शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

खेलना मगर ध्यान से

दैनिक हिन्दुस्तान में 16.01.2010 को प्रकाशित व्यंग्य




आईऐ, राष्ट्र्मंडल खेल नगरी दिल्ली में आपका हार्दिक स्वागत है। हालंाकि खेल के प्रारंभ होने में अभी महीनों बाकी है। हमारी तैयारी जोरों पर है। रोजाना बयान आ रहे हैं। हम तो तैयार हैं। पर आप लोग, जो विदेश से यहंा खेलने आ रहे हैं। आपका शारीरिक व मानसिक रूप से तैयार होना जरूरी है ताकि आप इस देवताओं की भूमि पर खेलने लायक बन सके।
यदि आप रेलवे स्टेशन पर उतरेंगे। तो भीड़ को हार्दिक स्वागत करते हुए पाऐंगे। इतने सारे प्रशंसक देखकर आप घबरा जाऐंगे। आप पाऐंगे कि जितना आप बाहर निकलने की कोशिश कर रहे होंगे, उतनी ही ताकत से ये आपको अंदर धकेल रहे होंगे। अब आपकी संघर्ष दिखाने की बारी है। अब आप जोर लगाइए। हंा, यहंा हो सकता है। कि आपके कपड़े फट जाऐं या चोट लग जाए। हो सकता है, आप उतर ही न पाऐं। पर आप हिम्मत नहीं हारियेगा। अभी तो बहुत संघर्ष बाकी है।
आप जब स्टेशन से बाहर आऐंगे। तो बहुत से लोग आपके पीछे पड़ेगे। वे आपको आपकी मंजिल तक पहुंचाने के लिए इतने प्रतिबद्ध हैं। कि आपस में लड़ भी सकते हैं। यह ‘अतिथि देवो भव’ का नायाब नमूना है। खैर, अब जैसे-तैसे आॅटो-टैक्सी वालों के चंगुल से छूटोगे तो हो सकता है। आपके सामने ‘लो-फलोर बस’ आ जाऐ। आप चाहो तो इसमें चढ़ सकते हो। लेकिन आग बुझाने के साधनों के साथ चढ़ना। अपने घर से फायर-प्रूफ जैकेट लेकर चलना, क्योंकि इसमें आए दिन आग लगती रहती है। हंा, ब्लू-लाईन बसों से दूर रहना। क्योंकि अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है। उसमें चढ़कर तो तुम्हें लगेगा कि संसार वाकई नश्वर है। क्योंकि वहंा कुछ भी हो सकता है।
अब तुम आ जाओगे। अपनी खेल-प्रतियोगिताओं के मैदान में। नए-नए स्टेडियम और इमारतें तुम्हारा भव्य स्वागत करेंगी। तुम सब-कुछ नया-नया देखकर होश खो बैठोगे। तुम अति उत्साह में आ जाओगे। पर थोड़ा ध्यान रखना। गोला-वोला, जो भी फेंकना हो, थोड़ा धीरे-धीरे फेंकना। यह क्या है कि तुम्हारे आने से चंद घंटे पहले ही तैयार हुई है। और तुमने कुछ अधिक जोश दिखाया तो प्लास्टर बाहर आ जाएगा। और इससे तुम्हारा तो क्या जाएगा। एक तो देश की किरकिरी होगी और एक गरीब ठेकेदार ब्लैक-लिस्टेड हो जाएगा। भले ही देश का नहीं तो उस गरीब का तो ख्याल रखो। क्यूं बिचारे के पेट पर लात मार रहे हो।
खेलोगे तुम ही। पदक भी तुम्हें जीतने हैं। हम तो वैसे भी दार्शनिक हैं। हमारे लिए ये स्वर्ण, रजत सभी मिटट्ी हैं। हमें कोई मोह नहीं है। तुम आराम से जीत लेना। ज्यादा दम लगाने की जरूरत नहीं है। हमारा पर्यावरण में प्रदूषित गैसें ज्यादा हैं। कहीं दम फूल गया तो फिर परेशानी में पड़ जाओगे।
अब खेलकर जाओगे। तो कम से कम कुछ जगह तो घूमना चाहोगे। खूब घूमो, हमारे यहंा बहुत लोग आते हैं। हंा, थोड़ा बटुआ वगैरह संभालकर रखना। कीमती सामान लेकर मत निकलना। खरीददारी करने का मन है। कुछ निशानी लेकर जानी है। तो जरूर खरीदना पर थोड़ा ध्यान रखना। तुम्हारी चमड़ी देखकर बिचारे गिनती भूल जाते हैं। और इन्हें केवल यह याद रहता है। कि गणित में केवल गुणा का प्रयोग ही किया जाता है। यदि ये किसी चीज की कीमत सौ रूपए बोले। तो तुम दस की बात करना। हंा, दस में भी नुक्सान हो। तो हमारी जिम्मेदारी नहीं है।
अब तुम्हारे जाने का दिन भी आ जाएगा। अब अतिथि से जाने के लिए कहना तो बिल्कुल गलत है। पर भैया हमारे यहंा इतने दिन का अरेंजमेंट है। हम तो रोक भी लेते। पर फिर क्या सावे भी शुरू होने वाले हैं। हमने ये शादी के लिए किराए पर दे रखा है। अब तुम आश्चर्य मत करना। क्या कहा आगे के खेलों के लिए। अरे भैया, यह तो प्राईवेट काम है। तब तक तो हड़प्पा की तरह लगने लगेगा। अगले खेलों का तो बजट अलग ही रहता है। वहंा फिर नए बनाऐंगे। फिर तुम भी जरूर आना। हमारे यहंा तुम्हारा भव्य स्वागत है

सवाल एक पद का

अमर उजाला में 12.01.2010 को प्रकाशित व्यंग्य



वो मुझे बहुत अच्छी तरह जानता था। बल्कि यूं कहिए, वो मेरी सात पुश्तों तक से परिचित था। हमारे संबंधों का स्तर इसी बात से पता चलता है कि उसे यह भी मालूम था कि मुझे मूंग व उड़द की दाल की तुलना में अरहर की दाल अच्छी लगती थी। पर जब वो सामने पड़ा तो बिना नमस्कार लिए निकल गया। उसकी इस हरकत से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। यह स्वाभाविक था। अब मैं उस पद पर नहीं रहा था, जिस पर उसका काम पड़ता रहता था।
क्या करंे, पद चीज ही ऐसी है। पद पर रहे तो सब पूजते हैं। पद से उतरे नहीं कि सामने वाले कि सामने वाले की श्रद्वा आदि सब गायब हो जाती है। पूजा-अर्चना, भेंट-चढ़ावा सब इतिहास के अंग बन जाते हैं।
लेकिन केवल पद पर रहना, व्यक्ति को जमीन से उपर नहीं रखता, उसके लिए ‘काम’ का पद होना भी आवश्यक है।
भगवान की दया से और आर्शीवाद से मुझ गरीब के पास भी एक काम का पद था, किन्तु एक दिन अचानक वो पद जाता रहा और मुझे लगा, सब कुछ बदल गया। वो, जो मेरे न चाहते हुए भी निकटस्थ था, अब लाख चाहने के बाद भी ‘दूरस्थ’ हो गया। वो जो मेरे पास घंटों बैठे हुए ‘मन बहलाता‘ रहता था, अब नमस्कार करने के लिए समय का अभाव प्रदर्शित करने लगा।
पहले वो मेरे पास आकर चुपचाप बैठ जाता था। मुझे नाना प्रकार के आदरणीय संबोधनों से महिमामय कर देता था। कभी-कभी उसकी बातों से मुझे लगता था कि मैं ‘स्वर्गमय’ हो गया हूं व मैंने अपने ग्राहकों के लिए देवता का अवतार धारण कर लिया है।
वो मेरा ‘अपनों’ से भी अधिक अपना था। मेरे बच्चों की पढ़ाई की जितनी चिन्ता उसको थी, उतनी स्वंय बच्चों को नहीं थी। कभी मेरा कोई परिवारजन बीमार पड़ता, तो वो खाना-पीना छोड़ देता। कई बार मैंने, उसी के पैसों से प्रायोजित ‘जूस कार्यक्रम’ द्वारा उसका ‘आमरण अनशन’ तुड़वाया। कभी मेरे किसी रिश्तेदार की मृत्यु हो जाती तो मैं उसे संात्वना दिलाते-दिलाते थक जाता। मुझे उसे बतलाना पड़ता कि यह संसार का नियम है, जो व्यक्ति इस संसार में आता है, उसे जाना ही पड़ता है। दुख करने से कोई लौट नहीं सकता, किन्तु वह ‘भौतिकवादी’ बड़ी मुश्किल से मेरे अध्यात्म को समझ पाता।
मेरी पत्नी को कौनसी कंपनी की साड़ियंा अधिक आर्कषित करती थी, यह उसे पता था। अपने सामान्य ज्ञान का प्रदर्शन वो समय-समय पर करता रहता था। बच्चों का वह ‘सर्वप्रिय अंकल’ उनकी गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकार्डस में लगातार ‘सर्वश्रेष्ठ अंकल’ का खिताब जीतता रहता था। बच्चों के सभी खेलों की विस्तृत जानकारी उसके दिमाग में फीड थी। और वो अपने बच्चों को भले ही समय न दे। लेकिन मेरे बच्चों को कभी इस बात की शिकायत नहीं होने दी। बीवी और बच्चों की जन्मतिथि उसे कंठस्थ थी। जन्मदिन पर सबसे पहले बधाई का हक उसी का रहता था और उसके रहते हुए इस अधिकार को कोई भी हासिल नहीं कर पाया था। केक, मोमबत्ती, डेकोरेशन और गिफट सब उसी का काम था।
मुझे चिंता है अपने दादाजी की आयुर्वेदिक दवाइयों की, जिसकी अनवरत आपूर्ति अब उसके अभाव में कैसे संभव हो पाएगी। आज तककभी ऐसा नहीं हुआ। कि दादाजी के इलाज में कोई कोताही हुई हो। दवाईयां लाते-लाते वो खुद ही छोटा-मोटा वैध बन गया था।
किन्तु अब किया क्या जा सकता है। पद जाते ही मन स्वतः दार्शनिक बन गया है। बुद्व कह गए हैं कि परिवर्तन संसार का नियम है। कोई वस्तु अथवा पदार्थ स्थाई नहीं रहता। ‘पद’ भी एक अस्थाई पदार्थ है। अतः उसके लिए क्या दुख करना। जब बड़े-बड़े दिग्गजों के नहीं रहे तो अपन तो क्या हैं।
जब बड़े-बड़े लोग पदों पर रहने के बाद नीचे आते हैं तो वे भी तो अपने आपको संात्वना दिलाते हैं। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री व मंत्री आदि स्तर के लोग भी तो जीते ही हैं। सो इन्हीं महान पुरूषों से शि़क्षा लेकर डटा हुआ हूं। बस अब तो इस आस में जिंदा हूं कि कब पुनः लाभ के पद की प्राप्ति हो और पत्नी, बच्चों व दादाजी के मुरझाऐ हुए चेहरों पर बहार आ सके। कब बच्चों के सर्वप्रिय अंकल उनके लिए दिन-रात सौगातें लेकर आऐंगे। कब बीवी की शापिंग लिस्टें सक्रिय होगीं। कब दादाजी प्यार से उसके हाथों से खुराक का स्वाद चखेंगें। मुझे विश्वास है। यह दिन जल्दी ही आएगा।यदि बसंत के बाद ‘पतझड़’ आती है तो पतझड़ के बाद पुनः एक दिन बसंत आएगी। अब ये कब आएगी, यह कौन बता सकता है। मेरे हाथ में तो इंतजार करना है और वो मैं कर रहा हूं।

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मुझे पुरस्कार मिलना

हम लोग डेली न्यूज में 10.01.2010 को प्रकाशित

आखिर बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया। एक दिन सोकर उठा मेरे लेखकीय जीवन की अदभुत घटना घट चुकी थी। मैं पुरस्कृत हो चुका था। बहुत दिनों से मन में इच्छा थी कि पुरस्कृत हो जाउं। लिखते-लिखते इतने दिन हो गए थे। लोग भी शक की निगाह से देखने लग गए थे।
जब भी किसी को पुरस्कार मिलता। परिचित मुझसे व्यंग्यात्मक स्वर में पूछते, ‘क्या बात है, काफी दिनों से आपका नबंर नहीं लग रहा। सबको मिल गया।‘ पत्नी तक नाराज थी। ‘पता नहीं कागज काले-काले कर क्या करते हैं। अब तो कहीं से जुगाड़ कर लो। मायके वाले बार-बार पूछते हैं। मुझे तो बड़ी शर्म लगती है। पापा तक कहते हैं कि किसी से कहलवाना हो तो मैं कहूं क्या।’
मैं क्या जवाब देता। मैं भी बहुत कोशिश में था, पर कोई देने को तैयार ही नहीं था। कई बार बहुत नजदीक तक पहुंचकर भारतीय क्रिकेट टीम की तरह वंचित रहा। शहर में पुरस्कृतों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। जो पुरस्कार पा चुके थे वे मुझे हेय दृष्टि से देखने लगे थे।
इन दिनों मैं खूब लिख रहा था, छप भी रहा था। मैं बार-बार उनके सामने अपनी रचनाऐं लेकर जाता था। पर वे उसे छूते तक नहीं थे। वे अपने लेखन को कालजयी मानते थे। उन्हें मेरा लेखन क्षणिक लगता था। वे सदैव मुझे ऐसा लिखने को कहते थे जो लोगों को जगा सके। पर मेरे बारे में सदैव यही मानते थे कि जब मैं स्वंय ही सोया हुआ हूं तो भला लोगों को कैसे जगा सकता हूं।
पर अंततः वो दिन आ ही गया। मुझे पुरस्कार मिल गया। मुझे लगा मेरी जैविक गतिविधियंा बदल चुकी है। पुरस्कार पाकर मुझे वही
अनुभूति हुई। जो संभवतः बुद्ध को बोधिज्ञान पाने के फलस्वरूप हुई होगी।
पुरस्कृत लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनकी नजर में कल तक तो ऐसा कुछ था नहीं। साहित्य तो कहीं से पुरस्कार मिलने लायक नहीं था। शक्ल से जुगाड़ लायक आदमी भी नहीं लगता। पर हो सकता है। आजकल कुछ कहा नहीं जा सकता। किसी के चेहरे पर लिखा तो नहीं है। कहीं पैसे-वैसे का चक्कर तो चला नहीं लिया। शुरू में वे असहज रहे। पर क्या कर सकते थे, मजबूरी थी, अब मिल ही गया था, सो उन्हें अपनी बिरादरी में शामिल करना ही पड़ा।
इधर मेरे हाव-भाव भी बदल गए। कल तक, मैं भी पुरस्कार को साहित्य का मापदंड नहीं मानता था। जब भी कोई पुरस्कार की बात करता तो मैं फौरन लड़ने वाली स्थिति में आ जाता था। पर अब मुझे लग रहा था कि वाकई पुरस्कार के बिना साहित्यकार का आकलन नहीं हो सकता। एक पुरस्कृत व गैर-पुरस्कृत में तो जमीन-आसमान का अंतर होता है। कल तक मैं पैदल चलता था तो मेरे कदम बड़ी मुश्किल से उठते थे। आज मुझे लगने लगा कि मैं हवा में तैर रहा हूं।
लोग, जो मेरे नजदीक थे, वे और नजदीक आए। लोगों के पास आने से मुझे अपनी गरिमा का बोध हुआ और मैं थोड़ा उपर हो गया। उपर होने से मुझे नीचे के लोग छोटे-छोटे दिखने लगे। जिससे मुझे बड़े होने की गलतफहमी हुई।
अब चूंकि मैं पुरस्कृत हो चुका था। तो लोग मेरे पास आने शुरू हो गए। मेरे साथ वाले भी कहने लगे, ‘अब तो आपका सम्मान हो ही जाना चाहिए।’
मैंने भी उनकी बातों का समर्थन किया। ‘हंा, अब तो हो ही जाना चाहिए।’ बरसों से दूसरों का सम्मान कर-करके परेशान था। दूसरों को माला पहनाते-पहनाते हाथ दुखने लगे थे। अब तो गर्दन में भी खुजली चलने लगी थी।
पत्नी ने भी इसे सहजता से लिया। ‘हंा, मिल गया, अच्छी बात है। बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था। पापा की बात मानते तो बहुत पहले ही दिला देते। इनकी तो आदत ही बहुत खराब है। किसी का अहसान लेना ही नहीं चाहते। खासकर मेरे घरवालों का तो बिल्कुल नहीं।’ अड़ौस-पड़ौस वालों ने भी मान लिया कि मैं भी कुछ हूं।
पर मुझे इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं जान गया हूं। यह शरीर मात्र मिटट्ी है। यह संसार चार दिनों का मेला है। तीन दिन तो पुरस्कार पाने के चक्कर में चले गए। अब एक दिन बचा है, तो क्यों न पुरस्कार रूपी ‘निर्वाण’ का सुख भोग हूं। सो आजकल मैं इसी में मगन हूं। कोई भला कुछ भी कहे।

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मजबूरी में आ गई कार

नवभारत टाईम्स में 5.01.2010 को प्रकाशित व्यंग्य


आजकल कुछ समझ ही नहीं आ रहा। पत्नी का मन करता है। कि कार ले ली जाए। बच्चेका मन करता है कि लैपटाॅप ले लूं। तो मेरा मन करता है कि गरमी बहुत लगती है। तो एक ए.सी. ही लगवा लूं। बच्ची का मन एक वीडियो कैमरा लेने का कर रहा है।
आप सोच रहे होंगे। कि क्या इस बार मेरी कोई लाटरी ही निकल गई। पर ऐसा कुछ नहीं है नहीं जनाब यह सारी महिमा किश्तों की है। जिनकी वजह से आजकल मैं ऐसे सपने देखने की हिम्मत कर पा रहा हूं। मेरी भी हालत अजीब सी है। मेरी जेब में एक भी पैसा नहीं हैं। मैं बहुत समझा रहा हूं। पर बाजार में सुनने वाला नहीं है। मैं कह रहा हूं। भई कहंा से चुकाउंगा। पर वे हंस रहे हैं। अरे सब आ जाएगा। आप तो बस ले जाऐं।
मैं भ्रमित हूं। क्या ले जाउं, क्या नहीं ले जाउं। पत्नी व बच्चों की अलग-अलग फरमाईशें है। मैं परेशान हूं। पर देने वाले परेशान नहीं है। वे कहते हैं। सब ले जाउं। अरे भाभीजी कह रही है, बच्चे कह रहे हैं, उनका दिल मत तोड़ो। भाभीजी तो साक्षात देवी हैं और बच्चे तो भगवान के रूप हैं। आप भला उनका दिल कैसे दुखा सकते हैं।
उनकी बात सुनकर मैं चकरा जाता हूं। पत्नी मेरी है, कभी मैनें इतनी चिन्ता नहीं की। बच्चों के बारे में भी वे सोच रहे हैं। बस ले जाइए। क्या है, मामूली सी किश्तें हैं। चैक दिए और फ्री हो लिए।
मैंने दोनों जेबें उसके सामने खाली कर दी। भई कुछ भी नहीं है। पर वो सुन ही नहीं रहा। कोई बात नहीं हंड्र्ेड परसेंट फाईनेंस करने को तैयार है। वो चीजें ही नहीं बेच रहा, दार्शनिक भी है। अरे ले जाओ भाईसाहब। क्या कहा आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। अजी साहब, आजकल आर्थिक हालत तो पूरी दुनिया की खराब है। आप अपनी बात कर रहे हैं। अब अमरीका को ही लो। साहब जो पूरी दुनिया पर राज करता था। आज लोंगो के सामने हाथ पसारे खड़ा है। पर क्या लोग वहंा नहीं जी रहे। आज भी साहब मजे से जी ही रहे हैं। खूब खा पी रहे हैं। अब भाई साहब, भाभीजी की इतनी इच्छा है। कार लेने की तो ले ही लीजिए। कम से उन्हें सोसायटी में नीचा तो नहीं देखना पड़ेगा।
पत्नियंा, जिन्हें कि प्रायः पति को छोड़कर सारी दुनिया की बात सही लगती है।उसे भी लगने लगा कि कार से सार्थक वस्तु तो इस दुनिया में बनी ही नहीं। पर फिर बात पेट्र्ोल पर आकर अटक जाती है। मैं समझाता हूं। कि कार लेना कोई बड़ी बात नहीं है। पर पेट्र्ोल और रखरखाव में बजट धराशायी हो जाएगा। बीवी भी बिचारी इच्छा होते हुए भी चुप रही। पर बेटी फरमाईश कर बैठी।
फिर क्या था, दुकानदार पीछे ही पड़ गया, ‘अजी साहब, अब तो ले लीजिए, बेटी कह रही है। आज थोड़ा घूम भी लेगी, कल से पराए घर जाना है। वहंा पता नहीं कैसा घर मिले। आज आप के राज में थोड़ा सुख भोग लेगी। कल का किसे पता नहीं।’
पत्नी भावुक हो गई। ‘सच कह रहे हो, पर भाईसाहब। पर ये तो कभी ऐसी बात सोचते भी नहीं।’
मैं भला क्या कहता। चुप रहने में ही भलाई थी।
आधुनिक अर्थव्यवस्था का नया रूप था। सब कुछ जायज था। बस चिन्ता एक ही थी कि किसी तरह माल बिके।
पर पत्नी भी कह उठी,‘ वैसे आप सही कह रहे हो भाई साहब पर बात यह है कि इतने रूपयों की किश्त कैसे अफोर्ड कर पाऐंगे। हमें तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा।’
वो खिल उठा।,’ आप अच्छी चिन्ता कर रही हैं बहिनजी। हम काहे के लिए हैं। हम हैं ना। किश्तों का समय बढ़वा देंगे। एकदम कम बोझ पड़ेगा। अरे बहिनजी किश्त देने वाले हम थोड़े ही हैं। सब भगवान देता है। उसकी मर्जी के बिना आप गाड़ी ले सकते हैं क्या। जिसने चोंच दी है, वो चुग्गा भी देगा।जो गाड़ी दिलाएगा, वो किश्त का भी जुगाड़ करेगा।’
अंततः क्या करते। लेनी ही पड़ी। सो बस आजकल यही चल रहा है। पूरा बाजार पीछे पड़ा है। अखबार इन्हीं चीजों से हुआ है। ‘इतने कम दामों में पहली बार’ ‘टी0वी0 के साथ डी0वी0डी0 फ्री’ या ‘ करोड़ों के ईनाम’ं। आदमी भी कहंा तक संघर्ष करे। किश्तों के सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं। परिवार भी क्या करे। बस कागज-कलम लेकर बैठा है। रोज नई-नई गणित लगाते हैं। तन्खवाह में से इतने पैसे किश्त में गए। तो बाकी में खर्चा चल ही जाएगा। कैसे भी गुजारा कर लेंगे। दो हजार रूपए की तो बात है। दादाजी वाला कमरा किराए पर दे देंगे। उनका सामान दुछत्ती में शिफट कर देंगे। और कुछ खर्चे कम कर देंगे। कम से कम सामान तो आ जाएगा।
सो आजकल सब-कुछ किश्तमय हो रहा है। आप मुझ पर हंस रहे हैं। पर जनाब, आप अपने आपको देखिए। मुझे तो आप भी किश्तों के भंवर में ही डूबते नजर आ रहे हैं।

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सरदी का एक दिन

अमर उजाला में 30.12.2009 को प्रकाशित


रोजाना की तरह आज भी लेटा। सबसे पहले रजाई में से मुंह निकाला। लेकिन सर्द हवा के कारण उसे पुनः रजाई में देना पड़ा। पर हर स्थिति का एक अंत होता है, सो उठना ही पड़ा। घर का फर्श बर्फ की चटट्ानों सा प्रतीत हो रहा था। बाहर निकलकर देखा सूरज भी मेरी तरह ठिठुर रहा था।
दो-तीन चाय पीकर शरीर इस हालत में आया कि वो थोड़ा हिल सके। शरीर में हरकत होने से श्रीमतीजी का नहाने संबंधी प्रस्ताव आया, जिसे मूल्यवान जल का महत्व समझाते हुए नकार दिया। मैं अपनी इस उपलब्धि पर बहुत खुश था, लगातार सात दिन न नहाकर मैंने कितने अमूल्य जल की बचत की थी।
तभी पत्नी ने मुझे फ्रिज से आटा व सब्जी निकालने को कहा, मैं कंाप गया। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। सो मैंने शरीर को भली-भंाति कम्बल में लपेटा व सावधानी से फ्रिज का दरवाजा खोला। ढके होने के बावजूद शीतलहर का झोंका शरीर को ठिठुरा गया। मैं फौरन रजाई में घुस गया।
थोड़ी देर बाद श्रीमतीजी नाश्ता लेकर आई। सर्दी के दिनों में डाईनिंग-रूम वीरान पड़ा रहता है। बेडरूम का कार्यभार अधिक बढ़ जाता है। नाश्ते के बाद एक नींद लेकर मैंने खाना भी वहीं खाया। आफिस का सही समय निकले एक घंटा बीत चुका था। श्रीमतीजी दुश्मन की तरह मुझे बार-बार आफिस की याद दिला रही थी। क्या करूं, मजबूरी में जाना ही पड़ा।
नाना प्रकार के वस्त्रों में लद-फदकर मैं आफिस की ओर चल पड़ा। मुझे लग रहा था कि बुलेट प्रूफ कपड़े ऐसे ही होते होंगे। अगर गोली भी घुसेगी तो शरीर को नहीं छू पाएगी।
आफिस पहुंचा तो डेढ़ घंटे लेट हो चुका था। चपरासी वहीं धूप में स्टूल लगाकर बैठा हुआ था।
‘क्या बात है बाबूजी, आज जल्दी आ गए। अभी तो कोई नहीं आया।’
मुझे पत्नी पर गुस्सा आ गया। इतनी जल्दबाजी भी ठीक नहीं है। ये शर्मा व वर्मा तो बिस्तर में दुबके रहे होंगे। और यहंा हम सर्दी में परेशान हो रहे हैं। हम भी कोई कम थोड़े ही है। मैंने चपरासी को आवाज लगाई और कुर्सी धूप में निकालने को कहा। चपरासी निरपेक्ष भाव से मुझे देखता रहा। शायद आवाज उसके कानों तक पहुंचने से पहले जम गई थी। हारकर मैं ही कुर्सी निकाल लाया। लंच टाईम तक काफी लोग आफिस आ चुके थे।
कुछ लोग काम के लिए आए भी, उन्हें शीतलहर खत्म होने के बाद आने को कहा। क्या करें, ठंड के मारे पेन ही नहीं खोला जाता। फाईलों के फीते ठिठुरन के मारे खुल ही नहीं पाते। लोगों को भी चैन नहीं है, भरी सर्दी में काम के लिए चले आते हैं।
जाने कैसे आफिस में टाईम पास होता है। मैं ही जानता हूं। सब कुछ चाय के ही सहारे चल रहा है। चाय नहीं होती, तो कैसे पार पड़ता। सूरज छिपने से पहले ही पंछी घोंसलो की ओर चल दिए। शाम की चाय पीने के बाद फिर बिस्तर में घुस गया। फिर खाने की बात होने लगी। बातों की शुरूआत स्वास्थ्य निखारने की बातों से होती है। हरी सब्जियों से प्रारंभ होती हुई फिर नाना प्रकार के पराठों पर खत्म हो जाती है।
सो इसी तरह चल रहा है। ठंड के मारे सारा देश कंाप रहा है। सारा काम ठप्प पड़ा है, लाख कोशिश कर रहे हैं पर हाथ है कि बाहर निकलने का नाम ही नहीं लेते। क्या कह रहे हैं, आप कोशिश करके देखेंगे। अरे रहने दो, थोड़ी गर्मी आ जाने दो, क्यों परेशान हो रहे हो। थोड़े दिन काम नहीं करेंगे तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। सो बस बैठे हैं।


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नए राज्यों की दौड़ में चांदनी चैक

नवभारत टाईम्स में 29.12.2009 को प्रकाशित व्यंग्य





तेलगांना के नए राज्य की घोषणा से नए-नए राज्यों की मंाग शुरू होने लगी है। इसी तरह चलता रहा तो आने वाले बीस-तीस सालों में देश का न जाने क्या होगा। प्रस्तुत है सन दो हजार पचास में चांदनी चैक के एक वरिष्ठ नेता का आत्मकथ्य।
‘‘सचमुच समझ में नहीं आता। क्या किया जाए। लोग हमारी मंाग को नाजायज बताते हैं। लेकिन यह बिल्कुल गलत है। हमारे इलाके को राज्य का दर्जा मिलना ही चाहिए। पहले ही दिल्ली चार राज्यों में बंटा है। यदि एक राज्य और हो गया। तो किसी का क्या जाएगा। जब पूरा भारत सैकड़ों राज्यों में बंटा हुआ है। तो एक हमारे साथ अत्याचार क्यों किया जाए। अब मुम्बई को ही लो। मराठी-मानुष करते-करते अब वो तो पंाच राज्यों में बंट चुकी है। सुना है अब वहंा भी अंधेरी को दो राज्यों में बंाटने की मुहिम चल रही है। अंधेरी-पूर्व और अंधेरी-पश्चिम।
इसलिए हमें ही लग रहा अब वक्त आ गया है। कि हम इस बात के लिए संघर्ष करना शुरू कर दें। जब इन्होंने कनाट प्लेस को नया राज्य बना दिया तो हम चंादनी चैक वालों ने क्या बिगाड़ा। यहंा हम सैकड़ों साल से पिसे जा रहे हैं और ये नए-नए मोहल्ले राज्यों का दर्जा पा जाते हैं। अब साहब, आप ही देखिए, हमारे साथ कितने अत्याचार किए जा रहे हैं। सबसे ज्यादा पर्यटक हमारे यहंा घूमने आते हैं। कोई लाल-किले में गंदगी फैला रहा है, तो कोई जामा-मस्जिद जा रहा हैं। कोई यहंा पराठे खाने आ रहा है। तो कोई लस्सी सुड़क रहा है। अरे, भई परेशानी तो हमीं को होती है। हमारे यहंा तो भीड़भाड़ बढ़ती जा रही है।
अब कितना अच्छा होगा। जब चंादनी चैक में
विधानसभा हो जाएगी। हमारा अपना मुख्यमंत्री होगा। कोई भी हो सकता है। इस बात पर अभी बहस शुरू करना नहीं चाहते। नहीं तो फिर अभी मीडिया विरोध शुरू कर देगी। कि हमने सत्ता पाने के लिए ऐसा किया है। भई, हम तो विकास के मुदद्े को लेकर यह प्रस्ताव लाए हैं। आप हंस रहे हैं, अरे भई अब हमारा विकास होगा। तो क्या पूरे देश का विकास नहीं होगा। कोई हम देश से अलग हैं। हमारे पास पूंजी आएगी तो देश में ही तो इन्वेस्ट करेंगे। बिल्कुल ठेठ देसी आदमी हैं। कोई विदेश लेकर थोड़े ही भाग रहे हैं पूंजी को। अपने चंादनी चैक में कितनी जरूरत है पैसों की।
और फिर कितने कार्यकर्ता हैं। आज इनके मन कितने उदास हैं। जब ये कनाॅटप्लेस वाले कार्यकर्ताओं को लाल बत्ती की गाड़ी में घूमते देखते हैं। तो इनके सीने पर संाप लोट जाता हैं। दिल उदास हो जाता है बिचारों को। ये कल के छोकरे कनाटप्लेस के नए राज्य बनने के कारण विधायक बन बैठे। और बरसों से यहंा जूते घिस रहे हैं। तो यहंा कुछ नहीं हो पा रहा। भई मन तो सभी का करता है। हमने भी जनता की सेवा में जीवन झोंक दिया। अब हमारा मन भी तो सम्मान पाने को करता है।
सो अब हमने पक्का फैसला कर लिया है। बस फौरन मंाग करने वाले हैं। अभी पान की दुकान पर नत्थू से चर्चा की तो वो भी इस बात के लिए राजी था। कि अब तो चंादनी चैक को नए राज्य का दर्जा दे दिया जाए। कार्यकर्ताओं से भी बात चल रही है। वे भला क्यूं मना करेंगे। वो तो बिचारे हाईकमान के आगे कभी कुछ नहीं कहते। और फिर हम ऐसा कर रहे हैं तो कोई हमारा अकेले का फायदा थोड़े ही है। हम तो सदैव से बहुजन-हिताय के लिए सोचते रहते हैं।
अब आप सोच रहे हैं जब हमने सोच ही लिया है। तो फिर परेशानी किस बात की है। फिर मंाग काहे नहीं कर रहा है। प्रधानमंत्री मना करेंगे। नहीं-नहीं, वो बात नहीं है। प्रधानमंत्रीजी तो भले आदमी हैं। कुछ नहीं कहते, देश में कहीं से कोई भी उठकर चला जाता है। वो फौरन दे देते हैं। बहुत अच्छे मन के हैं। किसी का दिल नहीं दुखाते। आप सोच रहे होंगे। जब सब-कुछ ठीक है। तो फिर परेशानी किस बात की। अजी साहब, सही बात तो यह है। कि हमारे देश में एकता ही नहीं है।। इधर हम चांदनी-चैक में नए राज्य की बात कर रहे हैं, सोचते हैं चलो मोहल्ले का विकास हो जाए। पर उधर ये लाल-किले वाले हमारे रास्ते में रोड़े अटका रहे हैं। सुना है वो भी अलग राज्य की मंाग करने वाले हैं। कहते हैं कि लाल-किले पर हर साल प्रधानमंत्री झंडा फहराते हैं। इसी हिसाब से उनका भी एक अलग राज्य का हक बनता है।
और फिर मैं जानता हूं। कि कोई लाल-किले वाला इसकी मंाग नहीं कर रहा। पर ये परसादी लाल मुख्यमंत्री बनने के चक्कर में है। भई हम तो कहते हैं। कि चलो मिल-बैठकर बात कर लेंते हैं। भाई-भाई हैं, कुछ भी समझौता कर लेंगे। पर वो मान ही नहीं रहा।अब प्रधानमंत्रीजी तो ठहरे भले मानुष। अगर जोर देंगे तो वे लाल किले को भी अलग राज्य बना देंगे। लेकिन इससे देश की एकता और अंखडता को कितना खतरा है।
पर साहब अब हमने सोच लिया, जो सोच लिया।कोई हमने अकेले ने ही थोड़े देश की एकता का ठेका ले रखा है। हम तो जा रहे हैं बस मंाग करने। बस अब नए राज्य चंादनी चैक की घोषणा होने ही वाली है। सो तैयार हो जाइए।

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विज्ञापन और मेरी परेशानियां

दैनिक भास्कर: 28.12.2009 को प्रकाशित व्यंग्य




मुझे समझ में नहीं आता, मैं क्या करूं। आखिर बात ही ऐसी है। विज्ञापनों ने मेरी परेशानियंा बढ़ा दी हैं। मैं लाख अपने पर नियंत्रण रखने की कोशिश करता हूं। पर हो नहीं पाता।
किंतु इसमें मेरी गलती नहीं है। मैं सीमित बजट वाला आदमी। भले ही दो समय भरपेट रोटी नहीं खा पाता। लेकिन जैसे ही कैटरीना कैफ मुझसे टी0वी0 पर कहती है। कि तुम यह क्रीम लगाओ। तो मैं भला कैसे इंकार कर सकता हूं। और फिर मैं कहूं भी क्या। कितने प्यार से देखती है वह। आंखों में आंखे डालकर, मुस्कराती हुई। इतने प्यार से तो कभी बीवी ने नहीं देखा। उसने तो अपना सारा समय लड़ाई में ही बिताया। सो मैं मजबूर होकर क्रीम खरीद बैठता हूं।
वाकई बहुत ही अच्छा लगता है। नहीं तो हम तो अपने जमाने में हीरोईन की मुस्कराहट देखने के लिए तरस जाते थे। पर अब जमाना कितना बदल गया है। एक बीस-पच्चीस रूपए की क्रीम के लिए खुद कैटरीना कैफ बोल रही है। सचमुच मेरी तो अंाखें ही गीली हो जाती है। कितनी मजबूर होगी नहीं तो कोई ऐसे बोलता है क्या। और फिर हम गप तो मार नहीं रहे। उसने खुद हमारी अंाखों में झांककर मुस्कराते हुए बोला कि तुम क्रीम ले लो न।
और फिर सही बात तो यह है कि चलो गलती से कह दिया हो तो कोई बात नहीं। भई मुंह से निकल गया। हम जैसे साधारण आदमी से भला ऐसी बातें कोई क्यों करेगा। पर एक घंटे में पंाच-पंाच बार । और वो भी सभी के सामने। एक तरफ हमारा पूरा परिवार बैठा है। दूसरी तरफ कैटरीना प्यार से कहे जा रही थी। हम तो शर्म के मारे मर गए। हमने झट से दूसरा चैनल बदल दिया। पर दीवानगी देखो, वहंा भी कैटरीना कैफ। अब आप ही बताओ। हम क्या करते। एक क्रीम के लिए भला उसका दिल कैसे तोड़ सकते थे। और फिर वो तो बिचारी यहंा तक कह रही थी कि टयूब नहीं खरीद सकते तो कोई बात नहीं दो-दो रूपए के किफायती पाउच ही ले लो। हमसे तो बेइज्जती बर्दाश्त नहीं की गई, हम झट से क्रीम की बड़ी टयूब खरीद लाए।
पता नहीं आजकल हममें ऐसा क्या जादू आ गया। कि सब ही हमारे पीछे पड़े रहते हैं। अब अपनी दीपिका पादुकोण और करीना भी आजकल बार-बार यही बात कहती है। बस लेना है तो यह वाला साबुन ले लो। हमने बहुत कहा कि हम तो भई आजकल कैटरीना के कहने में चल रहे हैं। उसे बुरा लगेगा। पर वो ही बात। बार-बार मुस्कराना, अंाखों मे झांकना। फिर एक बार कहे तो हम ऐसे भी नहीं है कि खरीद ही लें। जब मिले तब एक ही बात। भई यह वाला साबुन ले लो। अब कैसे दिल तोड़ पाते। सो खरीद ही लिया। और वो तीन-तीन बटट्ी। पत्नी को शक भी हुआ। क्या बात है। जिन्दगी भर तो मिटट्ी से नहाते-नहाते बीत गई। अब यह खुशबु वाला साबुन कैसे। अब क्या कहते। बस चुप्पी लगा गए। अब इनकी इज्जत थोड़े ही उछाल सकते थे।
अब और आपको क्या बताऐं। हम तो बड़ी मुसीबत से गुजर रहे हैं। उधर अपने अक्षय भैया एक दस रूपए की बोतल पिलाने के लिए कितने खतरों से गुजरते हैं, मेरा तो दिल दहल जाता है। भैया, एक बोतल के लिए क्यों जान को खतरे में डालता है। जान है तो जहान है। कोई और भले ही दुनिया में तेरी बोतल न पिए। पर मैं तो जरूर पीउंगा। क्यों ट््रक के चपेटे में आ रहा है।
बात यहीं तक थी, तो ठीक था। पर उधर अपने सचिन व धोनी भैया को भी लो। वे भी दिन-रात पीछे पड़े हैं। बार-बार एक ही बात कह रहे हैं। भैया अच्छे व्यंग्य लिखना चाहते हो तो हमारी एनर्जी का सीक्रेट देखो। यह वाला पाउडर दूध में डालकर पीओ। अब कौन बताता है इतनी बड़ी बातें। कौन चिंता करता है। आजकल लोग अपने अलावा किसी दूसरे की तो सोचते ही नहीं है। इतने बड़े खिलाड़ी हैं, देश के लिए खेल रहे हैं। वे बिचारे अपनी जान लगा देते हैं। तो क्या हम उनके कहने से पाउडर दूध में डालकर नहीं पी सकते।
अब इतनी बातें सुनकर बड़ी उलझन में पड़ जाते हैं। क्या किया जाए। हमने भी तय कर लिया। भले ही बिक जाऐं। पी0एफ0 लोन सभी खत्म हो जाऐ। पर इन मासूमों का दिल नहीं तोड़ना है। ये जो भी कहेंगे, वो लेंगे। फैंटेसी बड़ा सुख देती है। सभी लोग इसी के पीछे तो भाग रहे हैं। कर्ज की आखिरी बूंद तक खर्च हो जाए। पर अब इनका ध्यान जरूर रखना है। सो रख रहे हैं।