शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

व्यंग्य प्यारे डेंगू अब चले भी जाओ

 

 

 



 

  नई दुनिया में 25-09-10 को प्रकाशित




 

प्यारे डेंगू,

तुम फिर आ गए। मैं ऐसा कृत्घन नहीं कि तुम्हारे आने से खुश न होउं। पर क्या करूं। तुम भी बस, समय नहीं देखते हो और चले आते हो। तुम सोच रहे होंगे कि मुझे क्या हो गया। मैं क्यों नहीं खुश हूं। तुम हर साल आते हो। भारी भरकम बजट और घोटालों की अपार संभावनाऐं लेकर आते हो। तुम्हें आने में देर होती है तो बच्चे पूछने लग जाते हैं। क्या बात है पापा इस बार डेंगू अंकल नहीं आए। हमारी दीवाली कैसे मनेगी।

पर इस बार तुम बिन बुलाए ही चले आए। तुम भी क्या करो। तुम्हें पता नहीं चला होगा कि हम इस बार घोटाले के मामले में आत्मनिर्भर हो गए। अब भैया हमारे यहां कॉमनवेल्थ गेम हो रहे हैं । हम तो बड़े मगन हैं। छातों से लेकर एयरकंडीशनर सभी में कूट रहे हैं। लोग तोप खरीद में कमाते हैं। हम तो केवल किरायों में ही कमा गए। सब लोग अपनी प्रतिभा के अनुसार जुगाड में लगे हुए थे। सब-कुछ ठीक चल रहा था। कि अचानक तुम आ गए।

तुम आते हो। खैर चले आओ। अच्छी बात है। अतिथि देवो भव। हम अपनी पंरपरा निभाते हैं। हर साल कितने ही लोगों को तुम्हारी भेंट चड़ा देते हैं। पर इस बार तो तुम थोडा ध्यान रखते। तुम्हें पता नहीं था कि इस बार हम कॉमनवेल्थ गेम करा रहे हैं। पता है तुम्हारी वजह से हमारे खेलों का कितना अपमान हुआ। हमारे एक मंत्रीजी तो यह तक कह गए कि खेलों की वजह से तुम आए हो। अब तुम भी बस। क्या तुम हर साल बिना नागा के नहीं आते हो। क्या तुम पहली बार ही आए थे।

तुम भी बस कैसे हो। हमने खेलों के लिए गडडे खोदे और तुमने सोचा कि सरकार तुम्हारे लिए स्वीमिंग पूल बना रही है। तुम वहीं पैदा हो गए। तुम्हें और कोई जगह नहीं मिली। बस कर दिया झट से खेलों को बदनाम। एक तो खेलों की पहले ही वाट लगी हुई है। तुम और कहीं ही चले जाते। तुम्हें भी बस बस दिल्ली के गडडे मिले। अरे हमारा तो पूरा देश ही गडडे में पड़ा हुआ है। जहां जाते, गडडे अपने आप ही पैदा हो जाते।हम खेलों के लिए कितने गंभीर हैं। तुम समझ ही नहीं रहे हो। हमने भिखारियों तक को भेज दिया। कह दिया, जाओ, भारत दर्शन करके आओ। देश की संस्कृति को समझो। फिर समझकर वापस आ जाना। बिचारे खेलों तक वे भ्रमण पर हैं। और तुम जो हो कुंए के मेंढक ही रहोगे। यहीं पड़े हो।

अब तुम कोई नेता भी नहीं हो। यहां कौन सी तुम्हारी पार्लियामेंट हैं। जो तुमसे दिल्ली नहीं छूटती। तुम तो आकर बस गडडे में कूद पड़े अरे कितनी मुश्किल से खेलों के लिए खोदे थे। सोचा था आज कॉमनवेल्थ का छोटा गडडा खोदा है, कल एशियाड का बड़ा गडडा खोदेंगे। और ईश्वर ने चाहा तो एक दिन ओलंपिक का सबसे बड़ा गडडा खोदकर पटक देंगे। चाहे पूरे देश को उसमें धकेलना पड़े

पर इस देश में कुछ अच्छा भला कैसे हो सकता है। अचानक तुम आ धमके। अब क्या करें। पूरे विश्व में फजीहत हो गई। पहले ही क्या कम हो रही थी। अब सब देश सर्टिफिकेट मांग रहे हैं। अब कहां से लाकर दे सर्टिफिकेट। सो भैया तुम अब कहीं चले जाओ। बस खेल करा लेने दो। आजकल तो हम बस एक ही बात चाहते हैं। कि बस किसी तरह यह खेल निपट जावे। तब तक के लिए तुम कहीं भी चले जाओ। समूचा देश खुदा पड़ा है। सब तरफ गडडे हैं। हर जगह गडडे ही गडडे हैं । उनमें भ्रसटाचार का इतना सडा पानी भरा हुआ है। कि तुम्हारी सात पीढियां तर जाऐगी। मरी हुई जनता को जितना चाहे डंक मारो। वो बेजुबान है, कुछ नहीं कहेगी। वो सदा से सहती आई है। सो भैया अब चले भी जाओ।