शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

व्यंग्य मानसून जा, जा, जा

नई दुनिया में दिनांक 17-09-10 को प्रकाशित मेरा व्यंग्य









अजी साहब, आजकल के आदमी का भी कोई मोरल नहीं है। अब देखिए न्‌। दो महीने पहले तक तो दुनिया जहान के देवी-देवता ढोक रहा था। पर्यावरण और औद्योगिकरण को गालियां दे रहा था। आसमान से निगाहें ही नहीं हटा रहा था। बार-बार बस मानसून को बुलाने के लिए यही गा रहा था। बस एक बार आ जा। पहले झलक से ही खुश होने का दावा कर रहा था। लेकिन अब हाल यह है कि सब मिलकर मानसून के पीछे पड़े हैं। 'मानसून जा, जा, जा।'
सब लोग परेशान है। कोई डेंगू की चपेट में है। तो कोई स्वानफलू से परेशान है। बहुत सी जगह बाढ का माहौल चल रहा है। सरकार खुद मानसून से परेशान है। कॉमनवेल्थ सर पर है और मानसून है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा। सरकार, मौसम विभाग से बार-बार यही पूछ रही है। कि भई इसके जाने का समय बताओ।
सारा देश चिल्ला रहा है। सरकार कोस रही है। पर मानसून बेशर्म बना हुआ है। सरकार ने कॉमनवेल्थ के लिए गडडे खोदे। लेकिन वो वहां भी जा घुसा। सरकार ओलंपिक की संभावनाऐं तलाश रही थी। पर मानसून ने उसमें डेंगू और स्वान-फलू जा तलाशा । ठेकेदारों के शिकार स्टेडियम मानसून के कारण आंसूं बहा रहे हैं। आज अगर यह भीषण मानसून नहीं होता। तो कम से कम ये अनगिनत छेद ढके हुए तो रहते।
सरकार ने कॉमनवेल्थ कराया था। भई चलो खिलाडियों को प्रोत्साहन मिलेगा। नए-नए रिकार्ड बनेंगे। पर मानसून गलत जा समझा। अब वो कई कीर्तिमान तोड चुका है। इतने सालों से लोग यज्ञ पर यज्ञ कराए जाते थे प्रार्थनाऐं कराए जाते थे। शायद मानसून इन सब प्रार्थनाओं के कारण अधिक ही द्रवित हो गया और बरस बैठा। और फिर बरस भी ऐसा रहा है। कि रूकने का नाम ही नहीं ले रहा।