रविवार, 15 नवंबर 2009

व्यंग्य सादगी: एक निबंध

जनसत्ता - अक्टूबर 09 में प्रकाशित




आजकल सादगी पर विशेष चर्चा हो रही है। बहुत बातें हो रही है। देश को आजाद हुए इतने वर्ष हो गए। आज तक किसी ने सादगी पर इतना जोर नहीं दिया। सो जहंा चारों ओर सादगी फैली तो स्कूल भला कैसे वंचित रहते। सो वहंा भी सादगी की हवा बह निकली। और नाना प्रकार की वाद-विवाद प्रतियोगिताऐं जो विषयों के लिए तरस रही थी, सादगी को पाकर धन्य हो उठी।
इसी सादगी पर देसी प्रतिभाओं ने कई निबंध लिखे। प्रस्तुत है उनमें से एक पुरस्कृत निबंध।
‘सादगी एक गुण है। पर हम इस पर बात करने से पूर्व इसकी परिभाषा का उल्लेख करेंगे। हालंाकि इस गुण का अविष्कार हाल ही में हुआ है। इसलिए इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा बताना मुश्किल है। फिर भी हम यह जरूर कह सकते हैं। कि सादगी गुण का प्रादुर्भाव हाल ही में हवाई जहाज के इकोनोमी क्लाॅस में सफर करने से व हवाई जहाज की जगह शताब्दी एक्सप्रेस में सफर करने से हुआ।
इसकी तुलना हम आर्किमडीज के ‘यूरेका-यूरेका’ से कर सकते हैं। उसे बाथटब में नहाते-नहाते अचानक ही सूझा। और एक नया अविष्कार हुआ। ऐसे ही सादगी का अविष्कार हवाईजहाज के इकोनोमी क्लाॅस के सफर से हुआ। एक ही यात्रा में समूचा देश इस बात से अवगत हुआ कि सादगी क्या होती है।
सादगी का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। छठी कक्षा

की सरल हिन्दी पुस्तकमाला के चालीसवें पन्ने पर लिखा है कि महात्मा गंाधी सादगी से जीवन व्यतीत करते थे। इससे सिद्ध होता है कि सादगी पूर्णतः गंाधी परिवार से जुड़ी हुई है। बहुत समय से यह विलुप्त हो गई थी। अब इसे सोनिया बहिनजी और राहुल भैया द्वारा प्रकाश में लाया जा रहा है।
सादगी वह गुण है। जिसमें लोगों से यह अपेक्षा की जाती है। कि वो अपने खर्चे कम करें। खासतौर पर हवाई यात्रा करते समय बिजनेस क्लाॅस की जगह इकोनोमी क्लाॅस में सफर करे। हो सके तो हवाई जहाज की जगह शताब्दी या राजधानी में सफर कर ले। विदेश यात्राऐं स्थगित की जाऐं। बंगलों की सजावट पर कम से कम खर्च करे। अपने बेकार के दौरों पर रोक लगाए।
इन सब तथ्यों से यही साबित होता है। कि सादगी कितना कठिन गुण है। यह वाकई तपस्या है। एक व्यक्ति हाई क्लाॅस छोड़कर कैटल क्लाॅस में जानवरों के बीच में सफर करे। कितनी बदबू आती है आम आदमी के शरीर में। जहंा पंाच साल तक कोई संासद, मंत्री अपने उपर आमजन की छाया तक नहीं पड़ने देता। वहंा यह वाकई कितना मुश्किल कार्य है।
जब आदमी चुनाव जीतता है। तो कितने संघर्ष के बाद यहंा तक पहुंच पाता है। अब वो चैन चाहता है। उसने यह सब क्यों किया। उसके चारों ओर भीड़ रहती है। वो जहंा जाता है गाड़ियों का काफिला, ढेरों सुरक्षाकर्मी, हेलीकोप्टर, हवाईजहाज आदि घेरे रहते हैं। सादगी इन सब चीजों का निषेध करती है। अब एक नेता के जीवन में यह सब कितना कठिन है। यह सब तो उसकी आत्मा में बसे रहते हैं। यह अलग हुए नहीं कि फिर जीवन में कुछ शेष नहीं रहता। इससे सिद्ध होता है कि सादगी सर्वाधिक कठिन गुण है।
अब एक सवाल और उठ खड़ा होता है। यह सवाल मेरे शिक्षा काल के हर निबंध में उठता है। ‘सादगी विज्ञान है या कला।’ अब ध्यान से देखने पर पता पड़़ता हैं कि यह विज्ञान तो बिल्कुल नहीं है। क्योंकि सातवीं कक्षा की विज्ञान की पासबुक व कुंजी दोनों में ही इसका जिक्र नहीं मिलता। हंा, यह कला अवश्य है। क्योंकि कला नहीं हो तो आदमी सादगी का पालन करते-करते ही मर जाए। कला से तात्पर्य यह है कि यह सादगी का जो अध्याय आजकल चर्चा में आ रहा है। वो यही है कि नेता भले ही कैसे ही जीवन-यापन करे। पर आम जनता को सादगी की प्रतिमूर्ति दिखे। एकाध बार दिखाने को कैटल क्लाॅस में सफर कर ले। काफिले की जगह एक गाड़ी से ही पहुंच जाए। कभी-कभार साईकिल-रिक्शे पर चढ़ जाए। दिल पर पत्थर रखकर आम लोगों के साथ खाना खाने बैठ जाए। कभी-कभार वातानुकूलित कक्षों का त्याग कर धूप-धूल में चले जाऐं। हालंाकि ऐसा करने से त्वचा को नुक्सान पहुंचने का भारी खतरा है। पर फिर भी सादगी तो निभानी है। विदेश यात्राओं में भी कमी करनी चाहिए। हालंाकि यह बड़ा मुश्किल काम है। फिर मन भला कैसे लगेगा। यहंा की जलवायु भला क्या खाकर इसका मुकाबला कर सकती है। पर देश की भलाई के लिए एकाध बार देशी जलवायु का भी सहारा ले लेना चाहिए।
अंत में यही कि हमें इस निबंध से यही शिक्षा मिलती है कि सादगी ही सर्वोत्तम नीति है। प्रत्येक नेता को इसका कड़ाई से पालन करना चाहिए। जो इस नीति का पालन करेगा। वो ही सोनिया दीदी व राहुल भैया के साथ परम सत्ता सुख का आनंद ले पाएगा। इसलिए सादगी का पालन करने में ही समझदारी है।
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व्यंग्य प्यारी दालों के नाम

प्यारी दालों, तुम ऐसी बेवफा निकल जाओगी। यह मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। तुमसे प्यारा तो मुझे जीवन में और कुछ लगा ही नहीं। क्योंकि मेरा और तुम्हारा तो जनम-जनम का साथ है। जबसे होश संभाला, तुम्हें ही तो इर्द-गिर्द पाया। गरीब की जिन्दगी में भला और हो भी क्या सकता है। कभी बापू को कहते देखता, ‘हंा, बस दाल-रोटी चल रही है।’ या लोगों को गाते सुनता, ‘दाल-रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ।’ इतने बरसों से सब ठीक चल रहा था। हम दोनों का साथ-साथ बिल्कुल ऐसा था। जैसे सूरज और किरन, समुद्र और लहरें। जहंा मैं पाया जाता था, वहां तुम भी बनी रहती थी। सब्जियों ने हमेशा मुझसे एक दूरी बनाए रखी।मैं दूर खड़ा-खड़ा ईष्या-भाव से उन्हें निहारता रहता था। इठलाती-बलखाती भिंडिया, गोल-मटोल आलू, फूल सी खिली हुई गोभी और मनिहारी मटर, अक्सर मुझे आर्कषित करती थी। टमाटर के गुलाबी गालों को देख उन्हें छूने का मन करता। पर दाम देखकर हिम्मत न जुटा पाता। ऐसा नहीं था कि मनमोहक सब्जियंा हमेशा ही इस गरीब की पहुंच के बाहर रही। कभी-कभी मौसम में बहुत ही सस्ती भी हो जाती थी। पर चूंकि आदत न बिगड़ जाए, इसलिए मन होते हुए भी नहीं लाता था। सोचता था, मेरा और तुम्हारा तो जनम-जनम का साथ है। एक पल भर के स्वाद-सुख के बदले भला मैं जन्म-जन्मंातर के संबंधों को दांव पर क्यूं लगा दूं। पर तुमने बदलते हुए ऐसा नहीं सोचा। तुम थोड़ी मंहगी हुई। मैंने सोचा कि प्यार में कभी-कभार ऐसा हो ही जाता है। रूठना-मनाना तो संबंधों में जीवन-भर चलता ही रहता है। पर मैंने तुम्हारी ‘थोड़ी नाराजगी’ की चिन्ता नहीं की। मैंने दाल बनाते समय पानी अधिक मिला लिया। तुम और मंहगी हुई तो और पानी डाल दिया। पर धीरे-धीरे तो तुम मेरी पहंुच से इतनी बाहर हो गई। और सब्जियों के साथ तो क्या तुम उनसे भी आगे जाकर खड़ी हो गई। मैं बस दूर खड़ा-खड़ा देखता रहता हूं। सचमुच जब नमक-मिर्ची के घोल से रोटी खाता हूं। तो तुम्हारी बहुत याद आती है। और फिर तुमक्या गई, जीवन में से सब चला गया। अब सभी ने साथ छोड़ दिया है। गेहूं अंाख दिखाने लगा है, तेल पहले से ही रूठ गया था। सस्ती सब्जियंा तो अब मौसम में भी नहीं रही। हरी मिर्ची, धनिया और लहुसन, जो गरीब की चटनी का सहारा होते थे, वे अब दूर हो गए हैं। शक्कर भी इतनी मंहगी हो गई कि नाम लेते ही मंुह में कड़वाहट घुल जाती है। मजदूरी का काम मिलना और मुश्किल हो गया है। तुम्हारे लिए मैंने क्या-क्या नहीं किया। सरकार के पास भी गया। उसने भी दिलासा दी। कि हम जल्दी ही वापस लाऐंगे। मैंने सोचा मेरी दुनिया फिर से आबाद हो जाएगी। पर अब तो सरकार ने भी हाथ खड़े कर दिए। साफ मना कर दिया। तो क्या हम हरदम के लिए जुदा हो जाएंगे। क्या गरीब और दाल के अमर प्रेम के संबंध हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे। फिर कहावतों का क्या होगा। तुमने तो इतिहास ही बदल दिया। और अब भला मैं क्या कहूं। भले ही मैं गरीबी की रेखा के नीचे बसर करने वाला गरीब हूं। पर हिन्दी फिल्में तो देखता ही हूं। सो चंादी की दीवार न तोड़ने वाली बेवफा। तू अमीरों की थाली में ही खुश रह। और अब इतने के बाद मैं कह भी क्या सकता हूं। सूखी रोटी खाओ और प्रभु के गुण गाओ। -----मोबाईल-- 094142 26981 शरद उपाध्याय, 175 आदित्य आवास गोपाल विहार, कोटा-1 324001