शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

व्यंग्य : पेट की खातिर

नई दुनिया संडे में 6.12.09 को प्रकाशित

आजकल मैं बहुत परेशान हूं। क्या करूं, हाजमा ही ठीक नहीं रहता। थोड़ा सा भी ज्यादा खा लेता हूं। तो पेट दुखने लग जाता है। बहुत से डाक्टरों को दिखाया। पर कोई फायदा नहीं हुआ। सभी यही खाते हैं कि पेट का ध्यान रखो। घर पर बीवी से कहता हूं तो वो मुंह बनाती है। ‘ऐसे निगोड़े पेट का भी क्या फायदा, जिसमें दो रोटी भी नहीं पचती। अब लोगों को देखो, हजारों करोड़ो का घोटाला कर जाते हैं और डकार भी नहीं लेते।’
अब मैं भी क्या करूं। मुझे अपने आप पर बहुत शर्म आती है। वाकई लोग इतने बड़े-बड़े घोटाले कर रहे हैं। हजारों करोड़ रूपए वारे-न्यारे हो जाते हैं। जब भी इनका जिक्र होता है, मैं अपने पेट की ओर देखता हूं। कमबख्त दो सूखी रोटी से ही भर जाता है। पर इनके पेट कितने बड़ें हैं, हजारों करोड़ रूपयों से भी नहीं भर पाते। कितना भी खाते हैं पर सब समा जाता है। जितना घोटाला करते हैं, उतनी ही भूख प्रबल होती चली जाती है। देश में निरंतर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।अभी कोड़ाजी को ही लो। इतनी कम उम्र में उन्होंनंे यह कमाल कर दिखाया है। एक गरीब मजदूर परिवार में जन्में कोडा के नाम दो हजार करोड़ रूपए का घोटाला दर्ज किया गया है। आखिर कितना मजबूत हाजमा चाहिए। यूं ही कोई दो हजार करोड़ रूपए पचा सकता है।
पर अब क्या किया जा सकता है। हमारा देश धीरे-
धीरे मजबूत हाजमे का देश होता जा रहा है। यहंा भंाति-भांति के लोग हैं। तो भंाति-भांति के पेट भी है। सबकी क्षमता अलग-अलग है। कोई हजार रूपयों में चूं बोल जाता हैं। तो कोई हजार रूपए खाने के बाद डकार नहीं लेता। पर लाख रूपयों पर दिक्कत देने लगता है। कई पेट विविधता लिए हुए रहते हैं। वे हर जगह का पानी पचा लेते हैं। यदि कृषि विभाग में रहते हैं, तो बीज से लेकर कीटनाशक, फसलों तक का बजट हजम कर जाते हैं। वो ही रोडवेज में चल जाऐं तो पेट््रोल, डीजल और यदि सिविल में पहुंच जाऐ तो सीमेंट, लोहा व मजदूरों की मजदूरी तक पचा जाते हैं। और तो और यदि देवस्थान विभाग में पहुंच जाए तो देवताओं के प्रसाद तक से परहेज नहीं करते। राजनीतिक पेट इनमें सर्वोपरि है। इनके पाचन की कोई सीमा नहीं है।
और आजकल तो इन पेटों के साथ एक दिक्कत और हो गई है। कि रोजाना खाने की आदत से इनका कोटा बढ़ गया है। एक निश्चित मात्रा में अगर इन्हें खाने को नहीं मिले तो वे कुछ भी कर सकते हैं। राजनीतिक पेटों के साथ यह बीमारी आम है। इसीलिए वे किसी भी कीमत पर सत्ता का प्रसाद चाहते हैं। इसी से उनके पेट की क्षुधा शांत होती है। इसी कारण से जब सत्ता का सवाल होता है। तो वे सारे सिद्धंात, नियम ताक पर रखकर सत्ता वाली पार्टी से जुड़ जाते हैं। बिचारे करें भी क्या। आखिर पापी पेट के लिए इतना तो करना ही पड़ता है। कुर्सी मिल जाए तो फिर पेट हमेशा सही रहता है।
आजकल मैं भी बस इसी फिराक में रहता हूं। कि मेरा हाजमा भी थोड़ा ठीक हो जाए। कम से और कुछ नहीं तो रिश्वत की मिठाई तो पचा सकूं। बीवी का पेट, जो रूखा-सूखा खाकर खराब हो गया है। तो वो तर माल खाने लायक हो जाए। अब कोई अच्छी जगह ट्र्ंासफर की कोशिश कर रहा हूं। थोड़े घोटाले’ के एंजाईम मिलेंगे। तो पाचन-तंत्र अपने-आप सुधर जाएगा। अब अपने हाथ में है ही क्या। बस ईश्वर से यही प्रार्थना कर सकते हैं। जैसे दूसरों की सुनी, वैसे ही मेरी भी सुन ले। अब मंाग भी थोड़ा ही रहा हूं।
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व्यंग्य जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके दिन फिरे

दैनिक भास्कर:रागदरबारी में 12.12.09 को प्रकाशित

भगवान सबकी सुनता है। उसके घर में देर है अंधेर नहीं। भगवान की मर्जी है तो कुछ भी हो सकता है। गरीब को अमीर बना सकता है तो राजा को रंक बनाने में भी देर नहीं करता। महारानी को गदद्ी से उतार सकता है तो किसी को भी गदद्ी पर बिठा सकता है। आजकल भारतीय क्रिकेट टीम के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।
वो भी क्या दिन थे। जब वो सभी से हार जाते थे। कभी उन्होंने भेदभाव नहीं किया। बंगलादेश से लेकर श्रीलंका तक हार जाने के लिए दुनिया में उनका नाम था। कभी भी, कहीं भी, किसी से भी हार जाना उनके स्वभाव में शुमार था। उन्होंने कभी भी चंद ईनामों की खातिर विरोधियों का दिल नहीं दुखाया।
हालंाकि टीम में इतने बड़े-बड़े नाम थे। लेकिन अहंकार तो उन्हें कहीं छू भी नहीं गया था। कितना भी लोग क्रिकेट का भीष्म पितामह बता दें। पर जरूरत के समय उन्होंने कभी भी महाभारत नहीं लड़ी। कलियुग के इस माहौल में उनका व्यवहार सदा सतयुग के दार्शनिक की भंाति रहा। जिसे कभी भी यह भौतिकवाद जीवन छू नहीं पाया।कितनी ही बार मामूली से टारगेट पर अपने विकेट गंवाकर पेवेलियन लौट गए। नेट प्रेक्टिस से सदैव वो बचते रहे। सदा यही सोचते रहे कि चार दिन की जिंदगी है। दो दिन तो मैच खेलने में चले गए, तो बाकी का जीवन शंाति से व्यतीत हो, यही कोशिश करते रहे। उन्होंने खेल को सदैव खेल भावना से लिया। जीत गए तो ठीक है, हार गए तो कोई बात नहीं। उनका दर्शन सदैव समृद्ध रहा। मरने के बाद सब बराबर रहता है, कौन हारा, कौन जीता।
उनका और आलोचना का चोली-दामन का साथ रहा। वे क्रिकेट को छोड़कर सभी क्षेत्रों में नए-नए प्रयोग करते रहे। मन हुआ तो नाच लिए, मन हुआ तो स्टेज पर फिल्मी सितारों के साथ अभिनय कर लिया। फिल्मी अभिनेत्रियों के साथ नाम जोड़कर उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे केवल पिच पर ही नहीं फिसलते बल्कि प्रेम के मैदान में भी रन आउट हो सकते हैं। वे वाकई क्रिकेट के बादशाह के साथ-साथ प्रेम के युवराज भी हैं।
उन्होंने सदैव देश की भलाई के बारे में सोचा। मंदी के इस दौर में जहंा बाजार को उपभोक्ताओं की जरूरत है। वहंा यह विज्ञापन लिए गली-गली भटकते रहे। आजकल माल बेचने में कितनी मुश्किल होती है। भले ही लोगों को पानी नहीं उपलब्ध हो पाया हो लेकिन वे गरीब-अमीर सभी को समान रूप से शीतल पेय बंाटते रहे। उन्होंने क्या नहीं बेचा। कितना थक जाते थे। इसी थकान के कारण वो विकेट के बीच भागने में कमजोर रहे और कितने ही मौकों पर रन-आउट भी हो जाते थे।
वे सभी एक बड़े योद्धा की भंाति थे। लड़ने में कभी पीछे नहीं हटे। घायल हो जाते थे पर वीरता के कारण चोटों को छिपा-छिपाकर लड़ाई के मैदान में डटे रहते थे।
पर अब सब कुछ बदल गया है। अब वो अच्छा माल भी बेच रहे हैं और क्रिकेट भी अच्छा खेल रहे हैं। देखते-देखते हारने की आदत को उन्होंने जीतने में बदल दिया है। अब चूंकि जीतने लगे हैं इसलिए ‘जो जीता वो ही सिकंदर‘। सो आजकल सभी उनकी अराधना में लगे है। टी0वी0पर, अखबारों में, पत्रिकाओं में सभी जगह पर उनकी ही चर्चा है। सब उनके ही गुण गा रहे हैं। चारों ओर भारतीय टीम के डंके बज रहे हैं।
सारे खिलाड़ी प्रसन्न हैं। आखिर क्यों न हो। पता नहीं कितने दिनों के लिए नंबर वन के पायदान पर हैं। आजकल वक्त का भरोसा नहीं है। बहुत जल्दी-जल्दी स्थितियंा बदलती है। भारतीय टीम को नजर भी जल्दी लगती है। आज हीरो तो कल जीरो बनते भी देर नहीं लगती। े
लेकिन अब जब सब उनकी पूजा-अर्चना में लगे हैं, तो भला मैं क्यांे पीछे हटूं। मैं भी आजकल उनके ही गुण गा रहा हूं। दिन-रात, सुबह-शाम उन्हीं के गीत गा रहा हूं। जब तक वे जीतते रहेंगे, यही माहौल रहेगा। अब और तो भला मैं क्या कर सकता हूं। बस यही प्रार्थना कर सकता हूं। जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके दिन फेरे।