शनिवार, 28 अगस्त 2010

महंगाई और सपने

दैनिक ट्रीब्यून 28/08/2010 को प्रकाशित व्यन्ग









इन दिनों मैं कई सुंदर-सुंदर सपने देख रहा हूं। क्या करूं, अब दिन ही ऐसे आ गए हैं। बहुत सोचता हूं कि एक बार हिम्मत करके अपनी इच्छाओं को पूरी कर ही लूं। पर अफोर्ड नहीं कर पाता। आखिर हैसियत भी तो होनी चाहिए। अब तो दिन में किसी के सामने इच्छा प्रकट करने में ही डर लगने लगा है। सोचता हूं कहीं सामने वाला यह नहीं सोचने लग जाए कि कहीं ये पागल तो नहीं हो गया है। सो सपने देख-देखकर ही काम चला रहा हूं।
अब लाख सोचता हूं कि सपने नहीं देखूं। पर मन का क्या करूं। मन पर कैसे काबू रखूं। उसने तो बहुत अच्छे-अच्छे दिन देखे हैं। पर अब की बात अलग है। रात को बस खवाबों में उनके दीदार करता हूं। सुंदर-सुंदर सी गोल-मटोल... लाल-लाल खिला हुआ रंग ....... आप चौंक गए न। आप भी बस...। आपकी सोच कभी सुंदर अभिनेत्रियों से आगे बढ़ेगी ही न। अरे भई मैं तो अरहर की दाल और टमाटर की बात कर रहा हूं। आजकल मंहगाई इतनी बढ गई है। कि बस अब चिंतन-सुख से ही काम चला रहे हैं।

सुबह उठता हूं। तो रसोई का ताला खोलकर काम शुरू करता हूँ , आजकल मंहगाई इतनी हो गई है कि यह सब जरूरी हो गया है। आजकल किसी का भरोसा नहीं है। कमरों के ताले लगाने का अब कोई फायदा नहीं है। टी०वी०, फ्रिज और इलेक्ट्रेनिक्स आईटम आजकल कौन चोरी करता है। अगर कोई घर से घी, तेल, शक्कर सेफ में रखे टमाटर ले जाए तो लेने के देने पड जाऐंगें।

रसोई के मामले में अभिनव प्रयोग शुरू कर दिए हैं अब बकायदों दानों की गिनती होती है। रोजाना रेट देखकर दानों की संखया कम कर दी जाती है। चूंकि स्तर बनाए रखना जरूरी है। इसलिए दाल बनती जरूर है पर वो किसी रहस्य से कम नहीं होती। उसमें दाल की कितनी कम मात्रा डाली गई है। यह कोई अनुभवी गोताखोर ही बता सकता है। सूखी सब्जी अब इतिहास का विशय रह गई है।
भगवान भला करे इन चिकित्सकों का, जिनकी वजह से अब इज्जत बनी रह जाती है। जब भी कोई मेहमान सब्जी या बिना चुपड़ी रोटी को देखकर नाक-भौं सिकोडता है। तो उसे स्वास्थ्य का हवाला दे दिया जाता है कि हद्‌य रोग से बचने के लिए डाक्टर घी की सखत मना करता है। सो हमने तो लाना ही बंद कर रखा है। और सब्जियों में तो आजकल इतने कैमिकल आने लगे हैं। कि बस उन्हें खाते हुए ही डर लगने लगा है। अब चाय में कम शक्कर तो पूछो ही मत। शुगर
की प्रॉब्लम कोई छोटी-मोटी थोड़ी हे हम तो बस अब रामदेव महाराज की शरण
में आ गए हैं। हमारे घर में तो सब बनना ही बंद हो गया है। मिठाईयों की दुकान पर गए
अर्सा हो गया। उनके दाम पढ कर सिहरन सी होने लग जाती है। अब तो कहीं पार्टी में जाते हैं तो जरा ज्यादा खा आते हैं। बाद में उन्हें ही याद करके जी बहलाते रहते हैं।
और रही बात घूमने की तो अब घर से बाहर कहां निकलो। कहीं भी जाओ पेट्रेल का खर्चा देखकर जान निकल जाती है। अब हमारी किस्मत ऐसी कहां कि घूमे हम और खर्चा सरकार वहन करे। यह हमारे भाग्य में कहां। और पर्यटन की तो सोचो ही मत। आजकल तो टी०वी० पर देखकर ही घूम लेते हैं।
बाकी... और अब करें क्या। सो सुंदर-सुंदर सपने देख लेते हैं। सपनों में ही अच्छा खा लेते हैं, अच्छा पी लेते हैं और घूम लेते हैं। हां, सपनों में बिल्कुल कंजूसी नहीं करते। अच्छे-अच्छे सपने देख रहे हैं। खूब सलाद खा रहे हैं, बढिया सब्जी बनवा लेते हैं, रोटी बिना देसी घी के नहीं खाते और तो और दो-दो दालें पी जाते हैं। हां, खाने के बाद मीठा खाना कभी नहीं भूलते। अब क्या करें, पुरानी आदत है, छूटे नहीं छूटती।
सो जीवन इसी तरह चल रहा है। अब असल में अफोर्ड करने की स्थिति रही नहीं है। सो बस सपने देख रहे हैं, प्यारे-प्यारे सपने, लाल-लाल टमाटर के, सुंदर-सुंदर दालों के, घी-तेल से लबालब थाली के। आप भी देखिए, सचमुच बहुत ही मजा आ रहा है।

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