बुधवार, 16 दिसंबर 2009

व्यंग्य चिठठ्ी लीक होना

अमर उजाला : 17.12.09 को प्रकाशित

भारतीय डाक-व्यवस्था को लेकर कभी मेरे दिल में श्रद्धा नहीं रही। क्योंकि एक तो उन्होंने कभी चिठठ्ी समय से नहीं पहुंचाई, दूसरा कभी गोपनीयता नहीं बरती। जब भी बीवी मायके से खत लिखती थी तो डाकिया उसे पिताजी के हाथ सौंपकर चल देता था। उस कमबख्त को कभी यह नहीं दिखता था कि उस पर मेरा नाम लिखा हुआ है और साथ ही ‘पिराईवेट’ भी लिखा हुआ है।
पर अकेले डाक-व्यवस्था को दोषी मानने से काम नहीं चलता। मेरे घर वाले भी उतने ही दोषी है। अल्पशिक्षित होने के बाद भी पत्नी जो ‘पिराइवेट’ लिखकर गोपनीयता को बनाए रखने का प्रयत्न करती थी। वो पत्र मिलने के चंद घंटों बात मां द्वारा पूरे मोहल्ले को पता चल जाती थी। मायके में बैठकर जो उद्गार वो समूचे कुनबे के लिए व्यक्त करती थी। वो कुछ देर में कुनबा जान लेता था।
लेकिन इस व्यवस्था के लिए किसे दोष दिया जाए। यह तो हमारी पंरपंराओं में शामिल हो गया है। मायके में बैठी पत्नी जानती थी कि यह चिठठ्ी ससुराल जा रही है। और उस पर ‘प्राइवेट’ लिखना उसको सार्वजनिक बनाने का खुला आमंत्रण है। पर फिर भी वो लिखती थी। आजकल भी यही हो रहा है। पार्टी का एक महत्वपूर्ण नेता चिठठ्ी लिखता हैं और वो फौरन लीक होकर सार्वजनिक हो जाती है।
यह मैं बचपन से देख रहा हूं। हमेशा यही होता रहा है। आदमी खूब ध्यान से चिठठ्ी लिखता है। आसपास देखता है, कोई देख तो नहीं रहा है। अगर कोई आसपास बैठता है तो आड़ कर लेता है। पर किसी को देखने नहीं और फिर उस पर उत्तम क्वालिटी की गोंद लगाता है और बड़े ध्यान से डाक के डिब्बे में डाल आता है। वो देखता है कि दूर-दूर तक कोई चिड़िया भी उसे नहीं देख रही। पर फिर भी चिटठ्ी लीक हो जाती है।
आजकल यही हो रहा है। बिचारे नेता पार्टी को मजबूत करने के लिए चिटठ्ी लिखते हैं, जिसको लिखते हैं, उसके पास पहुंचने से पहले ही लीक हो जाती है। आखिर ऐसा क्यूृं होता है। हमारे यहंा पिराइवेट से लेकर राजनीतिक स्तर पर चिटठियंा इतनी लीक क्यों होती है। क्यों हमारे यहंा दूसरों की चिठठियों को इतने उत्साह से पढ़ा जाता है। प्यारी पत्नी मुझे इतने प्यार से चिठठ्ी लिखती है। वो मेरे प्रति कितनी गंभीर है। कितना ध्यान है उसे मेरा। अपने दुख-दर्द मुझसे बंाट रही है। और ये मेरे घरवाले जर्बदस्ती बीच में टंाग अड़ा देते हैं। वे चिठठ्ी खोलकर सार्वजनिक कर देते हैं।
बचपन से लेकर आजतक लगातार लीक होती चिठठ्यिों की गणित मुझे समझ नहीं आई है। ऐसा क्यों होता है। बहुत सी बातें दिमाग में घूम रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि चिठठ्ी लिखी ही इसलिए जाती है। कि लीक हो सके। अगर लीक न करवाना हो तो शायद लिखी ही नहीं जाए।
जिन चिठठ्यों के लिए मैं अपने घरवालों से नाराज हो गया, या जिसे मैं पत्नी द्वारा एक पति को प्यार से लिखा जाना समझ रहा था। वो कहीं उसने जान-बूझकर घरवालों को अपने प्यारे उद्गारों से परिचित कराने के लिए तो नहीं लिखा। कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं बीच में कहीं था ही नहीं। कहीं यह बात तो नहीं है कि उसने जानबूझकर ‘पिराइवेट’ इसीलिए लिखा कि उसे जरूर से जरूर मेरे पिताजी ही खोलें। यानी कि मैं उस चिठठ्ी का नायक नहीं अपितु केवल एक माध्यम ही था।
अब मुझे भी विश्वास हो गया है कि ‘लीक-प्रथा’ के पीछे पंरपरा चल रही है। आदमी को अपना दर्द जमाने तक बंाटना होता है और लीक होने वाली चिठठ्ी लिख बैठता है। वो जिसे लिखता है उसे वाकई चिठठ्ी नहीं लिखता बल्कि उसका उदद्ेश्य यही होता है कि उसे वो लोगों तक पहुंचा सके।
यह सब जानकर मैं पीड़ा से भर गया हूं। अब मुझे घरवालों पर बिल्कुल गुस्सा नहीं आ रहा है। वे भी बिचारे क्या करें। उनका भी इस्तेमाल हुआ है। वे उस चिठठ्ी को लीक नहीं करते तो क्या करते। अब मैं भी कुछ करने की सोच रहा हूं। पर क्या करूं। एक कड़ी चिठठ्ी लिखता हूं। पर पेन उठाते ही हाथ कंापने लग जाते हैं। आप सोचते होंगे क्यांे, अरे भई चिठठ्ी लीक हो गई और पत्नी के हाथ पड़ गई तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा। इसलिए बंद करता हूं।

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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

व्यंग्य : पेट की खातिर

नई दुनिया संडे में 6.12.09 को प्रकाशित

आजकल मैं बहुत परेशान हूं। क्या करूं, हाजमा ही ठीक नहीं रहता। थोड़ा सा भी ज्यादा खा लेता हूं। तो पेट दुखने लग जाता है। बहुत से डाक्टरों को दिखाया। पर कोई फायदा नहीं हुआ। सभी यही खाते हैं कि पेट का ध्यान रखो। घर पर बीवी से कहता हूं तो वो मुंह बनाती है। ‘ऐसे निगोड़े पेट का भी क्या फायदा, जिसमें दो रोटी भी नहीं पचती। अब लोगों को देखो, हजारों करोड़ो का घोटाला कर जाते हैं और डकार भी नहीं लेते।’
अब मैं भी क्या करूं। मुझे अपने आप पर बहुत शर्म आती है। वाकई लोग इतने बड़े-बड़े घोटाले कर रहे हैं। हजारों करोड़ रूपए वारे-न्यारे हो जाते हैं। जब भी इनका जिक्र होता है, मैं अपने पेट की ओर देखता हूं। कमबख्त दो सूखी रोटी से ही भर जाता है। पर इनके पेट कितने बड़ें हैं, हजारों करोड़ रूपयों से भी नहीं भर पाते। कितना भी खाते हैं पर सब समा जाता है। जितना घोटाला करते हैं, उतनी ही भूख प्रबल होती चली जाती है। देश में निरंतर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।अभी कोड़ाजी को ही लो। इतनी कम उम्र में उन्होंनंे यह कमाल कर दिखाया है। एक गरीब मजदूर परिवार में जन्में कोडा के नाम दो हजार करोड़ रूपए का घोटाला दर्ज किया गया है। आखिर कितना मजबूत हाजमा चाहिए। यूं ही कोई दो हजार करोड़ रूपए पचा सकता है।
पर अब क्या किया जा सकता है। हमारा देश धीरे-
धीरे मजबूत हाजमे का देश होता जा रहा है। यहंा भंाति-भांति के लोग हैं। तो भंाति-भांति के पेट भी है। सबकी क्षमता अलग-अलग है। कोई हजार रूपयों में चूं बोल जाता हैं। तो कोई हजार रूपए खाने के बाद डकार नहीं लेता। पर लाख रूपयों पर दिक्कत देने लगता है। कई पेट विविधता लिए हुए रहते हैं। वे हर जगह का पानी पचा लेते हैं। यदि कृषि विभाग में रहते हैं, तो बीज से लेकर कीटनाशक, फसलों तक का बजट हजम कर जाते हैं। वो ही रोडवेज में चल जाऐं तो पेट््रोल, डीजल और यदि सिविल में पहुंच जाऐ तो सीमेंट, लोहा व मजदूरों की मजदूरी तक पचा जाते हैं। और तो और यदि देवस्थान विभाग में पहुंच जाए तो देवताओं के प्रसाद तक से परहेज नहीं करते। राजनीतिक पेट इनमें सर्वोपरि है। इनके पाचन की कोई सीमा नहीं है।
और आजकल तो इन पेटों के साथ एक दिक्कत और हो गई है। कि रोजाना खाने की आदत से इनका कोटा बढ़ गया है। एक निश्चित मात्रा में अगर इन्हें खाने को नहीं मिले तो वे कुछ भी कर सकते हैं। राजनीतिक पेटों के साथ यह बीमारी आम है। इसीलिए वे किसी भी कीमत पर सत्ता का प्रसाद चाहते हैं। इसी से उनके पेट की क्षुधा शांत होती है। इसी कारण से जब सत्ता का सवाल होता है। तो वे सारे सिद्धंात, नियम ताक पर रखकर सत्ता वाली पार्टी से जुड़ जाते हैं। बिचारे करें भी क्या। आखिर पापी पेट के लिए इतना तो करना ही पड़ता है। कुर्सी मिल जाए तो फिर पेट हमेशा सही रहता है।
आजकल मैं भी बस इसी फिराक में रहता हूं। कि मेरा हाजमा भी थोड़ा ठीक हो जाए। कम से और कुछ नहीं तो रिश्वत की मिठाई तो पचा सकूं। बीवी का पेट, जो रूखा-सूखा खाकर खराब हो गया है। तो वो तर माल खाने लायक हो जाए। अब कोई अच्छी जगह ट्र्ंासफर की कोशिश कर रहा हूं। थोड़े घोटाले’ के एंजाईम मिलेंगे। तो पाचन-तंत्र अपने-आप सुधर जाएगा। अब अपने हाथ में है ही क्या। बस ईश्वर से यही प्रार्थना कर सकते हैं। जैसे दूसरों की सुनी, वैसे ही मेरी भी सुन ले। अब मंाग भी थोड़ा ही रहा हूं।
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व्यंग्य जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके दिन फिरे

दैनिक भास्कर:रागदरबारी में 12.12.09 को प्रकाशित

भगवान सबकी सुनता है। उसके घर में देर है अंधेर नहीं। भगवान की मर्जी है तो कुछ भी हो सकता है। गरीब को अमीर बना सकता है तो राजा को रंक बनाने में भी देर नहीं करता। महारानी को गदद्ी से उतार सकता है तो किसी को भी गदद्ी पर बिठा सकता है। आजकल भारतीय क्रिकेट टीम के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।
वो भी क्या दिन थे। जब वो सभी से हार जाते थे। कभी उन्होंने भेदभाव नहीं किया। बंगलादेश से लेकर श्रीलंका तक हार जाने के लिए दुनिया में उनका नाम था। कभी भी, कहीं भी, किसी से भी हार जाना उनके स्वभाव में शुमार था। उन्होंने कभी भी चंद ईनामों की खातिर विरोधियों का दिल नहीं दुखाया।
हालंाकि टीम में इतने बड़े-बड़े नाम थे। लेकिन अहंकार तो उन्हें कहीं छू भी नहीं गया था। कितना भी लोग क्रिकेट का भीष्म पितामह बता दें। पर जरूरत के समय उन्होंने कभी भी महाभारत नहीं लड़ी। कलियुग के इस माहौल में उनका व्यवहार सदा सतयुग के दार्शनिक की भंाति रहा। जिसे कभी भी यह भौतिकवाद जीवन छू नहीं पाया।कितनी ही बार मामूली से टारगेट पर अपने विकेट गंवाकर पेवेलियन लौट गए। नेट प्रेक्टिस से सदैव वो बचते रहे। सदा यही सोचते रहे कि चार दिन की जिंदगी है। दो दिन तो मैच खेलने में चले गए, तो बाकी का जीवन शंाति से व्यतीत हो, यही कोशिश करते रहे। उन्होंने खेल को सदैव खेल भावना से लिया। जीत गए तो ठीक है, हार गए तो कोई बात नहीं। उनका दर्शन सदैव समृद्ध रहा। मरने के बाद सब बराबर रहता है, कौन हारा, कौन जीता।
उनका और आलोचना का चोली-दामन का साथ रहा। वे क्रिकेट को छोड़कर सभी क्षेत्रों में नए-नए प्रयोग करते रहे। मन हुआ तो नाच लिए, मन हुआ तो स्टेज पर फिल्मी सितारों के साथ अभिनय कर लिया। फिल्मी अभिनेत्रियों के साथ नाम जोड़कर उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे केवल पिच पर ही नहीं फिसलते बल्कि प्रेम के मैदान में भी रन आउट हो सकते हैं। वे वाकई क्रिकेट के बादशाह के साथ-साथ प्रेम के युवराज भी हैं।
उन्होंने सदैव देश की भलाई के बारे में सोचा। मंदी के इस दौर में जहंा बाजार को उपभोक्ताओं की जरूरत है। वहंा यह विज्ञापन लिए गली-गली भटकते रहे। आजकल माल बेचने में कितनी मुश्किल होती है। भले ही लोगों को पानी नहीं उपलब्ध हो पाया हो लेकिन वे गरीब-अमीर सभी को समान रूप से शीतल पेय बंाटते रहे। उन्होंने क्या नहीं बेचा। कितना थक जाते थे। इसी थकान के कारण वो विकेट के बीच भागने में कमजोर रहे और कितने ही मौकों पर रन-आउट भी हो जाते थे।
वे सभी एक बड़े योद्धा की भंाति थे। लड़ने में कभी पीछे नहीं हटे। घायल हो जाते थे पर वीरता के कारण चोटों को छिपा-छिपाकर लड़ाई के मैदान में डटे रहते थे।
पर अब सब कुछ बदल गया है। अब वो अच्छा माल भी बेच रहे हैं और क्रिकेट भी अच्छा खेल रहे हैं। देखते-देखते हारने की आदत को उन्होंने जीतने में बदल दिया है। अब चूंकि जीतने लगे हैं इसलिए ‘जो जीता वो ही सिकंदर‘। सो आजकल सभी उनकी अराधना में लगे है। टी0वी0पर, अखबारों में, पत्रिकाओं में सभी जगह पर उनकी ही चर्चा है। सब उनके ही गुण गा रहे हैं। चारों ओर भारतीय टीम के डंके बज रहे हैं।
सारे खिलाड़ी प्रसन्न हैं। आखिर क्यों न हो। पता नहीं कितने दिनों के लिए नंबर वन के पायदान पर हैं। आजकल वक्त का भरोसा नहीं है। बहुत जल्दी-जल्दी स्थितियंा बदलती है। भारतीय टीम को नजर भी जल्दी लगती है। आज हीरो तो कल जीरो बनते भी देर नहीं लगती। े
लेकिन अब जब सब उनकी पूजा-अर्चना में लगे हैं, तो भला मैं क्यांे पीछे हटूं। मैं भी आजकल उनके ही गुण गा रहा हूं। दिन-रात, सुबह-शाम उन्हीं के गीत गा रहा हूं। जब तक वे जीतते रहेंगे, यही माहौल रहेगा। अब और तो भला मैं क्या कर सकता हूं। बस यही प्रार्थना कर सकता हूं। जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके दिन फेरे।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

व्यंग्य हारने के बाद का चिंतन

नवभारत टाईम्स 2.12.2009 को प्रकाशित


वे इन दिनों आत्मविश्लेषण कर रहे हैं। यह एक आम तथ्य है। हार के बाद लोग अक्सर ऐसा करते पाए जाते हैं। जीतने का अतिविश्वास था, लेकिन हार गए इसलिए ऐसा सोचना जरूरी भी है। यह सब अकस्मात ही हुआ, जीतना बिल्कुल तय सा लग रहा था कि अचानक यह परिणाम सामने आया। मन है कि मानने को तैयार ही नहीं होता। आखिर कोई इस तरह से कैसे हार सकता है। गीता की इस टिप्पणी पर उन्हें कभी विश्वास नहीं होता था। कि सब-कुछ क्षणिक है, उन्हें लगता था कि यह कथन उनके लिए नहीं बल्कि विपक्षी दलों के लिए बना है। उनकी सत्ता तो स्थाई है, शाश्वत है और चिर्-काल तक चलने वाली है।
पर प्रतिकूल परिणाम आए और वे सत्ता से बाहर हो गए। अब बाहर हो गए तो कुछ करना तो है। बैठे-ठाले क्या करेगें। पहले तोे टाईम नहीं मिलता था। पर अब क्या करें तो आजकल चिंतन प्रारंभ कर दिया है। आखिर कुछ तो करना पड़ेगा नहीं तो लोग तरह-तरह की बातें करेगंे। हालंाकि उन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की। कभी किसी की नहीं सुनी। लोग कहते-कहते थक जाते थे पर उनका ध्यान उनकी तरफ नहीं जाता था। लेकिन वे इसे भी नहीं मानते, वे कहते हैं कि सब-कुछ गलत है। जनता झूठ बोलती है। उन्हें कभी आवाज नहीं सुनाई दी। ऐसी बात नहीं कि उन्होंने कोशिश नहीं की। उन्हें बार-बार बुदबुदाने की आवाज आती थी। पर वो उनके कानों तक आ नहीं पाई। वे इसे कान की बीमारी समझ रहे थे। सोच रहे थे चुनाव जीतते ही इसका आपरेशन करवाऐंगे। दो कान अतिरिक्त लगवाने का भी प्लान था कि इतने में परिणाम आ गए।
हारना हमेशा दुःखद होता है। ऐसा नहीं कि वे पहली बार हारे। पहले भी हारते रहे है पर हमेशा की तरह उन्हें यह हारना बुरा लगा। इन पंाच सालों में उन्होंने कितना सब किया, सभी लोगों को कितने आश्वासन, वादे बंाटे। कितना सुधार किया। इतने अल्प-समय में और हो भी क्या सकता था। वो तो यही सोचे बैठे थे कि पंाच साल और मिलेंगे तो सभी की शिकायतें दूर कर देंगे। पर अब क्या हो सकता है।
हारते ही मन में दर्द उठा। दर्द उठता ही है। क्या करें अब पंाच साल कैसे कटेंगे। अब तो यह पांच साल तो पहाड़ों से लग रहे हैं। पर कोई बात नहीं टाईम तो पास करना ही होगा। आराम भी कहंा तक करें, गप्पें भी कहंा तक हंाकें। फिर ऐसा करने से कहीं जनता यह न समझ बैठे कि वे कुछ नहीं कर रहे। इसलिए चिंतन प्रांरभ कर दिया है।
समूचे राज्य में सभी स्तरों पर यह चिंतन चल रहा है। जब हारने नहीं चाहिए थे तो क्यों हारे। आखिर क्या बिगाड़ा था उन्होंने जनता का जो वोट जैसी तुच्छ चीज नहीं दे पाई। इस भौतिकवादी युग में उन्होंने कौनसा सोना-चांदी मंागा था सिर्फ साधारण सा समर्थन तो मंागा था वो भी जनता नहीं दे पाई।
पर अब भीषण चिंतन प्रारंभ हो गया है। सब लोग सोचने में लग रहे हैं। पंाच साल से कुछ सोचा नहीं तो दिमाग की नसें तनने लगी है। पर वे फिर भी सोच रहे हैं। सभी लोग कहते हैं कि उन्हें नीचे तक झंाकना चाहिए। अरे पर वे भी क्या करते। सत्ता के दिनों में वे अजीब सी बीमारी का शिकार हो गए थे। गर्दन ऊपर के अलावा कहीं घूमती ही नहीं थी। नीचे तक निगाह गई ही नहीं। ऐसा नहीं कि उन्होंने चिन्ता नहीं की। उन्होंने बहुत इलाज कराया। पर कोई फायदा नहीं हुआ। लेकिन अब चुनाव हारते ही यह सब तरफ घूमने लगी है बल्कि ऊपर उठना ही भूल गई।
गली-गली यही बातें हो रही है। एक और महत्वपूर्ण बात सामने आई। कि उन्हें नीचे के कार्यकर्ताओं की ओर ध्यान देना चाहिए। वाकई यह कितनी महत्वपूर्ण बात है। वे अब व्यथित हैं आखिर ऐसी भूल कैसे हो गई। अब ये लोग कितने अपने से लग रहे हैं, पर वे उन दिनों से बेगाने से कैसे लग रहे थे। बिचारे कैसे उनके आस-पास मंडराते रहते थे। छोटे-छोटे कामों के लिए कितने हाथ जोड़े पर वे पता नहीं क्यों नहीं कर पाए। अब उन्हें ग्लानि हो रही है। मन कर रहा है कि उन्हें गले से लगाकर रोंऐ। पर अब कोई गले लगने को तैयार नहीं है। सभी नाराज बैठे हैं। किन्तु उन्हें विश्वास है कि वे सभी को मना लेंगे। अभी वैसे भी पंाच साल पड़े हैं। ये पंाच साल इन्हीं के साथ चिंतन करते-करते ही तो बीतेंगे। थोड़ी बात थोड़ी मनुहार, साथ उठना-बैठना व चिंतन करना सब ठीक कर देगा।
हालांकि सभी इस बात पर एकमत हैं कि जनता से भूल हो गई है। जनता राह भटक गई है। भोली-भाली जनता को बरगलाया गया है। पर उन्हें यह सतत् विश्वास है। कि आगे से वो ऐसी गलती नहीं करेगी। अगली बार वो उन्हें ही वापस लाएगी। आखिर सुबह का भूला शाम को घर लौटता है तो भूला नहीं कहलाता। बस यही विश्वास है। अब और क्या करें इसलिए चिंतन ही प्रारंभ कर दिया हैं सो अब यही सब चल रहा है।

व्यंग्य हे आयकर बाबू

अमर उजाला दि. 2.12.2009 को प्रकाशित




हे आय पर कर लगाने वाले आयकर अधिकारी। तुझे कोटि-कोटि प्रणाम। इस कोटि-कोटि शब्द को तू अन्यथा न लेना। इसका मेरी आय से कोई संबंध नहीं है। ‘प्रणामों’ को अभी तक आय में कोई सम्मिलत नहीं किया गया। हालंाकि प्रणामों के प्रति संदेह व्यक्त करना, हमारे यहंा का रिवाज बन गया है। पर तू भी क्या करे। संदेह करना तो तेरी ड्यूटी का प्रमुख अंग है। तू मुझे इस संदेह से मुक्त रखते हुए अपने कर्तव्य का निर्वाह कर।
तेरा हद्य विशाल है। ऐसा हद्य अन्य प्राणियों में कम ही पाया जाता है। इस विशाल हद्य में संपूर्ण संसार के बही-खाते समाए हुए है। हालंाकि बही-खाते क्या है, कुछ भी नहीं है। इस संसार में कुछ कागज के टुकड़े हैं, जिन पर कुछ अंक लिखे हुए हैं। पर तू अंर्तयामी हैं। तू जानता है- ये अंक, अंक नहीं हैं। धार्मिक पुस्तकों में लिखे गए मंत्र है। जिनकी नित्य स्तुति मात्र से मेरे जैसे लोगों का उदार हो जाता है।
तू वाकई निष्ठुर है। तू मेरी पीड़ा को समझता नहीं है। तू मुझ पर टैक्स पर टैक्स लगाता जाता है। तू जानता नहीं, मुझे पैसे का कितना मोह है। मैं अपनी बेटी को विदा करते समय, इतना दुखी नहीं हुआ था, जितना दुख मुझे आयकर चुकाते वक्त होता है।
तू अंतर्यामी है। तेरे से कुछ भी छिपाना असंभव है। मैं कितनी भी इन्कम छिपाने की कोशिश करता हूं, तू ढूंढ लेता है। मैं इन्कम कम करता हूं, तू ज्यादा निकाल देता है। पर मैं एक नेक सलाह देता हूं कि विश्वास करना सीख। अरे, तेरा क्या जाता है। जब मैं कह रहा हूं तो सही ही कह रहा हूं, कोई झूठतो बोलने से रहा।
फिर दूसरी बात, मेरे पास आखिर है ही क्या। ये चंद आटे की चक्कियंा, जिन्हें तू मिल की संज्ञा देता है। थोड़ी सी जमीन, जिसे तू करोड़ों की बताता है। दस-पंाच करोड़ के शेयर, कुछ किलो सोना, दुकानें, मकान एवं चंद एयरकंडीशंड कारों के अतिरिक्त मेरे पास है ही क्या। तू मेरी संपत्तियों के प्रति मोह मत रख। अरे, यह संसार नश्वर है। मैं खाली हाथ आया था, खाली हाथ ही चला जाउंगा। कौन सा संपत्ति साथ-साथ लेकर जा रहा हूं। जब तेरा-मेरा कुछ नहीं है तो फिर तू इतना भारी-भरकम कर क्यों थोपता है।
मैं तो तेरा शुभचिन्तक हूं। तेरे भले की बात कर रहा हंू। तू इन भौतिकवादी प्रवृत्तियां को छोड़कर, दर्शन की ओर अग्रसर हो। कुछ मेरा टैक्स कम करके पुण्य कमा। अरे, कल से तू भगवान के घर जाएगा तो क्या हिसाब देगा। जीवन भर दूसरों के साथ किया बुरा, तुझे सदैव अशंात ही रखेंगे।
मैंने लड़की की शादी में ढेरों रूपए खर्च कर दिए। तूने आपत्ति उठाई। छि!छि! तुझे यह शोभा नहीं देता। एक लड़की के विवाह जैसे पुण्यकार्य में तू विघ्न डालता है। अरे, तू कैसा बाप हे रे। कल से तेरी बेटी भी ब्याहेगी। तब भी ऐसा करेगा। बेटी तो पराया धन होती है। इसलिए दिल खोलकर खर्च करना पड़ता है।
अब दो करोड़ रूपए खर्च हुए तो यह रकम कौन सी मैं विदेश लेकर चला गया। यह समाज में ही बंाट दी। अरे, एक तो पहले ही बेरोजगारी इतनी है। और तू कम खर्च की बात कह कर दुकानें बंद करवाने पर तुला है। जेवहरात, टैंट हाउस, होटल इत्यादि बंद हो गए तो इनके परिवार वाले खाने के लिए क्या तेरे घर आऐंगे। इसलिए तू कार्रवाई करने से पूर्व समस्त संसार का चिंतन कर। जिन कर्माें से संपूर्ण समाज का भला होता है, वे कर्म भला कैसे गलत हो सकते है।
‘अतिथि देवो भव’ की व्याख्या को तूने ‘अतिथि दुष्टोभव’ में परिवर्तित कर दिया है। जरा सी आहट होती है तो लगता है कि कहीं ये वो
तो नहीं। मन में प्रत्येक आने वाले के संबंध में एक खौफ बना रहता है। मुझे हर
व्यक्ति में तेरी सूरत नजर आती है।
एक तो तेरा आना और फिर अचानक आना मेरी संास व हद्यगति, दोनांे रोक देता है। भारत में बढ़ रहे हद्य रोगियों की संख्या के पीछे भी तेरा हाथ है।
हालंाकि मैं मानता हूं, सब कुछ तेरा ही है। तुझे पूरा अधिकार है। पर फिर भी कम से कम बता के तो आ। थोड़ा सा तमीज तो सीख। तुझे ये आचरण शोभा नहीं देता।
तेरा शिकंजा बहुत कठिन है रे! तू इसमें थोड़ा ढील
दे। मेरा विचार है जिस गति से इसमें ढील दी जाएगी, उसी गति से बेरोजगारी दूर होती चली जाएगी क्योंकि जितनी अधिक पूंजी हमें प्राप्त होगी, हम उधोग-ध्ंाधों में लगाएंगे। लोगों को रोजगार के अवसर बढ़ जाएंेगे। अरे, तेरे कारण ही तो हमारी समाज सेवा की बात दिल में ही रह जाती है।
अब और क्या कहूं। दो रोटी सुबह व दो रोटी शाम वाले इस अबोध प्राणी की बात सुन। मुझ पर दया कर। अधिक नहीं तो थोड़ी कर। थोड़ी नहीं तो बहुत थोड़ी कर। पर कर जरूर। अरे निर्मोही क्या तेरा दिल नहीं पसीजता। कुछ तो ख्याल कर।

सोमवार, 30 नवंबर 2009

मौसम बड़ा बेईमान है

दैनिक हिन्दुस्तान में 1.12.2009 को प्रकाशित
नक्कारखाना






आज मौसम बड़ा बेईमान है।’ सचमुच जब भी यह गीत सुनता हूं। तो लगता है, कोई संत महापुरूष ब्रहम कथन का वाचन कर रहा है। मौसम पर आजकल भारतीय राजनीति की छाया पड़ गई है। पता ही नहीं चल पाता कि कब कौनसी करवट ले बैठे। जिस तरह हम किसी राजनीतिज्ञ के बारे में भविष्यवाणाी नहीं कर सकते, उसी तरह मौसम के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।
मुझे मौसम विज्ञानियों पर तरस आता है। मौसम विज्ञानी और मौसम, दो असमान विचारधाराऐं हैं। मैं बचपन से देखता आ रहा हू। वो भविष्यवाणी कुछ करते हैं, पर मौसम है जो कुछ और हो जाता है।
पहले मैं पहले मौसम विभाग की बात को बहुत गंभीरता से लेता था। जब भी वो कहता, ‘जोरदार बारिश की संभावना है, बरसाती, छाते से लैस होकर निकलता था। पत्नी कहती,‘ ये क्या, आसमान तो साफ है, क्या कवच-कुंडल लेकर जा रहे हो।’
मैं मन ही मन हंसता। यह अज्ञानी मौसम की बात को क्या जाने। ये बिचारे सेटेलाईट से दिन-रात देख रहे है और यह मूढ़ आसमान देखकर एक पल में निर्णय ले रही है, बरसाती-छाता मत ले जाओ।
मैं हरदम साहसी योदधा की तरह निकल जाता। बस में, दफतर में लोगों की फबतियंा सुनता। पर हिम्मत नहीं हारता, अरे भई इतने पढ़े-लिखे लोग कह रहे है। करोड़ों-अरबों रूपए खर्च हो रहे है। सेटेलाईट भी बिचारा आसमान पर लटका हुआ है, दिन-रात मौसम पर निगरानी रख रहा है। कभी तो बरसेगा। पर कमबख्त सुबह से शाम तक एक बूंद भी नहीं टपकती।
बाद में मौसम विज्ञानी भी दयनीय भाव लिए बयान दे देता था। इसमें हमारी क्या गलती है। हमने तो बिल्कुल सही आकलन किया था, पूरा माप-तौल सही था। पर एक टाईम पर बादल ही नहीं आए,तो क्या कर सकते है।
अब बिचारा वो भी क्या करे, मौसम भी नैतिकता की पटरी से उतर गया है। कहीं भी कुछ भी उल्टा-पुल्टा कर देता है। एक और अंागन में गोरी खड़ी हुई वर्षा की फुहारों से भीगने का मन बना रही है, दूसरी ओर वो कहीं गल्र्स-कालेज में जाकर बरस जाता है।
मैं देख रहा हूं, वैज्ञानिक ग्लोबल-वार्मिंग की चेतावनी दे रहे है। वे गर्मी को लेकर परेशान हैं, भयभीत हैं। इतना खतरनाक वर्णन करते है। कि मेरी बेटी डर जाती है। ‘पापा क्या यह दुनिया भटट्ी में बदलने जा रही है।
लेकिन वो मौसम भी क्या, जो इन लोगों की बात मान ले। वो पैदाइशी बेईमान है। वो ऐसी करवट ले रहा है। कि लोग हक्के-बक्के है। चारों तरह ठंड ही ठंड है। आदमी बिचारा गर्मी शब्द ही भूल गया है। गरम कपड़े पहने रहा है, गरम चीजें खा रहा है और ठंड के मारे कंाप रहा है। ठंड जो है, हडिड्यों तक को जमा देने वाली है। रोज मैं उठता हूं, मौसम वैज्ञानिकों को स्मरण करता हूं, बेटी से कहता हूं,‘ बेटी चिंता मत कर। ठंड अब जाने ही वाली है, वैज्ञानिक कर रहे थे, बर्फ बस पिघलने वाली है। हमारे अस्तित्व को खतरा है।
पर बेटी अब मुझ पर विश्वास नहीं करती। वो हंसती है ‘पापा मैं तो जमती जा रही हूं। और आप भी बस। .... पर मैं भी क्या करूं। मेरी इसमें कोई गलती नहीं है। आजकल मौसम भी बड़ा बेईमान हो गया है। मैं कुछ नहीं कर सकता। सो रजाई ओढ़कर सो रहा हूं। ठंड वाकई बहुत हो गई है।
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शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

व्यंग्य: फिल्म 2012 का मसाला हिंदी संस्करण

दैनिक भास्कर: रागदरबारी में प्रकाशित 26.11.09




सचमुच जब भी मैं विदेशों की ओर देखता हूं। तो मुझे बहुत ग्लानि होती है। दुनिया में सबसे अच्छे काम हम कर सकते हैं और नाम उनका होता है। दुनिया भर में चर्चा है कि दो हजार बारह में दुनिया नष्ट हो जाएगी। उन्होंने इस पर फिल्म भी बना ली। आज सभी जगह इसकी चर्चा हो रही है। वो मंाग कर रहे हैं कि ओबामा को भी यह फिल्म देखनी चाहिए। मुझे बहुत दुख होता हैै। यह फिल्म उन्होंने कैसे बना ली, हम कैसे पीछे रह गए। आज यह फिल्म हम बनाते तो निश्चित रूप से उनसे बेहतर ही बनाते। सो हम भी आजकल ’असली’ नई दो हजार बारह बना रहे हैं।
अब अंग्रेजी फिल्म में क्या है। एक भी तो गाना नहीं है। हमारे यहंा तो जब तक सात-आठ धांसू गाने नहीं होते। तब तक भला मजा आता हैै क्या। सो हम फिल्म में जगह-जगह गाने डालेंगे। हमारा देश सदैव प्रेम और भाईचारे का संदेश देता हुआ पाया जाता है। सो वो यहंा भी कैसे अछूता रह सकता है। फिल्म में दुनिया की चिंता बाद में की जाएगी। सबसे पहले हीरो-हीरोईन के बीच प्यार, इकरार दिखलाया जाएगा। जब थोड़ी प्यार-मोहब्बत सैटल हो जाएगी। तब ‘भारतीय दर्शकों’ की जरूरत के मुताबिक दृश्य डाले जाऐंगे। स्नान का भारतीय संस्कृति में बड़ा महत्व है। उसे ध्यान में रखते हुए हीरोईन को समुद्र में नहलाया जाएगा। वहंा एक बढ़िया सा गाना होगा। गाने के अंत में बड़ी-बड़ी लहरों का तूफान आएगा। पर यहंा हीरो उसे बखूबी बचाकर ले आएगा। वैसे यहंा पर कोई भारतीय साधु समाज का अवैतनिक कर्मचारी भी इस जिम्मेदारी को निभा सकता है।
अब हमारी सोच तो सकारात्मक है। अंग्रेजी फिल्म में तो सूर्य की गर्मी से यह तंाडव हुआ। यह हमारे देसी फार्मूले में यह सब नहीं चल सकता। हमारे यहंा तो सब हीरो के हाथ में ही होता है। हम स्टोरी को थोड़ा घुमाऐंगे। हीरो को अंतरिक्ष-अभियान के लिए भेजा जा सकता है। यहंा एक गाने की सिचुएशन बन सकती है। हीरोईन यान के साथ-साथ रनवे पर भागती हुई नजर आएगी। यहंा वो भागने के साथ-साथ एक गाना भी गा सकती है। अंतरिक्ष में कुछ एक्शन सीन भी दिखाए जाएंगे। हीरो के सिर पर उल्कापिंड टकराने से उसकी याददाश्त भी जाती हुई बताई सकती है। फिर यहंा एक नई हीरोईन डाल दी जाएगी। उसे किसी और ग्रह की निवासी के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाएगा। एक-दो गाने यहंा भी हो सकते है। भारतीय फिल्म का मूल तत्व ‘प्रेम’, जो कथानक की मजबूरी के कारण दूर जाता दिखाई दे रहा था, वो इससे पास आ सकता है। हंा, अंत में भारतीय नायिका की जीत बताई सकती है।
भारतीय फिल्म बनाए और विलेन न हो। ऐसा नहीं हो सकता। एक विलेन का भी इंतजाम रखा जाएगा। जो मिसाईल के द्वारा ध्रुवों की बर्फ पिघलाने की योजना बना रहा हो। यहंा उसे हीरोईन को प्रेम करने का ’अतिरिक्त’ कार्य भी सौंपा जा सकता है। फिल्म के आखिरी दस-पन्द्रह मिनट में मिसाईल को चलाने के लिए सस्पेंस दृश्यों को डाला जाएगा। बार-बार यही दिखाया जाएगा कि मिसाईल चलेगी या नहीं। हालंाकि फिल्म देख रहे दर्शकों में बच्चों तक को इस बात की गारंटी होगी। कि भारतीय फिल्मों में डाइरेक्टर में इतनी ताकत नहीं है। कि वो ऐसा काम कर दे, जो हीरो की गरिमा के खिलाफ हो। अंततः विलेन को पीटकर हीरो झंाकी जमाएगा। यहंा विलेन की पिटाई भी होगी। हमारे यहां विलेन को पड़ने वाले लात-घूंसो की संख्या के आधार पर ही भुगतान किया जाता है।
हमारा देश समृद्ध धर्म व दर्शन का देश है। भले ही अंग्रेजी फिल्म में इतना विनाश बताया गया है। पर हम तो सदैव सकारात्मक रहे हैं। हम ऐसा नहीं कर सकते। भले ही पर्यावरण विदों के अनुसार भारी तूफान या बर्फबारी संभव हो, जिसका उपाय पर्यावरण-संतुलन में होगा। पर हमारे यहंा एक रामबाण उपाय
है, एक धार्मिक गाना, जिसके खत्म होते ही सब ठीक हो जाएगा। इसे नायिका या नायक की मंा से गवाया जा सकता है।
हालंाकि फिल्म के अंत को लेकर पर्यावरणविद चाहेंगे
कि फिल्म के अंत में एक अच्छा सा संदेश दिया जाए। अरे भई चाहते तो हम फिल्म वाले भी हैं। हरियाली की हमें भी बहुत जरूरत है। बाग-बगीचे नहीं रहेंगे तो हमारे हीरो-हीरोईन कहां नाचें-गाऐंगे। हर फिल्म में दो-चार गाने तो वहीं ही होते है।
अब संदेश को मारो गोली। दो घंटे से जो हीरो हीरोईन से बिछुड़कर पर्यावरण के लिए ऐसी की तैसी करा रहा था। उसे अब हीरोईन से मिलाना भी पड़ेगा। नहीं तो फिर यहंा दर्शक जूते फेंकने लग जाऐंगे।यहंा एक गाना भी होगा। सो अब हम तैयार हैं। दो हजार बारह में क्या होगा। यह तो भगवान ही जाने। पर इस बहाने एक फिल्म का ठीकरा आपके माथे फोड़ ही सकते हैं। तो फिर अब देखने के लिए तैयार हो जाइए। बस ‘असली’ दो हजार बारह उर्फ विनाश पर भारी प्रेम कहानी अब शुरू होने ही वाली है।
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रविवार, 15 नवंबर 2009

व्यंग्य सादगी: एक निबंध

जनसत्ता - अक्टूबर 09 में प्रकाशित




आजकल सादगी पर विशेष चर्चा हो रही है। बहुत बातें हो रही है। देश को आजाद हुए इतने वर्ष हो गए। आज तक किसी ने सादगी पर इतना जोर नहीं दिया। सो जहंा चारों ओर सादगी फैली तो स्कूल भला कैसे वंचित रहते। सो वहंा भी सादगी की हवा बह निकली। और नाना प्रकार की वाद-विवाद प्रतियोगिताऐं जो विषयों के लिए तरस रही थी, सादगी को पाकर धन्य हो उठी।
इसी सादगी पर देसी प्रतिभाओं ने कई निबंध लिखे। प्रस्तुत है उनमें से एक पुरस्कृत निबंध।
‘सादगी एक गुण है। पर हम इस पर बात करने से पूर्व इसकी परिभाषा का उल्लेख करेंगे। हालंाकि इस गुण का अविष्कार हाल ही में हुआ है। इसलिए इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा बताना मुश्किल है। फिर भी हम यह जरूर कह सकते हैं। कि सादगी गुण का प्रादुर्भाव हाल ही में हवाई जहाज के इकोनोमी क्लाॅस में सफर करने से व हवाई जहाज की जगह शताब्दी एक्सप्रेस में सफर करने से हुआ।
इसकी तुलना हम आर्किमडीज के ‘यूरेका-यूरेका’ से कर सकते हैं। उसे बाथटब में नहाते-नहाते अचानक ही सूझा। और एक नया अविष्कार हुआ। ऐसे ही सादगी का अविष्कार हवाईजहाज के इकोनोमी क्लाॅस के सफर से हुआ। एक ही यात्रा में समूचा देश इस बात से अवगत हुआ कि सादगी क्या होती है।
सादगी का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। छठी कक्षा

की सरल हिन्दी पुस्तकमाला के चालीसवें पन्ने पर लिखा है कि महात्मा गंाधी सादगी से जीवन व्यतीत करते थे। इससे सिद्ध होता है कि सादगी पूर्णतः गंाधी परिवार से जुड़ी हुई है। बहुत समय से यह विलुप्त हो गई थी। अब इसे सोनिया बहिनजी और राहुल भैया द्वारा प्रकाश में लाया जा रहा है।
सादगी वह गुण है। जिसमें लोगों से यह अपेक्षा की जाती है। कि वो अपने खर्चे कम करें। खासतौर पर हवाई यात्रा करते समय बिजनेस क्लाॅस की जगह इकोनोमी क्लाॅस में सफर करे। हो सके तो हवाई जहाज की जगह शताब्दी या राजधानी में सफर कर ले। विदेश यात्राऐं स्थगित की जाऐं। बंगलों की सजावट पर कम से कम खर्च करे। अपने बेकार के दौरों पर रोक लगाए।
इन सब तथ्यों से यही साबित होता है। कि सादगी कितना कठिन गुण है। यह वाकई तपस्या है। एक व्यक्ति हाई क्लाॅस छोड़कर कैटल क्लाॅस में जानवरों के बीच में सफर करे। कितनी बदबू आती है आम आदमी के शरीर में। जहंा पंाच साल तक कोई संासद, मंत्री अपने उपर आमजन की छाया तक नहीं पड़ने देता। वहंा यह वाकई कितना मुश्किल कार्य है।
जब आदमी चुनाव जीतता है। तो कितने संघर्ष के बाद यहंा तक पहुंच पाता है। अब वो चैन चाहता है। उसने यह सब क्यों किया। उसके चारों ओर भीड़ रहती है। वो जहंा जाता है गाड़ियों का काफिला, ढेरों सुरक्षाकर्मी, हेलीकोप्टर, हवाईजहाज आदि घेरे रहते हैं। सादगी इन सब चीजों का निषेध करती है। अब एक नेता के जीवन में यह सब कितना कठिन है। यह सब तो उसकी आत्मा में बसे रहते हैं। यह अलग हुए नहीं कि फिर जीवन में कुछ शेष नहीं रहता। इससे सिद्ध होता है कि सादगी सर्वाधिक कठिन गुण है।
अब एक सवाल और उठ खड़ा होता है। यह सवाल मेरे शिक्षा काल के हर निबंध में उठता है। ‘सादगी विज्ञान है या कला।’ अब ध्यान से देखने पर पता पड़़ता हैं कि यह विज्ञान तो बिल्कुल नहीं है। क्योंकि सातवीं कक्षा की विज्ञान की पासबुक व कुंजी दोनों में ही इसका जिक्र नहीं मिलता। हंा, यह कला अवश्य है। क्योंकि कला नहीं हो तो आदमी सादगी का पालन करते-करते ही मर जाए। कला से तात्पर्य यह है कि यह सादगी का जो अध्याय आजकल चर्चा में आ रहा है। वो यही है कि नेता भले ही कैसे ही जीवन-यापन करे। पर आम जनता को सादगी की प्रतिमूर्ति दिखे। एकाध बार दिखाने को कैटल क्लाॅस में सफर कर ले। काफिले की जगह एक गाड़ी से ही पहुंच जाए। कभी-कभार साईकिल-रिक्शे पर चढ़ जाए। दिल पर पत्थर रखकर आम लोगों के साथ खाना खाने बैठ जाए। कभी-कभार वातानुकूलित कक्षों का त्याग कर धूप-धूल में चले जाऐं। हालंाकि ऐसा करने से त्वचा को नुक्सान पहुंचने का भारी खतरा है। पर फिर भी सादगी तो निभानी है। विदेश यात्राओं में भी कमी करनी चाहिए। हालंाकि यह बड़ा मुश्किल काम है। फिर मन भला कैसे लगेगा। यहंा की जलवायु भला क्या खाकर इसका मुकाबला कर सकती है। पर देश की भलाई के लिए एकाध बार देशी जलवायु का भी सहारा ले लेना चाहिए।
अंत में यही कि हमें इस निबंध से यही शिक्षा मिलती है कि सादगी ही सर्वोत्तम नीति है। प्रत्येक नेता को इसका कड़ाई से पालन करना चाहिए। जो इस नीति का पालन करेगा। वो ही सोनिया दीदी व राहुल भैया के साथ परम सत्ता सुख का आनंद ले पाएगा। इसलिए सादगी का पालन करने में ही समझदारी है।
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व्यंग्य प्यारी दालों के नाम

प्यारी दालों, तुम ऐसी बेवफा निकल जाओगी। यह मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। तुमसे प्यारा तो मुझे जीवन में और कुछ लगा ही नहीं। क्योंकि मेरा और तुम्हारा तो जनम-जनम का साथ है। जबसे होश संभाला, तुम्हें ही तो इर्द-गिर्द पाया। गरीब की जिन्दगी में भला और हो भी क्या सकता है। कभी बापू को कहते देखता, ‘हंा, बस दाल-रोटी चल रही है।’ या लोगों को गाते सुनता, ‘दाल-रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ।’ इतने बरसों से सब ठीक चल रहा था। हम दोनों का साथ-साथ बिल्कुल ऐसा था। जैसे सूरज और किरन, समुद्र और लहरें। जहंा मैं पाया जाता था, वहां तुम भी बनी रहती थी। सब्जियों ने हमेशा मुझसे एक दूरी बनाए रखी।मैं दूर खड़ा-खड़ा ईष्या-भाव से उन्हें निहारता रहता था। इठलाती-बलखाती भिंडिया, गोल-मटोल आलू, फूल सी खिली हुई गोभी और मनिहारी मटर, अक्सर मुझे आर्कषित करती थी। टमाटर के गुलाबी गालों को देख उन्हें छूने का मन करता। पर दाम देखकर हिम्मत न जुटा पाता। ऐसा नहीं था कि मनमोहक सब्जियंा हमेशा ही इस गरीब की पहुंच के बाहर रही। कभी-कभी मौसम में बहुत ही सस्ती भी हो जाती थी। पर चूंकि आदत न बिगड़ जाए, इसलिए मन होते हुए भी नहीं लाता था। सोचता था, मेरा और तुम्हारा तो जनम-जनम का साथ है। एक पल भर के स्वाद-सुख के बदले भला मैं जन्म-जन्मंातर के संबंधों को दांव पर क्यूं लगा दूं। पर तुमने बदलते हुए ऐसा नहीं सोचा। तुम थोड़ी मंहगी हुई। मैंने सोचा कि प्यार में कभी-कभार ऐसा हो ही जाता है। रूठना-मनाना तो संबंधों में जीवन-भर चलता ही रहता है। पर मैंने तुम्हारी ‘थोड़ी नाराजगी’ की चिन्ता नहीं की। मैंने दाल बनाते समय पानी अधिक मिला लिया। तुम और मंहगी हुई तो और पानी डाल दिया। पर धीरे-धीरे तो तुम मेरी पहंुच से इतनी बाहर हो गई। और सब्जियों के साथ तो क्या तुम उनसे भी आगे जाकर खड़ी हो गई। मैं बस दूर खड़ा-खड़ा देखता रहता हूं। सचमुच जब नमक-मिर्ची के घोल से रोटी खाता हूं। तो तुम्हारी बहुत याद आती है। और फिर तुमक्या गई, जीवन में से सब चला गया। अब सभी ने साथ छोड़ दिया है। गेहूं अंाख दिखाने लगा है, तेल पहले से ही रूठ गया था। सस्ती सब्जियंा तो अब मौसम में भी नहीं रही। हरी मिर्ची, धनिया और लहुसन, जो गरीब की चटनी का सहारा होते थे, वे अब दूर हो गए हैं। शक्कर भी इतनी मंहगी हो गई कि नाम लेते ही मंुह में कड़वाहट घुल जाती है। मजदूरी का काम मिलना और मुश्किल हो गया है। तुम्हारे लिए मैंने क्या-क्या नहीं किया। सरकार के पास भी गया। उसने भी दिलासा दी। कि हम जल्दी ही वापस लाऐंगे। मैंने सोचा मेरी दुनिया फिर से आबाद हो जाएगी। पर अब तो सरकार ने भी हाथ खड़े कर दिए। साफ मना कर दिया। तो क्या हम हरदम के लिए जुदा हो जाएंगे। क्या गरीब और दाल के अमर प्रेम के संबंध हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे। फिर कहावतों का क्या होगा। तुमने तो इतिहास ही बदल दिया। और अब भला मैं क्या कहूं। भले ही मैं गरीबी की रेखा के नीचे बसर करने वाला गरीब हूं। पर हिन्दी फिल्में तो देखता ही हूं। सो चंादी की दीवार न तोड़ने वाली बेवफा। तू अमीरों की थाली में ही खुश रह। और अब इतने के बाद मैं कह भी क्या सकता हूं। सूखी रोटी खाओ और प्रभु के गुण गाओ। -----मोबाईल-- 094142 26981 शरद उपाध्याय, 175 आदित्य आवास गोपाल विहार, कोटा-1 324001