गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

व्यंग्य हारने के बाद का चिंतन

नवभारत टाईम्स 2.12.2009 को प्रकाशित


वे इन दिनों आत्मविश्लेषण कर रहे हैं। यह एक आम तथ्य है। हार के बाद लोग अक्सर ऐसा करते पाए जाते हैं। जीतने का अतिविश्वास था, लेकिन हार गए इसलिए ऐसा सोचना जरूरी भी है। यह सब अकस्मात ही हुआ, जीतना बिल्कुल तय सा लग रहा था कि अचानक यह परिणाम सामने आया। मन है कि मानने को तैयार ही नहीं होता। आखिर कोई इस तरह से कैसे हार सकता है। गीता की इस टिप्पणी पर उन्हें कभी विश्वास नहीं होता था। कि सब-कुछ क्षणिक है, उन्हें लगता था कि यह कथन उनके लिए नहीं बल्कि विपक्षी दलों के लिए बना है। उनकी सत्ता तो स्थाई है, शाश्वत है और चिर्-काल तक चलने वाली है।
पर प्रतिकूल परिणाम आए और वे सत्ता से बाहर हो गए। अब बाहर हो गए तो कुछ करना तो है। बैठे-ठाले क्या करेगें। पहले तोे टाईम नहीं मिलता था। पर अब क्या करें तो आजकल चिंतन प्रारंभ कर दिया है। आखिर कुछ तो करना पड़ेगा नहीं तो लोग तरह-तरह की बातें करेगंे। हालंाकि उन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की। कभी किसी की नहीं सुनी। लोग कहते-कहते थक जाते थे पर उनका ध्यान उनकी तरफ नहीं जाता था। लेकिन वे इसे भी नहीं मानते, वे कहते हैं कि सब-कुछ गलत है। जनता झूठ बोलती है। उन्हें कभी आवाज नहीं सुनाई दी। ऐसी बात नहीं कि उन्होंने कोशिश नहीं की। उन्हें बार-बार बुदबुदाने की आवाज आती थी। पर वो उनके कानों तक आ नहीं पाई। वे इसे कान की बीमारी समझ रहे थे। सोच रहे थे चुनाव जीतते ही इसका आपरेशन करवाऐंगे। दो कान अतिरिक्त लगवाने का भी प्लान था कि इतने में परिणाम आ गए।
हारना हमेशा दुःखद होता है। ऐसा नहीं कि वे पहली बार हारे। पहले भी हारते रहे है पर हमेशा की तरह उन्हें यह हारना बुरा लगा। इन पंाच सालों में उन्होंने कितना सब किया, सभी लोगों को कितने आश्वासन, वादे बंाटे। कितना सुधार किया। इतने अल्प-समय में और हो भी क्या सकता था। वो तो यही सोचे बैठे थे कि पंाच साल और मिलेंगे तो सभी की शिकायतें दूर कर देंगे। पर अब क्या हो सकता है।
हारते ही मन में दर्द उठा। दर्द उठता ही है। क्या करें अब पंाच साल कैसे कटेंगे। अब तो यह पांच साल तो पहाड़ों से लग रहे हैं। पर कोई बात नहीं टाईम तो पास करना ही होगा। आराम भी कहंा तक करें, गप्पें भी कहंा तक हंाकें। फिर ऐसा करने से कहीं जनता यह न समझ बैठे कि वे कुछ नहीं कर रहे। इसलिए चिंतन प्रांरभ कर दिया है।
समूचे राज्य में सभी स्तरों पर यह चिंतन चल रहा है। जब हारने नहीं चाहिए थे तो क्यों हारे। आखिर क्या बिगाड़ा था उन्होंने जनता का जो वोट जैसी तुच्छ चीज नहीं दे पाई। इस भौतिकवादी युग में उन्होंने कौनसा सोना-चांदी मंागा था सिर्फ साधारण सा समर्थन तो मंागा था वो भी जनता नहीं दे पाई।
पर अब भीषण चिंतन प्रारंभ हो गया है। सब लोग सोचने में लग रहे हैं। पंाच साल से कुछ सोचा नहीं तो दिमाग की नसें तनने लगी है। पर वे फिर भी सोच रहे हैं। सभी लोग कहते हैं कि उन्हें नीचे तक झंाकना चाहिए। अरे पर वे भी क्या करते। सत्ता के दिनों में वे अजीब सी बीमारी का शिकार हो गए थे। गर्दन ऊपर के अलावा कहीं घूमती ही नहीं थी। नीचे तक निगाह गई ही नहीं। ऐसा नहीं कि उन्होंने चिन्ता नहीं की। उन्होंने बहुत इलाज कराया। पर कोई फायदा नहीं हुआ। लेकिन अब चुनाव हारते ही यह सब तरफ घूमने लगी है बल्कि ऊपर उठना ही भूल गई।
गली-गली यही बातें हो रही है। एक और महत्वपूर्ण बात सामने आई। कि उन्हें नीचे के कार्यकर्ताओं की ओर ध्यान देना चाहिए। वाकई यह कितनी महत्वपूर्ण बात है। वे अब व्यथित हैं आखिर ऐसी भूल कैसे हो गई। अब ये लोग कितने अपने से लग रहे हैं, पर वे उन दिनों से बेगाने से कैसे लग रहे थे। बिचारे कैसे उनके आस-पास मंडराते रहते थे। छोटे-छोटे कामों के लिए कितने हाथ जोड़े पर वे पता नहीं क्यों नहीं कर पाए। अब उन्हें ग्लानि हो रही है। मन कर रहा है कि उन्हें गले से लगाकर रोंऐ। पर अब कोई गले लगने को तैयार नहीं है। सभी नाराज बैठे हैं। किन्तु उन्हें विश्वास है कि वे सभी को मना लेंगे। अभी वैसे भी पंाच साल पड़े हैं। ये पंाच साल इन्हीं के साथ चिंतन करते-करते ही तो बीतेंगे। थोड़ी बात थोड़ी मनुहार, साथ उठना-बैठना व चिंतन करना सब ठीक कर देगा।
हालांकि सभी इस बात पर एकमत हैं कि जनता से भूल हो गई है। जनता राह भटक गई है। भोली-भाली जनता को बरगलाया गया है। पर उन्हें यह सतत् विश्वास है। कि आगे से वो ऐसी गलती नहीं करेगी। अगली बार वो उन्हें ही वापस लाएगी। आखिर सुबह का भूला शाम को घर लौटता है तो भूला नहीं कहलाता। बस यही विश्वास है। अब और क्या करें इसलिए चिंतन ही प्रारंभ कर दिया हैं सो अब यही सब चल रहा है।

व्यंग्य हे आयकर बाबू

अमर उजाला दि. 2.12.2009 को प्रकाशित




हे आय पर कर लगाने वाले आयकर अधिकारी। तुझे कोटि-कोटि प्रणाम। इस कोटि-कोटि शब्द को तू अन्यथा न लेना। इसका मेरी आय से कोई संबंध नहीं है। ‘प्रणामों’ को अभी तक आय में कोई सम्मिलत नहीं किया गया। हालंाकि प्रणामों के प्रति संदेह व्यक्त करना, हमारे यहंा का रिवाज बन गया है। पर तू भी क्या करे। संदेह करना तो तेरी ड्यूटी का प्रमुख अंग है। तू मुझे इस संदेह से मुक्त रखते हुए अपने कर्तव्य का निर्वाह कर।
तेरा हद्य विशाल है। ऐसा हद्य अन्य प्राणियों में कम ही पाया जाता है। इस विशाल हद्य में संपूर्ण संसार के बही-खाते समाए हुए है। हालंाकि बही-खाते क्या है, कुछ भी नहीं है। इस संसार में कुछ कागज के टुकड़े हैं, जिन पर कुछ अंक लिखे हुए हैं। पर तू अंर्तयामी हैं। तू जानता है- ये अंक, अंक नहीं हैं। धार्मिक पुस्तकों में लिखे गए मंत्र है। जिनकी नित्य स्तुति मात्र से मेरे जैसे लोगों का उदार हो जाता है।
तू वाकई निष्ठुर है। तू मेरी पीड़ा को समझता नहीं है। तू मुझ पर टैक्स पर टैक्स लगाता जाता है। तू जानता नहीं, मुझे पैसे का कितना मोह है। मैं अपनी बेटी को विदा करते समय, इतना दुखी नहीं हुआ था, जितना दुख मुझे आयकर चुकाते वक्त होता है।
तू अंतर्यामी है। तेरे से कुछ भी छिपाना असंभव है। मैं कितनी भी इन्कम छिपाने की कोशिश करता हूं, तू ढूंढ लेता है। मैं इन्कम कम करता हूं, तू ज्यादा निकाल देता है। पर मैं एक नेक सलाह देता हूं कि विश्वास करना सीख। अरे, तेरा क्या जाता है। जब मैं कह रहा हूं तो सही ही कह रहा हूं, कोई झूठतो बोलने से रहा।
फिर दूसरी बात, मेरे पास आखिर है ही क्या। ये चंद आटे की चक्कियंा, जिन्हें तू मिल की संज्ञा देता है। थोड़ी सी जमीन, जिसे तू करोड़ों की बताता है। दस-पंाच करोड़ के शेयर, कुछ किलो सोना, दुकानें, मकान एवं चंद एयरकंडीशंड कारों के अतिरिक्त मेरे पास है ही क्या। तू मेरी संपत्तियों के प्रति मोह मत रख। अरे, यह संसार नश्वर है। मैं खाली हाथ आया था, खाली हाथ ही चला जाउंगा। कौन सा संपत्ति साथ-साथ लेकर जा रहा हूं। जब तेरा-मेरा कुछ नहीं है तो फिर तू इतना भारी-भरकम कर क्यों थोपता है।
मैं तो तेरा शुभचिन्तक हूं। तेरे भले की बात कर रहा हंू। तू इन भौतिकवादी प्रवृत्तियां को छोड़कर, दर्शन की ओर अग्रसर हो। कुछ मेरा टैक्स कम करके पुण्य कमा। अरे, कल से तू भगवान के घर जाएगा तो क्या हिसाब देगा। जीवन भर दूसरों के साथ किया बुरा, तुझे सदैव अशंात ही रखेंगे।
मैंने लड़की की शादी में ढेरों रूपए खर्च कर दिए। तूने आपत्ति उठाई। छि!छि! तुझे यह शोभा नहीं देता। एक लड़की के विवाह जैसे पुण्यकार्य में तू विघ्न डालता है। अरे, तू कैसा बाप हे रे। कल से तेरी बेटी भी ब्याहेगी। तब भी ऐसा करेगा। बेटी तो पराया धन होती है। इसलिए दिल खोलकर खर्च करना पड़ता है।
अब दो करोड़ रूपए खर्च हुए तो यह रकम कौन सी मैं विदेश लेकर चला गया। यह समाज में ही बंाट दी। अरे, एक तो पहले ही बेरोजगारी इतनी है। और तू कम खर्च की बात कह कर दुकानें बंद करवाने पर तुला है। जेवहरात, टैंट हाउस, होटल इत्यादि बंद हो गए तो इनके परिवार वाले खाने के लिए क्या तेरे घर आऐंगे। इसलिए तू कार्रवाई करने से पूर्व समस्त संसार का चिंतन कर। जिन कर्माें से संपूर्ण समाज का भला होता है, वे कर्म भला कैसे गलत हो सकते है।
‘अतिथि देवो भव’ की व्याख्या को तूने ‘अतिथि दुष्टोभव’ में परिवर्तित कर दिया है। जरा सी आहट होती है तो लगता है कि कहीं ये वो
तो नहीं। मन में प्रत्येक आने वाले के संबंध में एक खौफ बना रहता है। मुझे हर
व्यक्ति में तेरी सूरत नजर आती है।
एक तो तेरा आना और फिर अचानक आना मेरी संास व हद्यगति, दोनांे रोक देता है। भारत में बढ़ रहे हद्य रोगियों की संख्या के पीछे भी तेरा हाथ है।
हालंाकि मैं मानता हूं, सब कुछ तेरा ही है। तुझे पूरा अधिकार है। पर फिर भी कम से कम बता के तो आ। थोड़ा सा तमीज तो सीख। तुझे ये आचरण शोभा नहीं देता।
तेरा शिकंजा बहुत कठिन है रे! तू इसमें थोड़ा ढील
दे। मेरा विचार है जिस गति से इसमें ढील दी जाएगी, उसी गति से बेरोजगारी दूर होती चली जाएगी क्योंकि जितनी अधिक पूंजी हमें प्राप्त होगी, हम उधोग-ध्ंाधों में लगाएंगे। लोगों को रोजगार के अवसर बढ़ जाएंेगे। अरे, तेरे कारण ही तो हमारी समाज सेवा की बात दिल में ही रह जाती है।
अब और क्या कहूं। दो रोटी सुबह व दो रोटी शाम वाले इस अबोध प्राणी की बात सुन। मुझ पर दया कर। अधिक नहीं तो थोड़ी कर। थोड़ी नहीं तो बहुत थोड़ी कर। पर कर जरूर। अरे निर्मोही क्या तेरा दिल नहीं पसीजता। कुछ तो ख्याल कर।