शनिवार, 25 सितंबर 2010

व्यंग्य जड़ मजबूत करने का दर्शन

नई दुनिया सन्डे में 26-09-10 को प्रकाशित व्यन्ग



आजकल मैं राष्ट्र की जड़ें मजबूत करने में लगा हुआ हूं। बहुत दिनों से सरकार पीछे पडी हुई थी। मान ही नहीं रही थी। बार-बार कह रही थी, भई कर लो। सो क्या करता। मजबूरी में करना पड़ा
हमारी यही आदत है। हम अपने आप कुछ नहीं कर पाते। जब कोई कहता है। तो ही कुछ करते हैं। जनसंखया बढाए जा रहे थे, सरकार ने कहा भई नियंत्रण करो। नारा दिया कि हम दो हमारे दो। तो हमें सोचना पड़ता . नहीं तो दो तो कभी हमारी आदत में ही शामिल नहीं थे। जब तक एक टीम नहीं बना लेते थे, तब तक चैन नहीं लेते थे। ऐसी स्थिति में नियंत्रण करना मुश्किल काम था। पर क्या करते सरकार ने कहा तो करना पडा
पर अभी चैन से बैठे नहीं थे ये राष्ट्र की जड़ें मजबूत करने की बात आ गई। अब हम तो साहब फिर सोच में पड गए। एक अकेला आदमी क्या-क्या करे। पर ठीक है भाई इन कमबखत जड़ों का भी कुछ करते हैं। चाहे कुछ भी करना पड़ें पर मजबूत करके ही दम लेंगे। जब परिवार जैसी चेतन चीज ही कम कर ली तो ये जड तो कहां ठहरती है।
अब परेशानी यही आ गई कि आखिर ये कमबखत जड़ें कमजोर क्यों हुई। क्या बात हो गई। सरकार मजबूत करने के लिए कह रही हैं तो इसका मतलब यही हुआ कि वो मान कर चल रही है कि जड़ें कमजोर है। भई मिटटी-मिटटी पर भी करोंडो रूपए खर्च होते हैं। भांति-भांति की खादें भी दे ही देते हैं। अच्छी-खासी गोंद भी तो डालते हैं फिर ऐसा कैसे हो गया।'
काम करना ही शुरू किया था। कि सरकार भी मिल गई। सरकार हमें काम करते देखकर आशंकित हो गई। गठबंधन सरकारों के जमाने में ऐसा हो जाता है कि हर काम को शक की निगाह से देखा जाता है। हमने आश्वस्त किया कि ऐसी कोई बात नहीं है। हम केवल राष्ट्र की जड़ मजबूत करने के लिए आए हैं और वो भी उसी के कहने पर। सरकार बार-बार कहती रहती है कि राष्ट्र की जड़ें मजबूत करें। सो आ गए।
सरकार वहां बैठी हुई थी। मैंने पूछा,' तुम यहां क्या कर रही हो। क्या तुम भी राष्ट्र की जड़ें मजबूत करने में लगी हो।'वो हंसी,' हां, हमारा ध्यान भी जड़ों की ओर ही है। पर हम इन दिनों पार्टी की जड़ें मजबूत करने में लगे हैं। बस पार्टी की जड़ें थोड़ी ठीक-ठाक सी हो जाऐं। ये गठबंधन वाले कभी भी कुछ कह देते हैं। कभी भी पौधे को हिला देते हैं। पौधा एक ओर लटक जाता है और जड़ें हिल जाती है। और फिर दूसरों की क्या कहें। ये अपने क्या कम है। आते-जाते ही झिंझोड जाते हैं।'
'पर राष्ट्र की जड़ों का क्या करें। इनमें कैसे गड़बड़ी हो गई। सुना है मिटटी में ही मिलावट थी।'
सरकार एक मिनट के लिए सोच में पड गई। 'अब भैया मिटट्‌ी की क्या कहें। अपनी मिटटी क्या कम खराब हो रही है। अब थोड़ी मिलावट हो भी गई होगी। आजकल जमाना ही मिलावट का है। हर चीज में मिलावट है। आदमी को आदत ही मिलावटी चीज खाने की हो रही है। अब बच्चे को शुद्ध दूध दे दो तो दस्त हो जाऐंगे। पचेगा कैसे। सो उसमें भी कहीं मिलावट कर दी होगी।'
'सुना है जड़ों को जो खाद दी है। उसमें नाइट्रोजन थोडा कम था।'
'अब भैया, जब इतनी बड़ी दुनिया में ऑक्सीजन कम हो रहा है। कार्बनडाई आक्साइड बढ रहा है। तो इतने से खाद के कट्टे की बिसात ही क्या है। जो नाईट्रेजन को रोक सके।'
'पर यह सब सरकार को भी तो देखना तो चाहिए।'
'भैया सरकार क्या-क्या देखे। सरकार खुद सरकार को देखे। विपक्षियों को देखे। मंहगाई डायन को देखे। मंत्रियों को देखे, किस-किस को देखें। अब कॉमनवेल्थ कराया था कि विपक्ष में जड़ें मजबूत होगी। पर भाई लोग न जाने कौन से टेन्ट-हाउस में पहुंच गए। कमबखत ने सामान की कीमतों से ज्यादा ही किराया वसूल लिया। तुम भी कुछ करो न प्लीज।'
अब मैं क्या कहता बस आजकल जड़ें मजबूत करने में लगा हुआ हूं। क्या करूं बिचारी सरकार के पास तो समय ही नहीं है।

व्यंग्य हमारा जेल दर्शन

डेली न्यूज़, हम लोग में २६-०९-१० को प्रकाशित व्यन्ग


 
 
भारतीय जेल सेवा आपका हार्दिक स्वागत करती हैं। हम सदैव अपने भाईयों की सेवा को तत्पर है एवं सर्वश्रेष्ठ सेवा देने का वादा करते हैं। विश्व में नाना प्रकार की जेलें हैं। उनमें हमारी जेल अनूठी हैं एवं सर्वश्रेष्ठ हैं।
हम कोई भी काम करते हैं तो सबसे पहले अपनी संस्कृति का ध्यान रखते हैं। इसलिए हमने अपनी सेवा का यही मोटो बना रखा है 'अतिथि देवो भवः'। हमारी जेल में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को हम देवता की संज्ञा ही नहीं देते वरन्‌ देवत्व के आधार पर 'यथासंभव' ध्यान भी रखते हैं। हम सदैव यही मानकर चलते हैं। कि गलती सभी करते हैं, कौन गलती नहीं करता। अब इस अभागे की तो किस्मत ही खराब थी, जो पकड़ा गया, अब पकड़ा गया तो कानून तो इसे सजा देगा, बिल्कुल मानेगा नहीं। बिचारा अबोध प्राणी सबूत तक नहीं मिटा पाया। अब इसने तो कर दिया लडकपन, कानून ने भी दे दी सजा। पर हम ऐसा नहीं कर सकते। भई सीधी सी बात है 'अतिथि देवो भव'।
अब कोई भी हमारे यहां आए। हम तो सदैव सर्वश्रेष्ठ सेवा देने का वादा करते हैं। बेहतर पैकेज, बेहतर सुविधाऐं। हमारा तो यही सिद्धांत हैं। कोई हमारे भरोसे ही अपना घर-बार छोड कर यहां आया है। अब यहां भला मन से कौन आता है। बिचारे मजबूरी में ही आते हैं। उनकी मजबूरी देखकर ही हमने अत्यन्त निम्न दरों पर बेहतर सुविधाऐं प्रदान की है। अब एक भला आदमी, आवेश में आ गया। किसी का सिर फोड दिया, किसी की जेब काट दी, कोई घोटाला कर दिया, बिचारा भला ही तो था इसलिए पकड ाई में आ गया। बुरा होता तो हत्थे चढता क्या।
अब हम भी तो भले आदमी ही हैं। हम तो पूरी कोशिश करते हैं। कि जैसे यह अपने घर में रह रहा था, वैसा ही माहौल उसे यहां दे। अगर वो घर पर चिकन-बिरयानी खाता था। रोजाना सोमरस का पान करता था। जर्दे-सिगरेट का शौकीन था। तो हमें क्या परेशानी है। हमारी जेलें कोई घर से कम है क्या। भई खूब मजे से खा। हम तो पक्के समाजवादी हैं। तू भी खा, हम भी खाऐंगे। दोनों भाई मिलकर खाऐंगे। क्या फर्क पडता है, पूरा देश ही खा रहा है।हमारा देश विकासशील देश है। निरंतर प्रगति की ओर अग्रसर हो रहा है। पुरातन जेल व्यवस्था में जो चिट्टी -पत्री लिखने की तकनीक थी, उसे हमने पीछे छोड़ दिया है। हमारी यह कोशिश रहती है कि यथासंभव सभी कैदी-भाईयों को संचार की नई सुविधाओं से अवगत कराऐं। नाना प्रकार की मोबाईल कंपनियों को हम सेवा का अवसर देते हैं। इससे देश का विकास होता है और कैदियों व अन्य 'सामाजिक' लोगों में मानवीयता और सद्‌भाव पनपता है। नहीं तो व्यक्ति बिचारा पांच साल के लिए जेल आया। तो लोग तो उसे भूल ही जाऐंगे। इसलिए हम कोशिश करते हैं। कि वो मोबाईल पर सभी लोगों के सम्पर्क में रहे।
आजकल तकनीक के अनोखे कमाल देखने को मिल रहे हैं। लोग घर बैठे मोबाईल के जरिए अपना व्यवसाय चला रहे हैं। हमने भी इस तकनीक को अपना लिया है। चूंकि अभी प्रयोग के स्तर पर है इसलिए कुछ 'चुनिंदा' लोगों को ही हम सुविधा देते हैं। अभी केवल बड़े-बड़े 'भाई', कुछ प्रभामंडल वाले नेताओं को ही इसका प्रयोग करने की अनुमति दे दी है। इनकी सफलता से हम इसे आम कैदियों को भी देने की सोच रहे हैं। हम तो यही चाहते हैं कि सरकार इसे नेट से जोड़ें और लोगों को वीडियों क्रांफ्रेस आदि की सुविधाओं से जोड़ा जाए। जिससे सरकार की आय भी बढ सके।
और फिर हम तो कर्म के सिद्धांत पर चलते हैं। अब इतना बड़ा भाई है, बिचारा कितनी मेहनत कर रहा था, मुम्बई से दुबई तक की भाग-दौड में लगा था, स्मगलिंग, सट्टा, फिक्सिंग से लेकर सुपारियां लेने के कर्म उसे करने पडते थे। अब दुर्भाग्यवश वो हमारे हत्ते लग गया तो क्या हम उसकी प्रतिभा को जंग लगने देंगे। नहीं हम ऐसा पाप नहीं करते। उसे मोबाईल सुविधा प्रदान कर उसे कर्म-पथ की ओर अग्रसर करते हैं। उससे इतना अच्छा व्यवहार करते हैं कि उसे लगता ही नहीं कि जेल में है।
और इससे तो हमारी संस्कृति का 'सर्वे भंवतु सुखिनः' का सिद्धांत फलित होता है कि सभी सुखी हों। मामूली दरों पर सुविधा पाकर भाई भी खुश, हम भी खुश सब खुश। अब हम भी खुश होंगे ही। भई 'कुछ' घर पर लेकर जाते हैं। तो बीवी तो खुश होगी ही, बच्चे भी नई-नई चीजें पाकर आह्‌लादित हो उठते हैं। यही सच्चा 'सर्वे भंवतु सुखिनः' का सिद्धांत है।
अब कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं। कि पुलिस के रहते हुए भी कभी-कभी जेलों में कितने भंयकर झगड़े होते हैं। लोग मर तक जाते हैं। तो भैया, झगडे कहां नहीं होते। तुम तो घर में रहते हो। बिल्कुल अलग-अलग, सगे भाई हो, एक ही मां के कोख से जन्मे। तुम भी तो एक-दूसरे के खून के प्यासे हो। तो यहां तो कितना बड़ा संयुक्त परिवार है। कितनी सारी विचारधाराऐं हैं। सो कभी-कभी ऐसा हो भी जाता है।इसलिए इसे अन्यथा नहीं लेना चाहिए।
हम तो इतना अच्छा माहौल देते हैं, सुविधाऐं देते हैं। फिर भी कुछ लोग जेल को अछूत की संज्ञा देते हैं। तो हम उनके लिए भी सोचते हैं। हमारा दिल कितना बड़ा है। वे भले ही हमारी जेलों को अपवित्र मानें। पर हम दया का परिचय देते हैं। उन बिचारों को भी बीमार घोषित कर अस्पताल में भर्ती कराने की सुविधा भी प्रदान करते हैं।
अब आप से तो क्या छिपा है। हमारी जेलों ने इतनी तरक्की की है। कि यहां से सरकार तक चल जाती है। कभी-कभी दुर्भाग्यवश ऐसा हो जाता है कि कोई महान विभूति ऐसे में शिकंजे में आ जाती है। तो हम उन्हें विशिष्ट का दर्जा देकर उन्हें सभी सुविधाऐं प्रदान करते हैं। उनके लिए स्पेशल जेल तक की व्यवस्था तक हो जाती है। बिहार में हमने ऐसा ही किया था।
यह आपके सामने है हमारी विकास की गाथा। पर हम यहीं नहीं रूके हैं। हम निरंतर विकास कर रहे हैं और यथासंभव जेलों को घर की तरह सुविधाऐं देने को तत्पर हैं। हमारी लगातार यही कोशिश हो रही है। कि इसे घर से बेहतर बना सकें। हालांकि मीडिया हमारे विकास में निरंतर बाधा उत्पन्न करता रहता है। लेकिन फिर भी हम पवित्र उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। हमारे विकास की गाथा देखने के लिए हम चाहते हैं कि प्रगति की यह यात्रा स्वंय अपनी आंखों से देखें। एक बार सेवा का अवसर दें। भारतीय जेल आपका हार्दिक स्वागत करती है।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

व्यंग्य प्यारे डेंगू अब चले भी जाओ

 

 

 



 

  नई दुनिया में 25-09-10 को प्रकाशित




 

प्यारे डेंगू,

तुम फिर आ गए। मैं ऐसा कृत्घन नहीं कि तुम्हारे आने से खुश न होउं। पर क्या करूं। तुम भी बस, समय नहीं देखते हो और चले आते हो। तुम सोच रहे होंगे कि मुझे क्या हो गया। मैं क्यों नहीं खुश हूं। तुम हर साल आते हो। भारी भरकम बजट और घोटालों की अपार संभावनाऐं लेकर आते हो। तुम्हें आने में देर होती है तो बच्चे पूछने लग जाते हैं। क्या बात है पापा इस बार डेंगू अंकल नहीं आए। हमारी दीवाली कैसे मनेगी।

पर इस बार तुम बिन बुलाए ही चले आए। तुम भी क्या करो। तुम्हें पता नहीं चला होगा कि हम इस बार घोटाले के मामले में आत्मनिर्भर हो गए। अब भैया हमारे यहां कॉमनवेल्थ गेम हो रहे हैं । हम तो बड़े मगन हैं। छातों से लेकर एयरकंडीशनर सभी में कूट रहे हैं। लोग तोप खरीद में कमाते हैं। हम तो केवल किरायों में ही कमा गए। सब लोग अपनी प्रतिभा के अनुसार जुगाड में लगे हुए थे। सब-कुछ ठीक चल रहा था। कि अचानक तुम आ गए।

तुम आते हो। खैर चले आओ। अच्छी बात है। अतिथि देवो भव। हम अपनी पंरपरा निभाते हैं। हर साल कितने ही लोगों को तुम्हारी भेंट चड़ा देते हैं। पर इस बार तो तुम थोडा ध्यान रखते। तुम्हें पता नहीं था कि इस बार हम कॉमनवेल्थ गेम करा रहे हैं। पता है तुम्हारी वजह से हमारे खेलों का कितना अपमान हुआ। हमारे एक मंत्रीजी तो यह तक कह गए कि खेलों की वजह से तुम आए हो। अब तुम भी बस। क्या तुम हर साल बिना नागा के नहीं आते हो। क्या तुम पहली बार ही आए थे।

तुम भी बस कैसे हो। हमने खेलों के लिए गडडे खोदे और तुमने सोचा कि सरकार तुम्हारे लिए स्वीमिंग पूल बना रही है। तुम वहीं पैदा हो गए। तुम्हें और कोई जगह नहीं मिली। बस कर दिया झट से खेलों को बदनाम। एक तो खेलों की पहले ही वाट लगी हुई है। तुम और कहीं ही चले जाते। तुम्हें भी बस बस दिल्ली के गडडे मिले। अरे हमारा तो पूरा देश ही गडडे में पड़ा हुआ है। जहां जाते, गडडे अपने आप ही पैदा हो जाते।हम खेलों के लिए कितने गंभीर हैं। तुम समझ ही नहीं रहे हो। हमने भिखारियों तक को भेज दिया। कह दिया, जाओ, भारत दर्शन करके आओ। देश की संस्कृति को समझो। फिर समझकर वापस आ जाना। बिचारे खेलों तक वे भ्रमण पर हैं। और तुम जो हो कुंए के मेंढक ही रहोगे। यहीं पड़े हो।

अब तुम कोई नेता भी नहीं हो। यहां कौन सी तुम्हारी पार्लियामेंट हैं। जो तुमसे दिल्ली नहीं छूटती। तुम तो आकर बस गडडे में कूद पड़े अरे कितनी मुश्किल से खेलों के लिए खोदे थे। सोचा था आज कॉमनवेल्थ का छोटा गडडा खोदा है, कल एशियाड का बड़ा गडडा खोदेंगे। और ईश्वर ने चाहा तो एक दिन ओलंपिक का सबसे बड़ा गडडा खोदकर पटक देंगे। चाहे पूरे देश को उसमें धकेलना पड़े

पर इस देश में कुछ अच्छा भला कैसे हो सकता है। अचानक तुम आ धमके। अब क्या करें। पूरे विश्व में फजीहत हो गई। पहले ही क्या कम हो रही थी। अब सब देश सर्टिफिकेट मांग रहे हैं। अब कहां से लाकर दे सर्टिफिकेट। सो भैया तुम अब कहीं चले जाओ। बस खेल करा लेने दो। आजकल तो हम बस एक ही बात चाहते हैं। कि बस किसी तरह यह खेल निपट जावे। तब तक के लिए तुम कहीं भी चले जाओ। समूचा देश खुदा पड़ा है। सब तरफ गडडे हैं। हर जगह गडडे ही गडडे हैं । उनमें भ्रसटाचार का इतना सडा पानी भरा हुआ है। कि तुम्हारी सात पीढियां तर जाऐगी। मरी हुई जनता को जितना चाहे डंक मारो। वो बेजुबान है, कुछ नहीं कहेगी। वो सदा से सहती आई है। सो भैया अब चले भी जाओ।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

व्यंग्य मानसून जा, जा, जा

नई दुनिया में दिनांक 17-09-10 को प्रकाशित मेरा व्यंग्य









अजी साहब, आजकल के आदमी का भी कोई मोरल नहीं है। अब देखिए न्‌। दो महीने पहले तक तो दुनिया जहान के देवी-देवता ढोक रहा था। पर्यावरण और औद्योगिकरण को गालियां दे रहा था। आसमान से निगाहें ही नहीं हटा रहा था। बार-बार बस मानसून को बुलाने के लिए यही गा रहा था। बस एक बार आ जा। पहले झलक से ही खुश होने का दावा कर रहा था। लेकिन अब हाल यह है कि सब मिलकर मानसून के पीछे पड़े हैं। 'मानसून जा, जा, जा।'
सब लोग परेशान है। कोई डेंगू की चपेट में है। तो कोई स्वानफलू से परेशान है। बहुत सी जगह बाढ का माहौल चल रहा है। सरकार खुद मानसून से परेशान है। कॉमनवेल्थ सर पर है और मानसून है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा। सरकार, मौसम विभाग से बार-बार यही पूछ रही है। कि भई इसके जाने का समय बताओ।
सारा देश चिल्ला रहा है। सरकार कोस रही है। पर मानसून बेशर्म बना हुआ है। सरकार ने कॉमनवेल्थ के लिए गडडे खोदे। लेकिन वो वहां भी जा घुसा। सरकार ओलंपिक की संभावनाऐं तलाश रही थी। पर मानसून ने उसमें डेंगू और स्वान-फलू जा तलाशा । ठेकेदारों के शिकार स्टेडियम मानसून के कारण आंसूं बहा रहे हैं। आज अगर यह भीषण मानसून नहीं होता। तो कम से कम ये अनगिनत छेद ढके हुए तो रहते।
सरकार ने कॉमनवेल्थ कराया था। भई चलो खिलाडियों को प्रोत्साहन मिलेगा। नए-नए रिकार्ड बनेंगे। पर मानसून गलत जा समझा। अब वो कई कीर्तिमान तोड चुका है। इतने सालों से लोग यज्ञ पर यज्ञ कराए जाते थे प्रार्थनाऐं कराए जाते थे। शायद मानसून इन सब प्रार्थनाओं के कारण अधिक ही द्रवित हो गया और बरस बैठा। और फिर बरस भी ऐसा रहा है। कि रूकने का नाम ही नहीं ले रहा।