गुरुवार, 12 अगस्त 2010

नई दुनिया में 13.08.10 को प्रकाशित व्यंग्य ‘आओ खेल खेलें’

इन दिनों मुझे गर्व की अनुभूति हो रही है। अब करूं भी क्या। खेल के इस अदभुत परिवेश पर मुग्ध हूं। खेल का ऐसा रूप कहीं नहीं देखा। खेल केवल खेल नहीं है। बल्कि मानो तो खेल कुछ भी नहीं है। खेल तो मात्र निमित्त मात्र है। असली खेल तो पीछे है। हमारे यहाँ खेल-परंपरा का अदभुत विकास हो रहा है। दूसरे देश खेल केवल खेल का आयोजन कर अपने आपको धन्य मान बैठते हैं। पर हम उन काहिल लोगों में से नहीं है। वहाँ लोग सिर्फ खेल खेलते हैं। इधर हम खेल में भी खेल खेल डालते हैं।
अब राष्ट्र्मंडल खेल होने को हैं। इंतजाम जो है पूरा होने का नाम ही नहीं ले रहे। रोजाना कोई न कोई अड़चन खड़ी हो जाती है। अभी कुछ भी पूरा नहीं हुआ। लोग आरोप लगाते हैं तो मंत्रीजी खिसिया जाते हैं। वे भी कह ही देते हैं। क्या करें, यह हमारी संस्कृति है कि हम हर काम आखिरी क्षणों में करते हैं चाहे शादी हो या कुछ और। पर कुछ लोग इसके नाकाम होने पर खुशी मनाने की घोषणा कर बैठते हैं।
हमारा देश खेलप्रधान देश है। यहाँ कदम-कदम पर नाना प्रकार के खेल खेले जाते हैं। परदे के आगे खेल होता है। परदे के पीछे खेल होता है। हम ओलंपिक में क्यों पदक नहीं ले पाते। क्यों हार जाते हैं। कुश्ती में क्यों चित्त हो जाते हैं। कारण यह नहीं है कि हम किसी से कम हैं। या हम किसी से कमजोर हैं। बस एक ही बात यह है। कि हमारे यहाँ केवल खिलाड़ी मैदान पर नहीं खेलता। उसके भीतर और भी खेल चलता रहता है। अब गेंद हाथ में है, अगर वो ढंग से पास दे दे तो दूसरा खिलाड़ी गोल कर सकता है। पर वो कैसे दे वो दूसरे खेल के कारण मजबूर है। जिसे पास दे वो तो दूसरे फेडरेशन वाला है। उसका आका तो दूसरा है। यहाँ स्वामीभक्ति मजबूर कर देती है। और वो पास नहीं देता। पहलवान है वो दम ही नहीं लगाता। अब दूसरे गुट का अध्यक्ष चुन लिया गया है।तो इस गुट वाले खिलाड़ी का नैतिक दायित्व बन जाता है। कि वो बिना लड़े ही चित्त हो जाए। क्योंकि वो जानता है कि वो खुद भले ही प्रत्यक्ष रूप से चित्त हो जाए। पर चित्त तो दूसरे गुट का अध्यक्ष ही हो रहा है। अब हार का जिम्मा उसके गुट पर आएगा तो ही अपने आका के अगली बार चांस पक्के होंगे।
फिर टीम में भी ऐसा हो जाता है। टीम का कप्तान भी एक-दो खिलाड़ी तो अपने खास आदमी खिलाता है। भई देखिए ऐसा बनता भी है। बिचारा सालों साल मेहनत कर, न जाने कितनी विभूतियों की सेवा कर-करके थक गया है। कितने हाथ-पांव दर्द कर रहे हैं। कोई तो दबाने वाला भी चाहिए। फिर दो-चार लोग हाँ में हाँ मिलाते रहें तो कप्तान का आत्मविश्वास मजबूत होता है। अब बदले में भले ही वे गोल करे या नहीं। या रन बनाए या नहीं। सो ऐसे खेल चलते ही रहते हैं।
जब कप्तान के दो-चार खास होते हैं। तो फिर जो संभावित कप्तान का दावेदार होता है। जो बिचारा किन्हीं कारणों से कप्तान का पद लेने से वंचित रह गया। वो भी अपने एक-दो खिलाड़ियों के साथ इसी प्रयत्न में लगा रहता है। कि किसी तरह इस कप्तान को फेल किया जाए। ताकि आगे कप्तान बना जा सके। अब वो कितनी आसान गेंद हो, गोल में नहीं डालता। कितना भी आसान टार्गेट हो। बल्ला उठाता ही नहीं। आप सोच रहे होंगे कि इसे खेलना ही नहीं आता। अरे, वो जितनी गहराई से खेल रहा है। उतनी तो कोई सोच ही नहीं सकता। असली खिलाड़ी तो वही है। बाकी सब बेकार है।
अब राष्ट्र्मंडल खेलों में भी ऐसा ही हो रहा है। अय्यर जी खेल की बर्बादी की दुआ मंाग रहे हैं। अब राजनीति का खेल शुरू हो गया है। तरह-तरह की अटकलें शुरू हो गई है। लोग उन खेलों को भूल गए हैं। अब असली खेल इधर शुरू हुआ है। लोग इधर अटकलें लगा रहे हैं। क्या पार्टी में फूट पड़ गई हैं। ये ऐसा क्यूं बोल रहे हैं। इसका क्या कारण है। थोड़े दिन बाद यही होगा। विदेशों से आए खिलाड़ी दर्शक दीर्घा में बैठे रहेंगे और इधर राजनीति के नए-नए खेल चलते रहेंगे। यह तो देश के भाग्य में हे . लोग भी क्या करें। राजनीतिक पद तो वैसे ही कितनी मुश्किल से मिलते हैं। अब सभी लोंगो का मन करता है। सो वे खेलों के ही पदाधिकारी बन बैठते हैं। बिचारों ने कभी हाॅकी या बल्ला तो उठाया होता नहीं सो बस वहाँ भी वो राजनीतिक खेल शुरू कर देते हैं। जो नहीं बन पाते या प्रतीक्षा सूची में होते हैं। वो बाहर बैठकर कुछ न कुछ बोलते रहते हैं। इसी उम्मीद के साथ कि कभी न कभी परमात्मा उनकी सुनेगा।
सो सब खेल रहे हैं। समूचा देश खेल रहा है। सभी कहीं न कहीं लगे हुए हैं। तो आप क्या कर रहे हैं। चलिए उठिए कोई खेल ही खेलते हैं।