रहा। तुम और मैं एक ही मिशन पर काम कर रहे थे। हम दोनो पानी की खोज में लगे हुए थे, तुम नासा मिशन वाले चाँद पर पानी खोज रहे थे और मैं अपने घर के नल में। प्रयास मैंने भी बहुत किए, पर अंततः बाजी तुम मार गए। मैं परेशान हूं, मैं इतने समय से कोशिश में लगा हुआ हूं , पर कुछ हो नहीं पाया।
जबसे तुमने चाँद पर पानी खोजा है बीवी मुझसे बहुत नाराज है। दिन-रात ताने देती रहती है। कहती है मेरे पिताजी ने पता नहीं क्या सोचकर ऐसे आदमी के पल्ले बांध दिया जो मुझे पानी तक नहीं पिला सकता। तुमसे घर के नल में पानी नहीं ढूंढा गया। और वहां नासा वालों ने तो चाँद पर भी पानी ढूंढ मारा।
पर सही बात है कि मैं अकेला कर भी क्या सकता हूं। तुम लोग बड़े आदमी हो, इतने संसाधन हैं। तुम तो कुछ भी कर सकते हो। कोई मैं तुम्हारी बराबरी थोड़े ही कर सकता हूं। किन्तु वो मेरे पीछे ही पड़ी हुई है, बस बार-बार यही कहती है कि जरा आप भी नासा वालों की मदद ले लो और पानी खोजो पर अब मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं। इसे कैसे समझाउं कि भारतीय भूमि और चन्द्रभूमि, दोनों में बहुत अंतर है। इस धरा पर कोई कार्य सम्पन्न कराना कोई आसान काम थोड़े ही हैं। चाँद पर तो पानी कोई भी ढूंढ सकता है पर इस भू पर अवतरित होकर ऐसे प्रयास करें तो पता चलेगा कि यहाँ काम करना कैसा होता है। पर मेरी पत्नी नहीं मान रही। बार-बार यही कह रही है। कि अगर तुम नासा वालों की मदद नहीं लोगे तो मैं ही उन्हें बुला लूंगी।
मैं इन दिनों यही सोच रहा हूं। कि तुम्हें मेरे मोहल्ले के नलों में पानी ढूंढने के लिए लगा दिया जाए। तो क्या परिणाम निकलेगा। क्या तुम पानी खोज पाओगे। पर तुम मेरी पत्नी की बातों में आकर ऐसी कोशिश मत कर बैठना। वरना पागल ही हो जाओगे।
देखो, यह सब बातें तुमसे इसलिए कह रहा हूं। कि तुम चाँद की भूमि से भले ही परिचित हो। पर इस धरा के महत्व को नहीं जानते। यहाँ पर खोज शुरू करने से पहले ही कितने पापड़ बेलने पड़ेगे। सर्वप्रथम पानी की खोज शुरू करने के लिए तुम्हें पहले जलदाय विभाग के दफतर को खोजना पड़ेगा। बहुत सारे दफतरों में से एक दफतर है, अगर किस्मत से वो मिल गया। तो रामखिलावन को ढूंढना पड़ेगा। रामखिलावन कौन, अरे वहां का चपरासी। भगवान को ढूंढना आसान है पर उसे ढूंढना बहुत मुश्किल है। उसका आधा समय तो बाजार में पान की दुकानों पर बीतता है। तो नासा वालों तुम्हारी खोज का सर्वप्रथम स्थल होगा। चाय व पान की दुकानें। सबसे पहले इन दुकानों पर सेटेलाईट लगाना पड़ेगा। जिस तरह चाँद के गर्भ में जाकर संयत्र कुछ बताने में समर्थ हो पाते हैं। वैसे ही एक जर्दे का पान अंदर जाने के बाद ही रामखिलावन इस स्थिति में आता है। कि वो कुछ बता सके।
उससे प्राप्त सूचना के आधार पर जब तुम कार्यालय के अंदर प्रवेश करोगे। तो वहां नाना प्रकार की खाली मेजें तुम्हारा इंतजार करती हुई मिलेगी। शायद खाली कक्ष देखकर तुम यह गलतफहमी पाल लो कि सब-कुछ कार्य यंत्रचालित होता है। पर एकाध घंटे बाद कोई बाबू आएगा। तो उसे देखकर तुम्हारे संशय का निवारण हो जाएगा।
पर वो बाबू तुम्हें देखकर अनदेखा कर देगा। सरकारी कार्यालयों में लोगों की निजी स्वतंत्रता का इतना ध्यान रखा जाता है। कि तुम अगर सुबह से शाम तक खड़े रहोगे। तो कोई यह नहीं पूछेगा। कि आप कौन है व किस कार्य हेतु पधारे हैं। पूछताछ का नैतिक अधिकार केवल आपका ही है। और उसे आप ही को संचालित करना है।
लेकिन नासा वालों, यह गलतफहमी मत पालो। कि उन बाबूओं का जन्म तुम्हें यह सब बताने के लिए ही हुआ है। तुम दस बार पूछोगे तो एक बार उनकी गर्दन उपर होगी। बड़ी मुश्किल से वे कुछ कह पाऐंगे। क्या करें बिचारों के पास काम ही बहुत है। अब तुम्हें एक नई तकनीक का पता चलेगा। जिसे कि ‘पास’ करना कहते हैं। तुम्हें फाईल के बारे में यह पता चलेगा कि यह काम शर्मा देखता है। पर शर्मा उसे वर्मा के पास, वर्मा तिवारी के पास व तिवारी उसे मलिक के पास बताएगा। पर मलिक अंततः यही कहेगा कि यह काम वाकई गुप्ता देखता है जो फिलहाल दस दिनों की छुटट्ी पर गया हुआ है। एक बार नासा को रामखिलावन की सेवा करनी पड़ेगी। जो यह बताएगा। कि मोहल्ले की नल-लाईनों की फाईलें कौनसे बाबू के पास है।
कहते हैं कि सेवा करने से ही मेवा मिलता है। अब तुम्हें पता चलेगा कि फाईल तो मलिक ही देख रहा है।वो तो तुमने ही पता ठीक से नहीं बताया इस लिए उसने गुप्ता का नाम लिया। वो यही कहेगा कि एक तो गलती करते हो। उपर से...। पर कोई बात नहीं बुजुर्ग सही कह गए हैं। कि सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती। सो यंहा तुम सेवा करोगे तो वो अवश्य नर्म पड़ेगा। उसकी नर्माहट से उसके दिमाग का तापमान स्थिर होगा, जिससे फाईल ढूंढने में मदद मिलेगी और फिर ईश्वर की दया से दो-चार हफते जाने के बाद वह दिन आएगा। जब फाईल मिलेगी।
तुम अमरीका में रहते हो।सो फाईल मिलते ही चैन की सांस लोगे। पर साहब चाहे तुम लाख अनुसंधान करते हों। पर तुम्हारी रिसर्च यहाँ के आगे फेल है। क्योंकि अभी फाईल-अनुसंधान शेष है। यहाँ चाँद के हिसाब से थोड़े ही चलता है कि तुमने जहाँ चाहा पानी खोज लिया। अब नियम-पालिसियां भी कोई चीज है। ये सब सोच-समझकर बनाई गई है। सो अब नासा के अनुसंधानकर्ताओं, अब तुम पर अनुसंधान शुरू होएगा।
हमारे देश के शाश्वत नियमों में से एक यह है कि जब फाईल बाबू की मेज तक पहुंची है। तो उसमें दोष निकलना तय है। क्योंकि अभी तो फाईल में नाना प्रकार के दोष हैं। न जाने कितने प्रकार के अनापत्ति-प्रमाणपत्रों की जरूरत महसूस की जा रही है। न जाने कितने नियम अनदेखे रह गए हैं। तुम सोच रहे हैं। कि फाईल पूर्ण है। तो गलत सोच रहे हैं। अभी तो इसमें आधे से ज्यादा कागज तो लगे ही नहीं है। अब यहाँ पर भी कुछ महीने इसमें लगने स्वाभाविक है।
खैर इस बात में तुम्हें अधिक तकलीफ नहीं होगी। क्योंकि नासा के मिशन भी बहुत लंबे-लंबे होते हैं। एक दिन ऐसा आएगा कि नाना प्रकार की सेवाओं के बाद फाईल पूर्णता को प्राप्त कर लेगी।तुम चैन की सांस लोगे। पर साहब चैन आजकल के जीवन किसे मिला है। सो अब तुम एक नई दुनिया में प्रवेश करोगे। हमारे कार्यालयों की एक व्यवस्था से तुम परिचित होंगे। जिसे चरण-व्यवस्था कहते हैं। तुम्हें मेरे नल में पानी खोजना है। तो अब फाईल नाना प्रकार के बाबूओ, अफसरों व विभागों के चक्कर लगाएगी। यहाँ सब अपने-अपने विवेक और सेवा के अनुसार टिप्पण देंगे। पहली बात तो फाईल यह नोट लगकर बंद हो सकती है। कि चूंकि नासा एक प्राईवेट एंजेंसी है। अतः उसे यह अधिकार नहीं दिया जा सकता।
हो सकता है। तुम कुछ भारी सेवा कर दो। तो यह फाईल आगे बढ़ जाऐ । लेकिन आगे निश्चित है कि विभाग की कोई कमी नहीं नजर आएगी। एक दिन फाईल पर यही नोट लगा हुआ आएगा कि ‘प्रार्थी का प्रार्थना पत्र झूंठा है, रिकार्ड से पता चला है कि पानी की सप्लाई तो अनवरत की जा रही है।’
अब नासा वालों तुम करना हो, जो कर लो। जो चाहे। तुम पशोपेश में पड़ जाओगे। कि पानी तो मेरे नल के लिए चला है। तो फिर कहाँ गायब हो गया।तुम मेरी तरफ देखोगे। सही है साहब। कोई सरकारी विभाग वाले झूठ नहीं बोल रहे। पानी वहाँ से चलता जरूर है। बिचारे पानी की क्या औकात। सप्लाई दी जाएगी। तो जाएगा ही। पर बीच में कहां गायब हो गया। यह रहस्य का विषय है।
अजी साहब यही तो है। हमारे यहाँ यह एक बहुत बड़ी समस्या है। हमारी व्यवस्था में किसी चीज का अभाव नहीं है। जिस तरह जलदाय विभाग से मेरे नल के लिए पानी चला। उसी तरह हमारे यहाँ सब होता है। नाना प्रकार के बजट गरीबों के लिए चलते हैं, पर वो वहाँ तक नहीं पहुंचते। कई तरह की योजनाऐं उनके लिए बनती है। पर उन तक नहीं पहुंच पाती। जानवरों का चारा उनके लिए चलता है। और बीच में इंसानों के पेटों में समा जाता है।
सो अब तुम्हारी रिसर्च का विषय यही रहेगा। कि पानी चला तो था। पर पहुंचा क्यों नहीं। अब साहब यही तो परेशानी की मूल जड़ है। तुमसोच रहे होंगे इस बात का पता नहीं। तो यह तुम्हारी गलतफहमी है। जलदाय विभाग की टंकी और मेरे नल के बीच की पाईपलाईन में हजारों कनेकशन हैं। जाने कितनी जगह लाईनें मुड़ती है। विभाग वालों ने मेरे घर की तरफ मोड़ी थी। पर साहब बीच में कितने प्रभावशाली लोग हैं। जिनकी पहुंच न जाने कहाँ तक हे .
अब भैया नासा वालों, जिनके हाथ में सत्ता है, ताकत है, जो सरकार तक को मोड़ सकते हैं वो भला पाईपलाईन नहीं मोड़ सकते। सो नासा-विशेषज्ञों, इतनी जहमत मत उठाओ, मत ज्यादा खोजबीन करो। मैं पहले ही तुम्हें बता देता कि मेरे नल में पानी इसीलिए नहीं आ रहा।
अब उन पहुंच वालों के खिलाफ तुम कुछ नहीं कर सकते। चाहे तो तुम यह प्रयास भी करके देख लो। चाँद पर इंसान नहीं मिला। इसलिए तुमने झट से पानी खोज लिया और पूरी दुनिया की निगाह में बन बैठे हीरो। पर भैया यह लोग तुम्हें आतंकवादी करार देंगे। तुम्हारे खिलाफ आरोप लगा देंगे कि विदेशी ताकतें उनके जल-देवता की अवमानना कर रहे हैं। फिर भी तुम नहीं माने तो फिर तो आन्दोलन ही खड़ा हो जाएगा। अब तुम्हारे पास जान बचाकर भागने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा।
फिर तुम अमरीका पहुंचकर कभी पानी की खोज का नाम ही नहीं लोगे। इसलिए तुम हमारे देश के बाहर कुछ भी खोजो। बाहर अंतरिक्ष में जाओ। पूरा सौरमंडल ही पड़ा है। बुध, मंगल, शुक्र, शनि, तुम्हारे जंचे जहां मेरी पत्नी की बात में आकर कभी मेरे नल में पानी खोजने की बात मत कर बैठना। नहीं तो फिर तुम्हें भगवान भी नहीं बचा सकता। आगे तुम्हारी मर्जी।

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

खेलना मगर ध्यान से

दैनिक हिन्दुस्तान में 16.01.2010 को प्रकाशित व्यंग्य




आईऐ, राष्ट्र्मंडल खेल नगरी दिल्ली में आपका हार्दिक स्वागत है। हालंाकि खेल के प्रारंभ होने में अभी महीनों बाकी है। हमारी तैयारी जोरों पर है। रोजाना बयान आ रहे हैं। हम तो तैयार हैं। पर आप लोग, जो विदेश से यहंा खेलने आ रहे हैं। आपका शारीरिक व मानसिक रूप से तैयार होना जरूरी है ताकि आप इस देवताओं की भूमि पर खेलने लायक बन सके।
यदि आप रेलवे स्टेशन पर उतरेंगे। तो भीड़ को हार्दिक स्वागत करते हुए पाऐंगे। इतने सारे प्रशंसक देखकर आप घबरा जाऐंगे। आप पाऐंगे कि जितना आप बाहर निकलने की कोशिश कर रहे होंगे, उतनी ही ताकत से ये आपको अंदर धकेल रहे होंगे। अब आपकी संघर्ष दिखाने की बारी है। अब आप जोर लगाइए। हंा, यहंा हो सकता है। कि आपके कपड़े फट जाऐं या चोट लग जाए। हो सकता है, आप उतर ही न पाऐं। पर आप हिम्मत नहीं हारियेगा। अभी तो बहुत संघर्ष बाकी है।
आप जब स्टेशन से बाहर आऐंगे। तो बहुत से लोग आपके पीछे पड़ेगे। वे आपको आपकी मंजिल तक पहुंचाने के लिए इतने प्रतिबद्ध हैं। कि आपस में लड़ भी सकते हैं। यह ‘अतिथि देवो भव’ का नायाब नमूना है। खैर, अब जैसे-तैसे आॅटो-टैक्सी वालों के चंगुल से छूटोगे तो हो सकता है। आपके सामने ‘लो-फलोर बस’ आ जाऐ। आप चाहो तो इसमें चढ़ सकते हो। लेकिन आग बुझाने के साधनों के साथ चढ़ना। अपने घर से फायर-प्रूफ जैकेट लेकर चलना, क्योंकि इसमें आए दिन आग लगती रहती है। हंा, ब्लू-लाईन बसों से दूर रहना। क्योंकि अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है। उसमें चढ़कर तो तुम्हें लगेगा कि संसार वाकई नश्वर है। क्योंकि वहंा कुछ भी हो सकता है।
अब तुम आ जाओगे। अपनी खेल-प्रतियोगिताओं के मैदान में। नए-नए स्टेडियम और इमारतें तुम्हारा भव्य स्वागत करेंगी। तुम सब-कुछ नया-नया देखकर होश खो बैठोगे। तुम अति उत्साह में आ जाओगे। पर थोड़ा ध्यान रखना। गोला-वोला, जो भी फेंकना हो, थोड़ा धीरे-धीरे फेंकना। यह क्या है कि तुम्हारे आने से चंद घंटे पहले ही तैयार हुई है। और तुमने कुछ अधिक जोश दिखाया तो प्लास्टर बाहर आ जाएगा। और इससे तुम्हारा तो क्या जाएगा। एक तो देश की किरकिरी होगी और एक गरीब ठेकेदार ब्लैक-लिस्टेड हो जाएगा। भले ही देश का नहीं तो उस गरीब का तो ख्याल रखो। क्यूं बिचारे के पेट पर लात मार रहे हो।
खेलोगे तुम ही। पदक भी तुम्हें जीतने हैं। हम तो वैसे भी दार्शनिक हैं। हमारे लिए ये स्वर्ण, रजत सभी मिटट्ी हैं। हमें कोई मोह नहीं है। तुम आराम से जीत लेना। ज्यादा दम लगाने की जरूरत नहीं है। हमारा पर्यावरण में प्रदूषित गैसें ज्यादा हैं। कहीं दम फूल गया तो फिर परेशानी में पड़ जाओगे।
अब खेलकर जाओगे। तो कम से कम कुछ जगह तो घूमना चाहोगे। खूब घूमो, हमारे यहंा बहुत लोग आते हैं। हंा, थोड़ा बटुआ वगैरह संभालकर रखना। कीमती सामान लेकर मत निकलना। खरीददारी करने का मन है। कुछ निशानी लेकर जानी है। तो जरूर खरीदना पर थोड़ा ध्यान रखना। तुम्हारी चमड़ी देखकर बिचारे गिनती भूल जाते हैं। और इन्हें केवल यह याद रहता है। कि गणित में केवल गुणा का प्रयोग ही किया जाता है। यदि ये किसी चीज की कीमत सौ रूपए बोले। तो तुम दस की बात करना। हंा, दस में भी नुक्सान हो। तो हमारी जिम्मेदारी नहीं है।
अब तुम्हारे जाने का दिन भी आ जाएगा। अब अतिथि से जाने के लिए कहना तो बिल्कुल गलत है। पर भैया हमारे यहंा इतने दिन का अरेंजमेंट है। हम तो रोक भी लेते। पर फिर क्या सावे भी शुरू होने वाले हैं। हमने ये शादी के लिए किराए पर दे रखा है। अब तुम आश्चर्य मत करना। क्या कहा आगे के खेलों के लिए। अरे भैया, यह तो प्राईवेट काम है। तब तक तो हड़प्पा की तरह लगने लगेगा। अगले खेलों का तो बजट अलग ही रहता है। वहंा फिर नए बनाऐंगे। फिर तुम भी जरूर आना। हमारे यहंा तुम्हारा भव्य स्वागत है

सवाल एक पद का

अमर उजाला में 12.01.2010 को प्रकाशित व्यंग्य



वो मुझे बहुत अच्छी तरह जानता था। बल्कि यूं कहिए, वो मेरी सात पुश्तों तक से परिचित था। हमारे संबंधों का स्तर इसी बात से पता चलता है कि उसे यह भी मालूम था कि मुझे मूंग व उड़द की दाल की तुलना में अरहर की दाल अच्छी लगती थी। पर जब वो सामने पड़ा तो बिना नमस्कार लिए निकल गया। उसकी इस हरकत से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। यह स्वाभाविक था। अब मैं उस पद पर नहीं रहा था, जिस पर उसका काम पड़ता रहता था।
क्या करंे, पद चीज ही ऐसी है। पद पर रहे तो सब पूजते हैं। पद से उतरे नहीं कि सामने वाले कि सामने वाले की श्रद्वा आदि सब गायब हो जाती है। पूजा-अर्चना, भेंट-चढ़ावा सब इतिहास के अंग बन जाते हैं।
लेकिन केवल पद पर रहना, व्यक्ति को जमीन से उपर नहीं रखता, उसके लिए ‘काम’ का पद होना भी आवश्यक है।
भगवान की दया से और आर्शीवाद से मुझ गरीब के पास भी एक काम का पद था, किन्तु एक दिन अचानक वो पद जाता रहा और मुझे लगा, सब कुछ बदल गया। वो, जो मेरे न चाहते हुए भी निकटस्थ था, अब लाख चाहने के बाद भी ‘दूरस्थ’ हो गया। वो जो मेरे पास घंटों बैठे हुए ‘मन बहलाता‘ रहता था, अब नमस्कार करने के लिए समय का अभाव प्रदर्शित करने लगा।
पहले वो मेरे पास आकर चुपचाप बैठ जाता था। मुझे नाना प्रकार के आदरणीय संबोधनों से महिमामय कर देता था। कभी-कभी उसकी बातों से मुझे लगता था कि मैं ‘स्वर्गमय’ हो गया हूं व मैंने अपने ग्राहकों के लिए देवता का अवतार धारण कर लिया है।
वो मेरा ‘अपनों’ से भी अधिक अपना था। मेरे बच्चों की पढ़ाई की जितनी चिन्ता उसको थी, उतनी स्वंय बच्चों को नहीं थी। कभी मेरा कोई परिवारजन बीमार पड़ता, तो वो खाना-पीना छोड़ देता। कई बार मैंने, उसी के पैसों से प्रायोजित ‘जूस कार्यक्रम’ द्वारा उसका ‘आमरण अनशन’ तुड़वाया। कभी मेरे किसी रिश्तेदार की मृत्यु हो जाती तो मैं उसे संात्वना दिलाते-दिलाते थक जाता। मुझे उसे बतलाना पड़ता कि यह संसार का नियम है, जो व्यक्ति इस संसार में आता है, उसे जाना ही पड़ता है। दुख करने से कोई लौट नहीं सकता, किन्तु वह ‘भौतिकवादी’ बड़ी मुश्किल से मेरे अध्यात्म को समझ पाता।
मेरी पत्नी को कौनसी कंपनी की साड़ियंा अधिक आर्कषित करती थी, यह उसे पता था। अपने सामान्य ज्ञान का प्रदर्शन वो समय-समय पर करता रहता था। बच्चों का वह ‘सर्वप्रिय अंकल’ उनकी गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकार्डस में लगातार ‘सर्वश्रेष्ठ अंकल’ का खिताब जीतता रहता था। बच्चों के सभी खेलों की विस्तृत जानकारी उसके दिमाग में फीड थी। और वो अपने बच्चों को भले ही समय न दे। लेकिन मेरे बच्चों को कभी इस बात की शिकायत नहीं होने दी। बीवी और बच्चों की जन्मतिथि उसे कंठस्थ थी। जन्मदिन पर सबसे पहले बधाई का हक उसी का रहता था और उसके रहते हुए इस अधिकार को कोई भी हासिल नहीं कर पाया था। केक, मोमबत्ती, डेकोरेशन और गिफट सब उसी का काम था।
मुझे चिंता है अपने दादाजी की आयुर्वेदिक दवाइयों की, जिसकी अनवरत आपूर्ति अब उसके अभाव में कैसे संभव हो पाएगी। आज तककभी ऐसा नहीं हुआ। कि दादाजी के इलाज में कोई कोताही हुई हो। दवाईयां लाते-लाते वो खुद ही छोटा-मोटा वैध बन गया था।
किन्तु अब किया क्या जा सकता है। पद जाते ही मन स्वतः दार्शनिक बन गया है। बुद्व कह गए हैं कि परिवर्तन संसार का नियम है। कोई वस्तु अथवा पदार्थ स्थाई नहीं रहता। ‘पद’ भी एक अस्थाई पदार्थ है। अतः उसके लिए क्या दुख करना। जब बड़े-बड़े दिग्गजों के नहीं रहे तो अपन तो क्या हैं।
जब बड़े-बड़े लोग पदों पर रहने के बाद नीचे आते हैं तो वे भी तो अपने आपको संात्वना दिलाते हैं। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री व मंत्री आदि स्तर के लोग भी तो जीते ही हैं। सो इन्हीं महान पुरूषों से शि़क्षा लेकर डटा हुआ हूं। बस अब तो इस आस में जिंदा हूं कि कब पुनः लाभ के पद की प्राप्ति हो और पत्नी, बच्चों व दादाजी के मुरझाऐ हुए चेहरों पर बहार आ सके। कब बच्चों के सर्वप्रिय अंकल उनके लिए दिन-रात सौगातें लेकर आऐंगे। कब बीवी की शापिंग लिस्टें सक्रिय होगीं। कब दादाजी प्यार से उसके हाथों से खुराक का स्वाद चखेंगें। मुझे विश्वास है। यह दिन जल्दी ही आएगा।यदि बसंत के बाद ‘पतझड़’ आती है तो पतझड़ के बाद पुनः एक दिन बसंत आएगी। अब ये कब आएगी, यह कौन बता सकता है। मेरे हाथ में तो इंतजार करना है और वो मैं कर रहा हूं।

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मुझे पुरस्कार मिलना

हम लोग डेली न्यूज में 10.01.2010 को प्रकाशित

आखिर बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया। एक दिन सोकर उठा मेरे लेखकीय जीवन की अदभुत घटना घट चुकी थी। मैं पुरस्कृत हो चुका था। बहुत दिनों से मन में इच्छा थी कि पुरस्कृत हो जाउं। लिखते-लिखते इतने दिन हो गए थे। लोग भी शक की निगाह से देखने लग गए थे।
जब भी किसी को पुरस्कार मिलता। परिचित मुझसे व्यंग्यात्मक स्वर में पूछते, ‘क्या बात है, काफी दिनों से आपका नबंर नहीं लग रहा। सबको मिल गया।‘ पत्नी तक नाराज थी। ‘पता नहीं कागज काले-काले कर क्या करते हैं। अब तो कहीं से जुगाड़ कर लो। मायके वाले बार-बार पूछते हैं। मुझे तो बड़ी शर्म लगती है। पापा तक कहते हैं कि किसी से कहलवाना हो तो मैं कहूं क्या।’
मैं क्या जवाब देता। मैं भी बहुत कोशिश में था, पर कोई देने को तैयार ही नहीं था। कई बार बहुत नजदीक तक पहुंचकर भारतीय क्रिकेट टीम की तरह वंचित रहा। शहर में पुरस्कृतों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। जो पुरस्कार पा चुके थे वे मुझे हेय दृष्टि से देखने लगे थे।
इन दिनों मैं खूब लिख रहा था, छप भी रहा था। मैं बार-बार उनके सामने अपनी रचनाऐं लेकर जाता था। पर वे उसे छूते तक नहीं थे। वे अपने लेखन को कालजयी मानते थे। उन्हें मेरा लेखन क्षणिक लगता था। वे सदैव मुझे ऐसा लिखने को कहते थे जो लोगों को जगा सके। पर मेरे बारे में सदैव यही मानते थे कि जब मैं स्वंय ही सोया हुआ हूं तो भला लोगों को कैसे जगा सकता हूं।
पर अंततः वो दिन आ ही गया। मुझे पुरस्कार मिल गया। मुझे लगा मेरी जैविक गतिविधियंा बदल चुकी है। पुरस्कार पाकर मुझे वही
अनुभूति हुई। जो संभवतः बुद्ध को बोधिज्ञान पाने के फलस्वरूप हुई होगी।
पुरस्कृत लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनकी नजर में कल तक तो ऐसा कुछ था नहीं। साहित्य तो कहीं से पुरस्कार मिलने लायक नहीं था। शक्ल से जुगाड़ लायक आदमी भी नहीं लगता। पर हो सकता है। आजकल कुछ कहा नहीं जा सकता। किसी के चेहरे पर लिखा तो नहीं है। कहीं पैसे-वैसे का चक्कर तो चला नहीं लिया। शुरू में वे असहज रहे। पर क्या कर सकते थे, मजबूरी थी, अब मिल ही गया था, सो उन्हें अपनी बिरादरी में शामिल करना ही पड़ा।
इधर मेरे हाव-भाव भी बदल गए। कल तक, मैं भी पुरस्कार को साहित्य का मापदंड नहीं मानता था। जब भी कोई पुरस्कार की बात करता तो मैं फौरन लड़ने वाली स्थिति में आ जाता था। पर अब मुझे लग रहा था कि वाकई पुरस्कार के बिना साहित्यकार का आकलन नहीं हो सकता। एक पुरस्कृत व गैर-पुरस्कृत में तो जमीन-आसमान का अंतर होता है। कल तक मैं पैदल चलता था तो मेरे कदम बड़ी मुश्किल से उठते थे। आज मुझे लगने लगा कि मैं हवा में तैर रहा हूं।
लोग, जो मेरे नजदीक थे, वे और नजदीक आए। लोगों के पास आने से मुझे अपनी गरिमा का बोध हुआ और मैं थोड़ा उपर हो गया। उपर होने से मुझे नीचे के लोग छोटे-छोटे दिखने लगे। जिससे मुझे बड़े होने की गलतफहमी हुई।
अब चूंकि मैं पुरस्कृत हो चुका था। तो लोग मेरे पास आने शुरू हो गए। मेरे साथ वाले भी कहने लगे, ‘अब तो आपका सम्मान हो ही जाना चाहिए।’
मैंने भी उनकी बातों का समर्थन किया। ‘हंा, अब तो हो ही जाना चाहिए।’ बरसों से दूसरों का सम्मान कर-करके परेशान था। दूसरों को माला पहनाते-पहनाते हाथ दुखने लगे थे। अब तो गर्दन में भी खुजली चलने लगी थी।
पत्नी ने भी इसे सहजता से लिया। ‘हंा, मिल गया, अच्छी बात है। बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था। पापा की बात मानते तो बहुत पहले ही दिला देते। इनकी तो आदत ही बहुत खराब है। किसी का अहसान लेना ही नहीं चाहते। खासकर मेरे घरवालों का तो बिल्कुल नहीं।’ अड़ौस-पड़ौस वालों ने भी मान लिया कि मैं भी कुछ हूं।
पर मुझे इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं जान गया हूं। यह शरीर मात्र मिटट्ी है। यह संसार चार दिनों का मेला है। तीन दिन तो पुरस्कार पाने के चक्कर में चले गए। अब एक दिन बचा है, तो क्यों न पुरस्कार रूपी ‘निर्वाण’ का सुख भोग हूं। सो आजकल मैं इसी में मगन हूं। कोई भला कुछ भी कहे।

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मजबूरी में आ गई कार

नवभारत टाईम्स में 5.01.2010 को प्रकाशित व्यंग्य


आजकल कुछ समझ ही नहीं आ रहा। पत्नी का मन करता है। कि कार ले ली जाए। बच्चेका मन करता है कि लैपटाॅप ले लूं। तो मेरा मन करता है कि गरमी बहुत लगती है। तो एक ए.सी. ही लगवा लूं। बच्ची का मन एक वीडियो कैमरा लेने का कर रहा है।
आप सोच रहे होंगे। कि क्या इस बार मेरी कोई लाटरी ही निकल गई। पर ऐसा कुछ नहीं है नहीं जनाब यह सारी महिमा किश्तों की है। जिनकी वजह से आजकल मैं ऐसे सपने देखने की हिम्मत कर पा रहा हूं। मेरी भी हालत अजीब सी है। मेरी जेब में एक भी पैसा नहीं हैं। मैं बहुत समझा रहा हूं। पर बाजार में सुनने वाला नहीं है। मैं कह रहा हूं। भई कहंा से चुकाउंगा। पर वे हंस रहे हैं। अरे सब आ जाएगा। आप तो बस ले जाऐं।
मैं भ्रमित हूं। क्या ले जाउं, क्या नहीं ले जाउं। पत्नी व बच्चों की अलग-अलग फरमाईशें है। मैं परेशान हूं। पर देने वाले परेशान नहीं है। वे कहते हैं। सब ले जाउं। अरे भाभीजी कह रही है, बच्चे कह रहे हैं, उनका दिल मत तोड़ो। भाभीजी तो साक्षात देवी हैं और बच्चे तो भगवान के रूप हैं। आप भला उनका दिल कैसे दुखा सकते हैं।
उनकी बात सुनकर मैं चकरा जाता हूं। पत्नी मेरी है, कभी मैनें इतनी चिन्ता नहीं की। बच्चों के बारे में भी वे सोच रहे हैं। बस ले जाइए। क्या है, मामूली सी किश्तें हैं। चैक दिए और फ्री हो लिए।
मैंने दोनों जेबें उसके सामने खाली कर दी। भई कुछ भी नहीं है। पर वो सुन ही नहीं रहा। कोई बात नहीं हंड्र्ेड परसेंट फाईनेंस करने को तैयार है। वो चीजें ही नहीं बेच रहा, दार्शनिक भी है। अरे ले जाओ भाईसाहब। क्या कहा आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। अजी साहब, आजकल आर्थिक हालत तो पूरी दुनिया की खराब है। आप अपनी बात कर रहे हैं। अब अमरीका को ही लो। साहब जो पूरी दुनिया पर राज करता था। आज लोंगो के सामने हाथ पसारे खड़ा है। पर क्या लोग वहंा नहीं जी रहे। आज भी साहब मजे से जी ही रहे हैं। खूब खा पी रहे हैं। अब भाई साहब, भाभीजी की इतनी इच्छा है। कार लेने की तो ले ही लीजिए। कम से उन्हें सोसायटी में नीचा तो नहीं देखना पड़ेगा।
पत्नियंा, जिन्हें कि प्रायः पति को छोड़कर सारी दुनिया की बात सही लगती है।उसे भी लगने लगा कि कार से सार्थक वस्तु तो इस दुनिया में बनी ही नहीं। पर फिर बात पेट्र्ोल पर आकर अटक जाती है। मैं समझाता हूं। कि कार लेना कोई बड़ी बात नहीं है। पर पेट्र्ोल और रखरखाव में बजट धराशायी हो जाएगा। बीवी भी बिचारी इच्छा होते हुए भी चुप रही। पर बेटी फरमाईश कर बैठी।
फिर क्या था, दुकानदार पीछे ही पड़ गया, ‘अजी साहब, अब तो ले लीजिए, बेटी कह रही है। आज थोड़ा घूम भी लेगी, कल से पराए घर जाना है। वहंा पता नहीं कैसा घर मिले। आज आप के राज में थोड़ा सुख भोग लेगी। कल का किसे पता नहीं।’
पत्नी भावुक हो गई। ‘सच कह रहे हो, पर भाईसाहब। पर ये तो कभी ऐसी बात सोचते भी नहीं।’
मैं भला क्या कहता। चुप रहने में ही भलाई थी।
आधुनिक अर्थव्यवस्था का नया रूप था। सब कुछ जायज था। बस चिन्ता एक ही थी कि किसी तरह माल बिके।
पर पत्नी भी कह उठी,‘ वैसे आप सही कह रहे हो भाई साहब पर बात यह है कि इतने रूपयों की किश्त कैसे अफोर्ड कर पाऐंगे। हमें तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा।’
वो खिल उठा।,’ आप अच्छी चिन्ता कर रही हैं बहिनजी। हम काहे के लिए हैं। हम हैं ना। किश्तों का समय बढ़वा देंगे। एकदम कम बोझ पड़ेगा। अरे बहिनजी किश्त देने वाले हम थोड़े ही हैं। सब भगवान देता है। उसकी मर्जी के बिना आप गाड़ी ले सकते हैं क्या। जिसने चोंच दी है, वो चुग्गा भी देगा।जो गाड़ी दिलाएगा, वो किश्त का भी जुगाड़ करेगा।’
अंततः क्या करते। लेनी ही पड़ी। सो बस आजकल यही चल रहा है। पूरा बाजार पीछे पड़ा है। अखबार इन्हीं चीजों से हुआ है। ‘इतने कम दामों में पहली बार’ ‘टी0वी0 के साथ डी0वी0डी0 फ्री’ या ‘ करोड़ों के ईनाम’ं। आदमी भी कहंा तक संघर्ष करे। किश्तों के सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं। परिवार भी क्या करे। बस कागज-कलम लेकर बैठा है। रोज नई-नई गणित लगाते हैं। तन्खवाह में से इतने पैसे किश्त में गए। तो बाकी में खर्चा चल ही जाएगा। कैसे भी गुजारा कर लेंगे। दो हजार रूपए की तो बात है। दादाजी वाला कमरा किराए पर दे देंगे। उनका सामान दुछत्ती में शिफट कर देंगे। और कुछ खर्चे कम कर देंगे। कम से कम सामान तो आ जाएगा।
सो आजकल सब-कुछ किश्तमय हो रहा है। आप मुझ पर हंस रहे हैं। पर जनाब, आप अपने आपको देखिए। मुझे तो आप भी किश्तों के भंवर में ही डूबते नजर आ रहे हैं।

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सरदी का एक दिन

अमर उजाला में 30.12.2009 को प्रकाशित


रोजाना की तरह आज भी लेटा। सबसे पहले रजाई में से मुंह निकाला। लेकिन सर्द हवा के कारण उसे पुनः रजाई में देना पड़ा। पर हर स्थिति का एक अंत होता है, सो उठना ही पड़ा। घर का फर्श बर्फ की चटट्ानों सा प्रतीत हो रहा था। बाहर निकलकर देखा सूरज भी मेरी तरह ठिठुर रहा था।
दो-तीन चाय पीकर शरीर इस हालत में आया कि वो थोड़ा हिल सके। शरीर में हरकत होने से श्रीमतीजी का नहाने संबंधी प्रस्ताव आया, जिसे मूल्यवान जल का महत्व समझाते हुए नकार दिया। मैं अपनी इस उपलब्धि पर बहुत खुश था, लगातार सात दिन न नहाकर मैंने कितने अमूल्य जल की बचत की थी।
तभी पत्नी ने मुझे फ्रिज से आटा व सब्जी निकालने को कहा, मैं कंाप गया। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। सो मैंने शरीर को भली-भंाति कम्बल में लपेटा व सावधानी से फ्रिज का दरवाजा खोला। ढके होने के बावजूद शीतलहर का झोंका शरीर को ठिठुरा गया। मैं फौरन रजाई में घुस गया।
थोड़ी देर बाद श्रीमतीजी नाश्ता लेकर आई। सर्दी के दिनों में डाईनिंग-रूम वीरान पड़ा रहता है। बेडरूम का कार्यभार अधिक बढ़ जाता है। नाश्ते के बाद एक नींद लेकर मैंने खाना भी वहीं खाया। आफिस का सही समय निकले एक घंटा बीत चुका था। श्रीमतीजी दुश्मन की तरह मुझे बार-बार आफिस की याद दिला रही थी। क्या करूं, मजबूरी में जाना ही पड़ा।
नाना प्रकार के वस्त्रों में लद-फदकर मैं आफिस की ओर चल पड़ा। मुझे लग रहा था कि बुलेट प्रूफ कपड़े ऐसे ही होते होंगे। अगर गोली भी घुसेगी तो शरीर को नहीं छू पाएगी।
आफिस पहुंचा तो डेढ़ घंटे लेट हो चुका था। चपरासी वहीं धूप में स्टूल लगाकर बैठा हुआ था।
‘क्या बात है बाबूजी, आज जल्दी आ गए। अभी तो कोई नहीं आया।’
मुझे पत्नी पर गुस्सा आ गया। इतनी जल्दबाजी भी ठीक नहीं है। ये शर्मा व वर्मा तो बिस्तर में दुबके रहे होंगे। और यहंा हम सर्दी में परेशान हो रहे हैं। हम भी कोई कम थोड़े ही है। मैंने चपरासी को आवाज लगाई और कुर्सी धूप में निकालने को कहा। चपरासी निरपेक्ष भाव से मुझे देखता रहा। शायद आवाज उसके कानों तक पहुंचने से पहले जम गई थी। हारकर मैं ही कुर्सी निकाल लाया। लंच टाईम तक काफी लोग आफिस आ चुके थे।
कुछ लोग काम के लिए आए भी, उन्हें शीतलहर खत्म होने के बाद आने को कहा। क्या करें, ठंड के मारे पेन ही नहीं खोला जाता। फाईलों के फीते ठिठुरन के मारे खुल ही नहीं पाते। लोगों को भी चैन नहीं है, भरी सर्दी में काम के लिए चले आते हैं।
जाने कैसे आफिस में टाईम पास होता है। मैं ही जानता हूं। सब कुछ चाय के ही सहारे चल रहा है। चाय नहीं होती, तो कैसे पार पड़ता। सूरज छिपने से पहले ही पंछी घोंसलो की ओर चल दिए। शाम की चाय पीने के बाद फिर बिस्तर में घुस गया। फिर खाने की बात होने लगी। बातों की शुरूआत स्वास्थ्य निखारने की बातों से होती है। हरी सब्जियों से प्रारंभ होती हुई फिर नाना प्रकार के पराठों पर खत्म हो जाती है।
सो इसी तरह चल रहा है। ठंड के मारे सारा देश कंाप रहा है। सारा काम ठप्प पड़ा है, लाख कोशिश कर रहे हैं पर हाथ है कि बाहर निकलने का नाम ही नहीं लेते। क्या कह रहे हैं, आप कोशिश करके देखेंगे। अरे रहने दो, थोड़ी गर्मी आ जाने दो, क्यों परेशान हो रहे हो। थोड़े दिन काम नहीं करेंगे तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। सो बस बैठे हैं।


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नए राज्यों की दौड़ में चांदनी चैक

नवभारत टाईम्स में 29.12.2009 को प्रकाशित व्यंग्य





तेलगांना के नए राज्य की घोषणा से नए-नए राज्यों की मंाग शुरू होने लगी है। इसी तरह चलता रहा तो आने वाले बीस-तीस सालों में देश का न जाने क्या होगा। प्रस्तुत है सन दो हजार पचास में चांदनी चैक के एक वरिष्ठ नेता का आत्मकथ्य।
‘‘सचमुच समझ में नहीं आता। क्या किया जाए। लोग हमारी मंाग को नाजायज बताते हैं। लेकिन यह बिल्कुल गलत है। हमारे इलाके को राज्य का दर्जा मिलना ही चाहिए। पहले ही दिल्ली चार राज्यों में बंटा है। यदि एक राज्य और हो गया। तो किसी का क्या जाएगा। जब पूरा भारत सैकड़ों राज्यों में बंटा हुआ है। तो एक हमारे साथ अत्याचार क्यों किया जाए। अब मुम्बई को ही लो। मराठी-मानुष करते-करते अब वो तो पंाच राज्यों में बंट चुकी है। सुना है अब वहंा भी अंधेरी को दो राज्यों में बंाटने की मुहिम चल रही है। अंधेरी-पूर्व और अंधेरी-पश्चिम।
इसलिए हमें ही लग रहा अब वक्त आ गया है। कि हम इस बात के लिए संघर्ष करना शुरू कर दें। जब इन्होंने कनाट प्लेस को नया राज्य बना दिया तो हम चंादनी चैक वालों ने क्या बिगाड़ा। यहंा हम सैकड़ों साल से पिसे जा रहे हैं और ये नए-नए मोहल्ले राज्यों का दर्जा पा जाते हैं। अब साहब, आप ही देखिए, हमारे साथ कितने अत्याचार किए जा रहे हैं। सबसे ज्यादा पर्यटक हमारे यहंा घूमने आते हैं। कोई लाल-किले में गंदगी फैला रहा है, तो कोई जामा-मस्जिद जा रहा हैं। कोई यहंा पराठे खाने आ रहा है। तो कोई लस्सी सुड़क रहा है। अरे, भई परेशानी तो हमीं को होती है। हमारे यहंा तो भीड़भाड़ बढ़ती जा रही है।
अब कितना अच्छा होगा। जब चंादनी चैक में
विधानसभा हो जाएगी। हमारा अपना मुख्यमंत्री होगा। कोई भी हो सकता है। इस बात पर अभी बहस शुरू करना नहीं चाहते। नहीं तो फिर अभी मीडिया विरोध शुरू कर देगी। कि हमने सत्ता पाने के लिए ऐसा किया है। भई, हम तो विकास के मुदद्े को लेकर यह प्रस्ताव लाए हैं। आप हंस रहे हैं, अरे भई अब हमारा विकास होगा। तो क्या पूरे देश का विकास नहीं होगा। कोई हम देश से अलग हैं। हमारे पास पूंजी आएगी तो देश में ही तो इन्वेस्ट करेंगे। बिल्कुल ठेठ देसी आदमी हैं। कोई विदेश लेकर थोड़े ही भाग रहे हैं पूंजी को। अपने चंादनी चैक में कितनी जरूरत है पैसों की।
और फिर कितने कार्यकर्ता हैं। आज इनके मन कितने उदास हैं। जब ये कनाॅटप्लेस वाले कार्यकर्ताओं को लाल बत्ती की गाड़ी में घूमते देखते हैं। तो इनके सीने पर संाप लोट जाता हैं। दिल उदास हो जाता है बिचारों को। ये कल के छोकरे कनाटप्लेस के नए राज्य बनने के कारण विधायक बन बैठे। और बरसों से यहंा जूते घिस रहे हैं। तो यहंा कुछ नहीं हो पा रहा। भई मन तो सभी का करता है। हमने भी जनता की सेवा में जीवन झोंक दिया। अब हमारा मन भी तो सम्मान पाने को करता है।
सो अब हमने पक्का फैसला कर लिया है। बस फौरन मंाग करने वाले हैं। अभी पान की दुकान पर नत्थू से चर्चा की तो वो भी इस बात के लिए राजी था। कि अब तो चंादनी चैक को नए राज्य का दर्जा दे दिया जाए। कार्यकर्ताओं से भी बात चल रही है। वे भला क्यूं मना करेंगे। वो तो बिचारे हाईकमान के आगे कभी कुछ नहीं कहते। और फिर हम ऐसा कर रहे हैं तो कोई हमारा अकेले का फायदा थोड़े ही है। हम तो सदैव से बहुजन-हिताय के लिए सोचते रहते हैं।
अब आप सोच रहे हैं जब हमने सोच ही लिया है। तो फिर परेशानी किस बात की है। फिर मंाग काहे नहीं कर रहा है। प्रधानमंत्री मना करेंगे। नहीं-नहीं, वो बात नहीं है। प्रधानमंत्रीजी तो भले आदमी हैं। कुछ नहीं कहते, देश में कहीं से कोई भी उठकर चला जाता है। वो फौरन दे देते हैं। बहुत अच्छे मन के हैं। किसी का दिल नहीं दुखाते। आप सोच रहे होंगे। जब सब-कुछ ठीक है। तो फिर परेशानी किस बात की। अजी साहब, सही बात तो यह है। कि हमारे देश में एकता ही नहीं है।। इधर हम चांदनी-चैक में नए राज्य की बात कर रहे हैं, सोचते हैं चलो मोहल्ले का विकास हो जाए। पर उधर ये लाल-किले वाले हमारे रास्ते में रोड़े अटका रहे हैं। सुना है वो भी अलग राज्य की मंाग करने वाले हैं। कहते हैं कि लाल-किले पर हर साल प्रधानमंत्री झंडा फहराते हैं। इसी हिसाब से उनका भी एक अलग राज्य का हक बनता है।
और फिर मैं जानता हूं। कि कोई लाल-किले वाला इसकी मंाग नहीं कर रहा। पर ये परसादी लाल मुख्यमंत्री बनने के चक्कर में है। भई हम तो कहते हैं। कि चलो मिल-बैठकर बात कर लेंते हैं। भाई-भाई हैं, कुछ भी समझौता कर लेंगे। पर वो मान ही नहीं रहा।अब प्रधानमंत्रीजी तो ठहरे भले मानुष। अगर जोर देंगे तो वे लाल किले को भी अलग राज्य बना देंगे। लेकिन इससे देश की एकता और अंखडता को कितना खतरा है।
पर साहब अब हमने सोच लिया, जो सोच लिया।कोई हमने अकेले ने ही थोड़े देश की एकता का ठेका ले रखा है। हम तो जा रहे हैं बस मंाग करने। बस अब नए राज्य चंादनी चैक की घोषणा होने ही वाली है। सो तैयार हो जाइए।

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विज्ञापन और मेरी परेशानियां

दैनिक भास्कर: 28.12.2009 को प्रकाशित व्यंग्य




मुझे समझ में नहीं आता, मैं क्या करूं। आखिर बात ही ऐसी है। विज्ञापनों ने मेरी परेशानियंा बढ़ा दी हैं। मैं लाख अपने पर नियंत्रण रखने की कोशिश करता हूं। पर हो नहीं पाता।
किंतु इसमें मेरी गलती नहीं है। मैं सीमित बजट वाला आदमी। भले ही दो समय भरपेट रोटी नहीं खा पाता। लेकिन जैसे ही कैटरीना कैफ मुझसे टी0वी0 पर कहती है। कि तुम यह क्रीम लगाओ। तो मैं भला कैसे इंकार कर सकता हूं। और फिर मैं कहूं भी क्या। कितने प्यार से देखती है वह। आंखों में आंखे डालकर, मुस्कराती हुई। इतने प्यार से तो कभी बीवी ने नहीं देखा। उसने तो अपना सारा समय लड़ाई में ही बिताया। सो मैं मजबूर होकर क्रीम खरीद बैठता हूं।
वाकई बहुत ही अच्छा लगता है। नहीं तो हम तो अपने जमाने में हीरोईन की मुस्कराहट देखने के लिए तरस जाते थे। पर अब जमाना कितना बदल गया है। एक बीस-पच्चीस रूपए की क्रीम के लिए खुद कैटरीना कैफ बोल रही है। सचमुच मेरी तो अंाखें ही गीली हो जाती है। कितनी मजबूर होगी नहीं तो कोई ऐसे बोलता है क्या। और फिर हम गप तो मार नहीं रहे। उसने खुद हमारी अंाखों में झांककर मुस्कराते हुए बोला कि तुम क्रीम ले लो न।
और फिर सही बात तो यह है कि चलो गलती से कह दिया हो तो कोई बात नहीं। भई मुंह से निकल गया। हम जैसे साधारण आदमी से भला ऐसी बातें कोई क्यों करेगा। पर एक घंटे में पंाच-पंाच बार । और वो भी सभी के सामने। एक तरफ हमारा पूरा परिवार बैठा है। दूसरी तरफ कैटरीना प्यार से कहे जा रही थी। हम तो शर्म के मारे मर गए। हमने झट से दूसरा चैनल बदल दिया। पर दीवानगी देखो, वहंा भी कैटरीना कैफ। अब आप ही बताओ। हम क्या करते। एक क्रीम के लिए भला उसका दिल कैसे तोड़ सकते थे। और फिर वो तो बिचारी यहंा तक कह रही थी कि टयूब नहीं खरीद सकते तो कोई बात नहीं दो-दो रूपए के किफायती पाउच ही ले लो। हमसे तो बेइज्जती बर्दाश्त नहीं की गई, हम झट से क्रीम की बड़ी टयूब खरीद लाए।
पता नहीं आजकल हममें ऐसा क्या जादू आ गया। कि सब ही हमारे पीछे पड़े रहते हैं। अब अपनी दीपिका पादुकोण और करीना भी आजकल बार-बार यही बात कहती है। बस लेना है तो यह वाला साबुन ले लो। हमने बहुत कहा कि हम तो भई आजकल कैटरीना के कहने में चल रहे हैं। उसे बुरा लगेगा। पर वो ही बात। बार-बार मुस्कराना, अंाखों मे झांकना। फिर एक बार कहे तो हम ऐसे भी नहीं है कि खरीद ही लें। जब मिले तब एक ही बात। भई यह वाला साबुन ले लो। अब कैसे दिल तोड़ पाते। सो खरीद ही लिया। और वो तीन-तीन बटट्ी। पत्नी को शक भी हुआ। क्या बात है। जिन्दगी भर तो मिटट्ी से नहाते-नहाते बीत गई। अब यह खुशबु वाला साबुन कैसे। अब क्या कहते। बस चुप्पी लगा गए। अब इनकी इज्जत थोड़े ही उछाल सकते थे।
अब और आपको क्या बताऐं। हम तो बड़ी मुसीबत से गुजर रहे हैं। उधर अपने अक्षय भैया एक दस रूपए की बोतल पिलाने के लिए कितने खतरों से गुजरते हैं, मेरा तो दिल दहल जाता है। भैया, एक बोतल के लिए क्यों जान को खतरे में डालता है। जान है तो जहान है। कोई और भले ही दुनिया में तेरी बोतल न पिए। पर मैं तो जरूर पीउंगा। क्यों ट््रक के चपेटे में आ रहा है।
बात यहीं तक थी, तो ठीक था। पर उधर अपने सचिन व धोनी भैया को भी लो। वे भी दिन-रात पीछे पड़े हैं। बार-बार एक ही बात कह रहे हैं। भैया अच्छे व्यंग्य लिखना चाहते हो तो हमारी एनर्जी का सीक्रेट देखो। यह वाला पाउडर दूध में डालकर पीओ। अब कौन बताता है इतनी बड़ी बातें। कौन चिंता करता है। आजकल लोग अपने अलावा किसी दूसरे की तो सोचते ही नहीं है। इतने बड़े खिलाड़ी हैं, देश के लिए खेल रहे हैं। वे बिचारे अपनी जान लगा देते हैं। तो क्या हम उनके कहने से पाउडर दूध में डालकर नहीं पी सकते।
अब इतनी बातें सुनकर बड़ी उलझन में पड़ जाते हैं। क्या किया जाए। हमने भी तय कर लिया। भले ही बिक जाऐं। पी0एफ0 लोन सभी खत्म हो जाऐ। पर इन मासूमों का दिल नहीं तोड़ना है। ये जो भी कहेंगे, वो लेंगे। फैंटेसी बड़ा सुख देती है। सभी लोग इसी के पीछे तो भाग रहे हैं। कर्ज की आखिरी बूंद तक खर्च हो जाए। पर अब इनका ध्यान जरूर रखना है। सो रख रहे हैं।