शनिवार, 28 अगस्त 2010

व्यंग्य मजूरी बढ़ा दे रे भैया

 नई दुनिया ( DELHI) में 28/08/2010 को प्रकाशित



आजकल हम सांसदों के दिन ही बहुत बुरे आ गए हैं। कोई हमारी सुनने को ही तैयार नहीं है। कहां हम दिन-रात लोगों की नहीं सुना करते थे। लोग कह-कहकर परेशान हो जाते थे लेकिन हमारे कानों पर जूं नहीं रेंगती थी। पर हमारा हाल भी अब जनता जैसा हो गया है।

इतने दिनों से मांग रहे हैं। कि भई हमारी मजूरी बडा दो। हमारी तन्खवाह ज्यादा कर दो। पर कोई मान नहीं रहा। अब देखिए न मंहगाई कितनी बढ गई है। हर चीज कितनी मंहगी हो गई। तुम क्या समझते हो हमें मंहगाई का पता ही नहीं है। ये तुम जो दिन-रात मंहगाई का रोना रोते हो। वो क्या हमारे कान में नहीं पडता। कितनी ही बार हमने खुद अपनी आंखों से अखबार में पड़ा है कि मंहगाई कितनी बढ गई है। तुम समझते हो कि हमें घर से कोई नहीं कहेगा तो हमें पता ही नहीं चलेगा। हमें सब पता है। हमने एक बार टी०वी० पर भी सुना था।

अब जब सब कह रहे हैं। तो सही ही कह रहे होंगे। हमारी आवाज न सुनो। तो कम से कम जनता की आवाज तो सुनो। अब तन्खवाह भी मामूली सी बड़ी है। तीन सौ गुना कितने से हैं। कोई हमें गरीबी की रेखा से नीचे बसर करने वाला समझ रखा है। अब पचास हजार रूपए में आजकल आता क्या है। ये तो हमारे एक बच्चे के जेबखर्च से भी कम है। बीवी का खर्च सुनोगे तो दस गुना वेतन भी कम पडता नजर आएगा।

अब लोग हंसते हैं। भई हमें वेतन की क्या जरूरत। मैं जानता हूं हमारे यहां ऐसे लोगों की कमी नहीं है। जो सांसद का पद मुफत में स्वीकार करने को तैयार है। पर भैया ये पद क्या हमने ऐसे ही लिया है। पूरा जीवन झोंक दिया है। जब जाकर यह पद मिला है। आज सरकारी कर्मचारियों ने छठा वेतन आयोग ले लिया। वे मजे में हैं। बैंक वालों की तनखवाऐं अच्छी हो गई है। और उपर से सब स्थाई हैं। अब भैया हम तो कोई परमानेंट कर्मचारी तो हैं नहीं। बस आज हैं, कल का क्या भरोसा। और फिर यहां तक कैसे आए हैं हम ही जानते हैं।अब भई सभी लोगों के मजे हैं। खूब सुविधाऐं हैं। जीवन भर मजे करते रहते हैं। सभी अपने बच्चों के प्रति कितने सजग रहते हैं। अब सब तो अपने बच्चों के लिए इतना सोचें तो हम क्या अनाथ छोड़ दें। हमें उनका भविद्गय नहीं दिखता क्या। क्या उन्हें सांसद, विधायक बनने की अधिकार नहीं है क्या। कल से उन्हें भी चुनाव लडने हैं, चार पैसे नहीं बचेंगे तो कैसे चुनाव लड पाएंगे अब ये बच्चे भी क्या करें। शुरू से ऐसे माहौल में रहते हैं। कैरियर के रूप में ले देकर राजनीति ही बचती है। फिर बीवी को भी तो कुछ करना ही पडता है जहां घर चला लेती है वहां देच्च चलाना कौनसी बड़ी बात है। और कल से इसके लिए कोई पद की फ्रिक नहीं करो तो फिर तुम ही आरोप लगाओगे कि देखो महिलाओं के अधिकार की रक्षा नहीं कर रहे हैं। यहां सबसे बड़ी बात आती है कि हम तो लाख इन्हें चुनाव लड़ाएं पर फिर चुनाव लडने के बाद जीतने की क्या गारंटी है।

सो बस इसीलिए लगे पड़े हैं। वेतन बढवाना ही चाहते हैं। सरकार तीन सौ प्रतिशत पर तो मान गई है। पर इतने से क्या होता है। हमें मिलता ही क्या है। थोड ा सा कार्यालय खर्च, संसद भत्ता, मुफत बिजली, घर और थोड़ी सी पेंशन । कुछ रेलवे के फ्री पास देते हैं। अब इनमें कौनसा अहसान कर रहे हैं। रेलवे और रोडवेज के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों तक को भी यह सुविधा आजीवन मिलती है।

अब सुन भी लो। बडवा भी दो।पांच सौ प्रतिशत की तो कह रहे हैं। वैसे काम तो हमारा हजार से भी नहीं चलेगा। पर कोई बात नहीं गरीब देश होने के नाते गुजर-बसर कर लेंगे। काट लेंगे। भगवान तुम्हारा भला करे।

महंगाई और सपने

दैनिक ट्रीब्यून 28/08/2010 को प्रकाशित व्यन्ग









इन दिनों मैं कई सुंदर-सुंदर सपने देख रहा हूं। क्या करूं, अब दिन ही ऐसे आ गए हैं। बहुत सोचता हूं कि एक बार हिम्मत करके अपनी इच्छाओं को पूरी कर ही लूं। पर अफोर्ड नहीं कर पाता। आखिर हैसियत भी तो होनी चाहिए। अब तो दिन में किसी के सामने इच्छा प्रकट करने में ही डर लगने लगा है। सोचता हूं कहीं सामने वाला यह नहीं सोचने लग जाए कि कहीं ये पागल तो नहीं हो गया है। सो सपने देख-देखकर ही काम चला रहा हूं।
अब लाख सोचता हूं कि सपने नहीं देखूं। पर मन का क्या करूं। मन पर कैसे काबू रखूं। उसने तो बहुत अच्छे-अच्छे दिन देखे हैं। पर अब की बात अलग है। रात को बस खवाबों में उनके दीदार करता हूं। सुंदर-सुंदर सी गोल-मटोल... लाल-लाल खिला हुआ रंग ....... आप चौंक गए न। आप भी बस...। आपकी सोच कभी सुंदर अभिनेत्रियों से आगे बढ़ेगी ही न। अरे भई मैं तो अरहर की दाल और टमाटर की बात कर रहा हूं। आजकल मंहगाई इतनी बढ गई है। कि बस अब चिंतन-सुख से ही काम चला रहे हैं।

सुबह उठता हूं। तो रसोई का ताला खोलकर काम शुरू करता हूँ , आजकल मंहगाई इतनी हो गई है कि यह सब जरूरी हो गया है। आजकल किसी का भरोसा नहीं है। कमरों के ताले लगाने का अब कोई फायदा नहीं है। टी०वी०, फ्रिज और इलेक्ट्रेनिक्स आईटम आजकल कौन चोरी करता है। अगर कोई घर से घी, तेल, शक्कर सेफ में रखे टमाटर ले जाए तो लेने के देने पड जाऐंगें।

रसोई के मामले में अभिनव प्रयोग शुरू कर दिए हैं अब बकायदों दानों की गिनती होती है। रोजाना रेट देखकर दानों की संखया कम कर दी जाती है। चूंकि स्तर बनाए रखना जरूरी है। इसलिए दाल बनती जरूर है पर वो किसी रहस्य से कम नहीं होती। उसमें दाल की कितनी कम मात्रा डाली गई है। यह कोई अनुभवी गोताखोर ही बता सकता है। सूखी सब्जी अब इतिहास का विशय रह गई है।
भगवान भला करे इन चिकित्सकों का, जिनकी वजह से अब इज्जत बनी रह जाती है। जब भी कोई मेहमान सब्जी या बिना चुपड़ी रोटी को देखकर नाक-भौं सिकोडता है। तो उसे स्वास्थ्य का हवाला दे दिया जाता है कि हद्‌य रोग से बचने के लिए डाक्टर घी की सखत मना करता है। सो हमने तो लाना ही बंद कर रखा है। और सब्जियों में तो आजकल इतने कैमिकल आने लगे हैं। कि बस उन्हें खाते हुए ही डर लगने लगा है। अब चाय में कम शक्कर तो पूछो ही मत। शुगर
की प्रॉब्लम कोई छोटी-मोटी थोड़ी हे हम तो बस अब रामदेव महाराज की शरण
में आ गए हैं। हमारे घर में तो सब बनना ही बंद हो गया है। मिठाईयों की दुकान पर गए
अर्सा हो गया। उनके दाम पढ कर सिहरन सी होने लग जाती है। अब तो कहीं पार्टी में जाते हैं तो जरा ज्यादा खा आते हैं। बाद में उन्हें ही याद करके जी बहलाते रहते हैं।
और रही बात घूमने की तो अब घर से बाहर कहां निकलो। कहीं भी जाओ पेट्रेल का खर्चा देखकर जान निकल जाती है। अब हमारी किस्मत ऐसी कहां कि घूमे हम और खर्चा सरकार वहन करे। यह हमारे भाग्य में कहां। और पर्यटन की तो सोचो ही मत। आजकल तो टी०वी० पर देखकर ही घूम लेते हैं।
बाकी... और अब करें क्या। सो सुंदर-सुंदर सपने देख लेते हैं। सपनों में ही अच्छा खा लेते हैं, अच्छा पी लेते हैं और घूम लेते हैं। हां, सपनों में बिल्कुल कंजूसी नहीं करते। अच्छे-अच्छे सपने देख रहे हैं। खूब सलाद खा रहे हैं, बढिया सब्जी बनवा लेते हैं, रोटी बिना देसी घी के नहीं खाते और तो और दो-दो दालें पी जाते हैं। हां, खाने के बाद मीठा खाना कभी नहीं भूलते। अब क्या करें, पुरानी आदत है, छूटे नहीं छूटती।
सो जीवन इसी तरह चल रहा है। अब असल में अफोर्ड करने की स्थिति रही नहीं है। सो बस सपने देख रहे हैं, प्यारे-प्यारे सपने, लाल-लाल टमाटर के, सुंदर-सुंदर दालों के, घी-तेल से लबालब थाली के। आप भी देखिए, सचमुच बहुत ही मजा आ रहा है।

व्यंग्य बरखा का अदभुत सौन्दर्य

 डेली न्यूज़ / जयपुर में 28/08/2010 को प्रकाशित व्यन्ग






कहते हैं कि भगवान देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। वाकई आजकल मानसून के साथ यही चल रहा है। कहां दो महीने पहले हम पानी की बूंद-बूंद को तरस रहे थे। और आज आलम यह है कि चारों ओर बारिश का भरपूर नजारा देखने को मिल रहा है। आज इन नजारों को गइराई से देखा जाए तो न जाने कितने मेघदूतों का जन्म हो जाए। वातावरण अत्यन्त सुहाना लग रहा है। चारों ओर गंदे पानी के भरे हुए गडडे मन को मोह लेते हैं। गर्मी के दिनों में सूखे गडडे, जो निरंतर गहराई दिखने के कारण शर्मिंदा थे, अब लबालब भरे हुए पानी ने उन्हें ढक लिया है। जिस तरह झील पर पंछी उडते हुए बहुत सुखद प्रतीत होते हैं।उसी तरह गडडें पर मच्छर के लार्वा पंछियों की तरह क्रीड करते मन को मोह लेते हैं।

सडकें, सडकें न लगकर आईस स्केट का मैदान प्रतीत होती है। यहां पर आदमी चलता कम है और फिसलता अधिक है। इस पर छाया मिटटी और कीचड पर्यावरण चेतना को बढावा देता है। अब पर्यावरणवादी चारों ओर कंक्रीट के जंगल का रोना नहीं रोते। क्योंकि सभी जगहें कीचड और मिटटी से ढकी हुई है। यह भविष्य के प्रति अच्छे संकेत हैं। हम एक सुनहरे कल की ओर बढ रहे हैं। हमारी यह अदभुत सडके कल से न केवल चलने के काम आएगी। बल्कि इन पर छाई मिटटी पर हम खेती भी कर सकेंगे। हो सका तो अगले एशियाड में स्केटिंग के स्टेडियम पर करोड़ों रूपए खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि यह काम द्राहर की सडकों पर बखूबी किया जा सकेगा।

वर्षा ने चारों ओर एक अद्‌भुत माहौल बना दिया है। सब-कुछ सुहाना लग रहा है। आओ फिर हम क्यों घर में चुपचाप बैठे हैं। बाहर सडक में छाए इस अदभुत नजारे से लोग अत्यन्त भावुक हो गए हैं। उनकी आंखे भीगी हुई हैं। उनके आंसू थम नहीं पा रहे हैं। घर-घर में 'आई-फलू' जो हो गया है। यही नहीं, डेंगू और स्वाईन फलू, जिन्हें लोगों ने बिल्कुल ही भुला दिया था। अब पुनः अपने लोगों के बीच पधार आए हैं। यही नहीं, नाना प्रकार के वायरस, जो पूर्व में अत्यन्त गर्मी के कारण विचलित थे। वे अत्यन्त सुहाने मौसम को पाकर फिर से लोगों के बीच में आ गए हैं। पीलियायुक्त लोगों के चेहरे सूर्य के समान दमक रहे हैं। डाक्टर प्रफुल्लित हैं और क्लीनिक पर लगी भीड़ को देखकर फूले नहीं समा रहे हैं। भांति-भांति के मरीज उनके उत्साह में अत्यधिक वृद्धि कर रहे हैं।

पशुओं का सूखा भी अब खत्म हो गया है। नाना प्रकार के पशु जो प्रायः सड कों पर बैठे रहते थे, पूर्व में उन्हें गर्मी दूर करने के लिए पोखर व गडडों की तलाश में न जाने कितने किलोमीटर घूमना पडता था। अब उनकी परेशानियां दूर हो गई हैं। सडकें ही छोटे-मोटे पोखर व गडडों में तब्दील हो गई हैं। वे इतने आराम हैं। कि वहीं चर लेते हैं व वहीं मल-मूत्र विर्सजन कर लेते हैं। उनके इस कर्म से समूचा वातावरण सुगंधमय हो गया है। सड कों पर जगह-जगह हुए गोबर व मिटटी को देखकर गांव के लिपे-पुते आंगन याद आ रहे हैं।

चारों ओर हर्ष का माहौल है। सड के बनाने वाले ठेकेदार अत्यन्त हर्ष की मुद्रा में है। जो सडक स्वाभाविक रूप से टूटने जा रही थी, अब उसका श्रेय वे वर्षा को देकर प्रसन्न हैं। और तो और वे इन टूटी हुई सड कों को निहारकर भविश्य के टेंडर को पाने की कल्पना से फूले नहीं समा रहे हैं।

अधिकारीगण भी खुश हैं। टेंडर खुलेंगे तो उनके घर में भी खुशियों की बहार आएगी। लोग जो पूर्व में सडकों की दुर्दशा से दुखी थे, वे यही सोचकर सुखी है कि भविष्य में एक दिन फिर इन पर डामर की अत्यन्त महीन चादर फिर चदेगी

सो बाहर निकलकर यही गुनगुना लें। 'आज रपट जाऐं तो....' अब साहब बाहर निकलेंगे तो फिसलेंगे तो सही। तो गिरते-गिरते गुनगुनाने में क्या हर्ज है।

डेंगू और राष्ट्रमंडल

  हरिभूमि में 28/08/2010 को प्रकाशित व्यन्ग

 

मैं कला विषय का विधार्थी रहा हूं। विज्ञान मुझे कभी समझ नहीं आया। कोई कुछ भी कह देता है। तो मान लेता हूं। अभी स्वास्थ्य मंत्री का बयान आया है कि खेलों के कारण दिल्ली में डेगूं फैला है। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। पहले मैनें सोचा कि भई यह खेल कोई मच्छर की वैरायटी तो नहीं है। कहीं विदेशियों ने खेल के माध्यम से कहीं कोई बीमारी तो नहीं भिजवा दी। पर मैंने सोचा तो वाकई मुझे सही लगा। कोई भी आयोजन हो। कुछ न कुछ बात हो जाती है। जब तक कोई विवाद खड़ा नहीं हो तो कोई कार्य उचित तरीके से सम्पन्न नहीं होता। लेकिन अब क्या करें। पूरी दुनिया में नाक रखने के लिए हमने राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन किया। अब क्या करें। लोग-बाग तो देश का नाम उंचा नहीं रखते। तो अब सरकार तो कुछ तो करेंगी। परंतु सब उल्टा हो गया। देश में सब ओर कभी-कभी मुझे समझ नहीं आता। कि कौन सी चीज किस कारण से उत्पन्न हुई है। मैं अपने दिमाग पर बहुत ही जोर डालता हूं। कुछ समझ नहीं पाता। अब मैं ठहरा कला का विधार्थी, यही सोचकर रह जाता हूं। कि डेंगू किसी वायरस से हुआ होगा। किसी बदमाश मच्छर की शरारत होगी। लेकिन अब पता चला कि यह क्यों हुआ। भई बड़े लोगों की बातें ही निराली है। वो ही सही तरीके से समझ पाते हैं। कि कौनसी चीज कैसे होती है।

आज यदि देखा जाए तो दिल्ली विश्व के सर्वाधिक साफ द्राहरों में है। गंदगी तो उसे कहीं दूर से भी नहीं छूती है। वहां कोई किसी तरह का कीटाणु आते हुए ही शर्माता है। न तो कोई बीमारी होती, और न कहीं किसी तरह की गंदगी। वहां के लोग इन बीमारियों का नाम भी नहीं जानते हैं। वो तो बेडा गर्क हो। इन राष्ट्रमंडल खेलों का। जो न जाने कौन-कौन सी बीमारियां हमें दे जा रहे हैं।

अब देखिए, इन खेलों के कारण ही जगह-जगह निर्माण कार्य चल रहे हैं। न जाने कितनी जगह गद्दे खुदे हुए हैं। न जाने कितनी जगह पानी भरा हुआ है। मानसून भी इस साल इतना बरसा कि बस चारों ओर पानी ही पानी हो रहा है। बस मौका पाकर डेंगू का वायरस भी मैदान में कूद गया है।

यानी कि खेल ही सभी मुसीबतों का कारण हैं। खेल नहीं होते तो भ्रष्टाचार नहीं होता। आज हम विश्व के सामने नए रिकार्ड बनाने को मजबूर नहीं होते कि एक सामान की कीमत से कई गुना राशी उसके डेढ माह के किराए के लिए दी जाती है। खेल का आयोजन नहीं होता तो नेताजी मानसून मिसाईल से इसके विनाश का आह्‌वान नहीं करते। खेल नहीं होता तो प्रधानमंत्री को निरीक्षण के लिए मजबूर नहीं होता। और सबसे बड़ी बात तो खेल नहीं होता तो कम से कम डेंगू तो नहीं होता।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

नई दुनिया में 13.08.10 को प्रकाशित व्यंग्य ‘आओ खेल खेलें’

इन दिनों मुझे गर्व की अनुभूति हो रही है। अब करूं भी क्या। खेल के इस अदभुत परिवेश पर मुग्ध हूं। खेल का ऐसा रूप कहीं नहीं देखा। खेल केवल खेल नहीं है। बल्कि मानो तो खेल कुछ भी नहीं है। खेल तो मात्र निमित्त मात्र है। असली खेल तो पीछे है। हमारे यहाँ खेल-परंपरा का अदभुत विकास हो रहा है। दूसरे देश खेल केवल खेल का आयोजन कर अपने आपको धन्य मान बैठते हैं। पर हम उन काहिल लोगों में से नहीं है। वहाँ लोग सिर्फ खेल खेलते हैं। इधर हम खेल में भी खेल खेल डालते हैं।
अब राष्ट्र्मंडल खेल होने को हैं। इंतजाम जो है पूरा होने का नाम ही नहीं ले रहे। रोजाना कोई न कोई अड़चन खड़ी हो जाती है। अभी कुछ भी पूरा नहीं हुआ। लोग आरोप लगाते हैं तो मंत्रीजी खिसिया जाते हैं। वे भी कह ही देते हैं। क्या करें, यह हमारी संस्कृति है कि हम हर काम आखिरी क्षणों में करते हैं चाहे शादी हो या कुछ और। पर कुछ लोग इसके नाकाम होने पर खुशी मनाने की घोषणा कर बैठते हैं।
हमारा देश खेलप्रधान देश है। यहाँ कदम-कदम पर नाना प्रकार के खेल खेले जाते हैं। परदे के आगे खेल होता है। परदे के पीछे खेल होता है। हम ओलंपिक में क्यों पदक नहीं ले पाते। क्यों हार जाते हैं। कुश्ती में क्यों चित्त हो जाते हैं। कारण यह नहीं है कि हम किसी से कम हैं। या हम किसी से कमजोर हैं। बस एक ही बात यह है। कि हमारे यहाँ केवल खिलाड़ी मैदान पर नहीं खेलता। उसके भीतर और भी खेल चलता रहता है। अब गेंद हाथ में है, अगर वो ढंग से पास दे दे तो दूसरा खिलाड़ी गोल कर सकता है। पर वो कैसे दे वो दूसरे खेल के कारण मजबूर है। जिसे पास दे वो तो दूसरे फेडरेशन वाला है। उसका आका तो दूसरा है। यहाँ स्वामीभक्ति मजबूर कर देती है। और वो पास नहीं देता। पहलवान है वो दम ही नहीं लगाता। अब दूसरे गुट का अध्यक्ष चुन लिया गया है।तो इस गुट वाले खिलाड़ी का नैतिक दायित्व बन जाता है। कि वो बिना लड़े ही चित्त हो जाए। क्योंकि वो जानता है कि वो खुद भले ही प्रत्यक्ष रूप से चित्त हो जाए। पर चित्त तो दूसरे गुट का अध्यक्ष ही हो रहा है। अब हार का जिम्मा उसके गुट पर आएगा तो ही अपने आका के अगली बार चांस पक्के होंगे।
फिर टीम में भी ऐसा हो जाता है। टीम का कप्तान भी एक-दो खिलाड़ी तो अपने खास आदमी खिलाता है। भई देखिए ऐसा बनता भी है। बिचारा सालों साल मेहनत कर, न जाने कितनी विभूतियों की सेवा कर-करके थक गया है। कितने हाथ-पांव दर्द कर रहे हैं। कोई तो दबाने वाला भी चाहिए। फिर दो-चार लोग हाँ में हाँ मिलाते रहें तो कप्तान का आत्मविश्वास मजबूत होता है। अब बदले में भले ही वे गोल करे या नहीं। या रन बनाए या नहीं। सो ऐसे खेल चलते ही रहते हैं।
जब कप्तान के दो-चार खास होते हैं। तो फिर जो संभावित कप्तान का दावेदार होता है। जो बिचारा किन्हीं कारणों से कप्तान का पद लेने से वंचित रह गया। वो भी अपने एक-दो खिलाड़ियों के साथ इसी प्रयत्न में लगा रहता है। कि किसी तरह इस कप्तान को फेल किया जाए। ताकि आगे कप्तान बना जा सके। अब वो कितनी आसान गेंद हो, गोल में नहीं डालता। कितना भी आसान टार्गेट हो। बल्ला उठाता ही नहीं। आप सोच रहे होंगे कि इसे खेलना ही नहीं आता। अरे, वो जितनी गहराई से खेल रहा है। उतनी तो कोई सोच ही नहीं सकता। असली खिलाड़ी तो वही है। बाकी सब बेकार है।
अब राष्ट्र्मंडल खेलों में भी ऐसा ही हो रहा है। अय्यर जी खेल की बर्बादी की दुआ मंाग रहे हैं। अब राजनीति का खेल शुरू हो गया है। तरह-तरह की अटकलें शुरू हो गई है। लोग उन खेलों को भूल गए हैं। अब असली खेल इधर शुरू हुआ है। लोग इधर अटकलें लगा रहे हैं। क्या पार्टी में फूट पड़ गई हैं। ये ऐसा क्यूं बोल रहे हैं। इसका क्या कारण है। थोड़े दिन बाद यही होगा। विदेशों से आए खिलाड़ी दर्शक दीर्घा में बैठे रहेंगे और इधर राजनीति के नए-नए खेल चलते रहेंगे। यह तो देश के भाग्य में हे . लोग भी क्या करें। राजनीतिक पद तो वैसे ही कितनी मुश्किल से मिलते हैं। अब सभी लोंगो का मन करता है। सो वे खेलों के ही पदाधिकारी बन बैठते हैं। बिचारों ने कभी हाॅकी या बल्ला तो उठाया होता नहीं सो बस वहाँ भी वो राजनीतिक खेल शुरू कर देते हैं। जो नहीं बन पाते या प्रतीक्षा सूची में होते हैं। वो बाहर बैठकर कुछ न कुछ बोलते रहते हैं। इसी उम्मीद के साथ कि कभी न कभी परमात्मा उनकी सुनेगा।
सो सब खेल रहे हैं। समूचा देश खेल रहा है। सभी कहीं न कहीं लगे हुए हैं। तो आप क्या कर रहे हैं। चलिए उठिए कोई खेल ही खेलते हैं।

रविवार, 1 अगस्त 2010

व्यन्ग व्यन्ग नासा वालों के नाम

इन दिनों मैं बहुत शर्मिंदा हूं। किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। क्या करूं, अपने अभियान में असफल रहा। तुम और मैं एक ही मिशन पर काम कर रहे थे। हम दोनो पानी की खोज में लगे हुए थे, तुम नासा मिशन वाले चाँद पर पानी खोज रहे थे और मैं अपने घर के नल में। प्रयास मैंने भी बहुत किए, पर अंततः बाजी तुम मार गए। मैं परेशान हूं, मैं इतने समय से कोशिश में लगा हुआ हूं , पर कुछ हो नहीं पाया।
जबसे तुमने चाँद पर पानी खोजा है बीवी मुझसे बहुत नाराज है। दिन-रात ताने देती रहती है। कहती है मेरे पिताजी ने पता नहीं क्या सोचकर ऐसे आदमी के पल्ले बांध दिया जो मुझे पानी तक नहीं पिला सकता। तुमसे घर के नल में पानी नहीं ढूंढा गया। और वहां नासा वालों ने तो चाँद पर भी पानी ढूंढ मारा।
पर सही बात है कि मैं अकेला कर भी क्या सकता हूं। तुम लोग बड़े आदमी हो, इतने संसाधन हैं। तुम तो कुछ भी कर सकते हो। कोई मैं तुम्हारी बराबरी थोड़े ही कर सकता हूं। किन्तु वो मेरे पीछे ही पड़ी हुई है, बस बार-बार यही कहती है कि जरा आप भी नासा वालों की मदद ले लो और पानी खोजो पर अब मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं। इसे कैसे समझाउं कि भारतीय भूमि और चन्द्रभूमि, दोनों में बहुत अंतर है। इस धरा पर कोई कार्य सम्पन्न कराना कोई आसान काम थोड़े ही हैं। चाँद पर तो पानी कोई भी ढूंढ सकता है पर इस भू पर अवतरित होकर ऐसे प्रयास करें तो पता चलेगा कि यहाँ काम करना कैसा होता है। पर मेरी पत्नी नहीं मान रही। बार-बार यही कह रही है। कि अगर तुम नासा वालों की मदद नहीं लोगे तो मैं ही उन्हें बुला लूंगी।
मैं इन दिनों यही सोच रहा हूं। कि तुम्हें मेरे मोहल्ले के नलों में पानी ढूंढने के लिए लगा दिया जाए। तो क्या परिणाम निकलेगा। क्या तुम पानी खोज पाओगे। पर तुम मेरी पत्नी की बातों में आकर ऐसी कोशिश मत कर बैठना। वरना पागल ही हो जाओगे।
देखो, यह सब बातें तुमसे इसलिए कह रहा हूं। कि तुम चाँद की भूमि से भले ही परिचित हो। पर इस धरा के महत्व को नहीं जानते। यहाँ पर खोज शुरू करने से पहले ही कितने पापड़ बेलने पड़ेगे। सर्वप्रथम पानी की खोज शुरू करने के लिए तुम्हें पहले जलदाय विभाग के दफतर को खोजना पड़ेगा। बहुत सारे दफतरों में से एक दफतर है, अगर किस्मत से वो मिल गया। तो रामखिलावन को ढूंढना पड़ेगा। रामखिलावन कौन, अरे वहां का चपरासी। भगवान को ढूंढना आसान है पर उसे ढूंढना बहुत मुश्किल है। उसका आधा समय तो बाजार में पान की दुकानों पर बीतता है। तो नासा वालों तुम्हारी खोज का सर्वप्रथम स्थल होगा। चाय व पान की दुकानें। सबसे पहले इन दुकानों पर सेटेलाईट लगाना पड़ेगा। जिस तरह चाँद के गर्भ में जाकर संयत्र कुछ बताने में समर्थ हो पाते हैं। वैसे ही एक जर्दे का पान अंदर जाने के बाद ही रामखिलावन इस स्थिति में आता है। कि वो कुछ बता सके।
उससे प्राप्त सूचना के आधार पर जब तुम कार्यालय के अंदर प्रवेश करोगे। तो वहां नाना प्रकार की खाली मेजें तुम्हारा इंतजार करती हुई मिलेगी। शायद खाली कक्ष देखकर तुम यह गलतफहमी पाल लो कि सब-कुछ कार्य यंत्रचालित होता है। पर एकाध घंटे बाद कोई बाबू आएगा। तो उसे देखकर तुम्हारे संशय का निवारण हो जाएगा।
पर वो बाबू तुम्हें देखकर अनदेखा कर देगा। सरकारी कार्यालयों में लोगों की निजी स्वतंत्रता का इतना ध्यान रखा जाता है। कि तुम अगर सुबह से शाम तक खड़े रहोगे। तो कोई यह नहीं पूछेगा। कि आप कौन है व किस कार्य हेतु पधारे हैं। पूछताछ का नैतिक अधिकार केवल आपका ही है। और उसे आप ही को संचालित करना है।
लेकिन नासा वालों, यह गलतफहमी मत पालो। कि उन बाबूओं का जन्म तुम्हें यह सब बताने के लिए ही हुआ है। तुम दस बार पूछोगे तो एक बार उनकी गर्दन उपर होगी। बड़ी मुश्किल से वे कुछ कह पाऐंगे। क्या करें बिचारों के पास काम ही बहुत है। अब तुम्हें एक नई तकनीक का पता चलेगा। जिसे कि ‘पास’ करना कहते हैं। तुम्हें फाईल के बारे में यह पता चलेगा कि यह काम शर्मा देखता है। पर शर्मा उसे वर्मा के पास, वर्मा तिवारी के पास व तिवारी उसे मलिक के पास बताएगा। पर मलिक अंततः यही कहेगा कि यह काम वाकई गुप्ता देखता है जो फिलहाल दस दिनों की छुटट्ी पर गया हुआ है। एक बार नासा को रामखिलावन की सेवा करनी पड़ेगी। जो यह बताएगा। कि मोहल्ले की नल-लाईनों की फाईलें कौनसे बाबू के पास है।
कहते हैं कि सेवा करने से ही मेवा मिलता है। अब तुम्हें पता चलेगा कि फाईल तो मलिक ही देख रहा है।वो तो तुमने ही पता ठीक से नहीं बताया इस लिए उसने गुप्ता का नाम लिया। वो यही कहेगा कि एक तो गलती करते हो। उपर से...। पर कोई बात नहीं बुजुर्ग सही कह गए हैं। कि सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती। सो यंहा तुम सेवा करोगे तो वो अवश्य नर्म पड़ेगा। उसकी नर्माहट से उसके दिमाग का तापमान स्थिर होगा, जिससे फाईल ढूंढने में मदद मिलेगी और फिर ईश्वर की दया से दो-चार हफते जाने के बाद वह दिन आएगा। जब फाईल मिलेगी।
तुम अमरीका में रहते हो।सो फाईल मिलते ही चैन की सांस लोगे। पर साहब चाहे तुम लाख अनुसंधान करते हों। पर तुम्हारी रिसर्च यहाँ के आगे फेल है। क्योंकि अभी फाईल-अनुसंधान शेष है। यहाँ चाँद के हिसाब से थोड़े ही चलता है कि तुमने जहाँ चाहा पानी खोज लिया। अब नियम-पालिसियां भी कोई चीज है। ये सब सोच-समझकर बनाई गई है। सो अब नासा के अनुसंधानकर्ताओं, अब तुम पर अनुसंधान शुरू होएगा।
हमारे देश के शाश्वत नियमों में से एक यह है कि जब फाईल बाबू की मेज तक पहुंची है। तो उसमें दोष निकलना तय है। क्योंकि अभी तो फाईल में नाना प्रकार के दोष हैं। न जाने कितने प्रकार के अनापत्ति-प्रमाणपत्रों की जरूरत महसूस की जा रही है। न जाने कितने नियम अनदेखे रह गए हैं। तुम सोच रहे हैं। कि फाईल पूर्ण है। तो गलत सोच रहे हैं। अभी तो इसमें आधे से ज्यादा कागज तो लगे ही नहीं है। अब यहाँ पर भी कुछ महीने इसमें लगने स्वाभाविक है।
खैर इस बात में तुम्हें अधिक तकलीफ नहीं होगी। क्योंकि नासा के मिशन भी बहुत लंबे-लंबे होते हैं। एक दिन ऐसा आएगा कि नाना प्रकार की सेवाओं के बाद फाईल पूर्णता को प्राप्त कर लेगी।तुम चैन की सांस लोगे। पर साहब चैन आजकल के जीवन किसे मिला है। सो अब तुम एक नई दुनिया में प्रवेश करोगे। हमारे कार्यालयों की एक व्यवस्था से तुम परिचित होंगे। जिसे चरण-व्यवस्था कहते हैं। तुम्हें मेरे नल में पानी खोजना है। तो अब फाईल नाना प्रकार के बाबूओ, अफसरों व विभागों के चक्कर लगाएगी। यहाँ सब अपने-अपने विवेक और सेवा के अनुसार टिप्पण देंगे। पहली बात तो फाईल यह नोट लगकर बंद हो सकती है। कि चूंकि नासा एक प्राईवेट एंजेंसी है। अतः उसे यह अधिकार नहीं दिया जा सकता।
हो सकता है। तुम कुछ भारी सेवा कर दो। तो यह फाईल आगे बढ़ जाऐ । लेकिन आगे निश्चित है कि विभाग की कोई कमी नहीं नजर आएगी। एक दिन फाईल पर यही नोट लगा हुआ आएगा कि ‘प्रार्थी का प्रार्थना पत्र झूंठा है, रिकार्ड से पता चला है कि पानी की सप्लाई तो अनवरत की जा रही है।’
अब नासा वालों तुम करना हो, जो कर लो। जो चाहे। तुम पशोपेश में पड़ जाओगे। कि पानी तो मेरे नल के लिए चला है। तो फिर कहाँ गायब हो गया।तुम मेरी तरफ देखोगे। सही है साहब। कोई सरकारी विभाग वाले झूठ नहीं बोल रहे। पानी वहाँ से चलता जरूर है। बिचारे पानी की क्या औकात। सप्लाई दी जाएगी। तो जाएगा ही। पर बीच में कहां गायब हो गया। यह रहस्य का विषय है।
अजी साहब यही तो है। हमारे यहाँ यह एक बहुत बड़ी समस्या है। हमारी व्यवस्था में किसी चीज का अभाव नहीं है। जिस तरह जलदाय विभाग से मेरे नल के लिए पानी चला। उसी तरह हमारे यहाँ सब होता है। नाना प्रकार के बजट गरीबों के लिए चलते हैं, पर वो वहाँ तक नहीं पहुंचते। कई तरह की योजनाऐं उनके लिए बनती है। पर उन तक नहीं पहुंच पाती। जानवरों का चारा उनके लिए चलता है। और बीच में इंसानों के पेटों में समा जाता है।
सो अब तुम्हारी रिसर्च का विषय यही रहेगा। कि पानी चला तो था। पर पहुंचा क्यों नहीं। अब साहब यही तो परेशानी की मूल जड़ है। तुमसोच रहे होंगे इस बात का पता नहीं। तो यह तुम्हारी गलतफहमी है। जलदाय विभाग की टंकी और मेरे नल के बीच की पाईपलाईन में हजारों कनेकशन हैं। जाने कितनी जगह लाईनें मुड़ती है। विभाग वालों ने मेरे घर की तरफ मोड़ी थी। पर साहब बीच में कितने प्रभावशाली लोग हैं। जिनकी पहुंच न जाने कहाँ तक हे .
अब भैया नासा वालों, जिनके हाथ में सत्ता है, ताकत है, जो सरकार तक को मोड़ सकते हैं वो भला पाईपलाईन नहीं मोड़ सकते। सो नासा-विशेषज्ञों, इतनी जहमत मत उठाओ, मत ज्यादा खोजबीन करो। मैं पहले ही तुम्हें बता देता कि मेरे नल में पानी इसीलिए नहीं आ रहा।
अब उन पहुंच वालों के खिलाफ तुम कुछ नहीं कर सकते। चाहे तो तुम यह प्रयास भी करके देख लो। चाँद पर इंसान नहीं मिला। इसलिए तुमने झट से पानी खोज लिया और पूरी दुनिया की निगाह में बन बैठे हीरो। पर भैया यह लोग तुम्हें आतंकवादी करार देंगे। तुम्हारे खिलाफ आरोप लगा देंगे कि विदेशी ताकतें उनके जल-देवता की अवमानना कर रहे हैं। फिर भी तुम नहीं माने तो फिर तो आन्दोलन ही खड़ा हो जाएगा। अब तुम्हारे पास जान बचाकर भागने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा।
फिर तुम अमरीका पहुंचकर कभी पानी की खोज का नाम ही नहीं लोगे। इसलिए तुम हमारे देश के बाहर कुछ भी खोजो। बाहर अंतरिक्ष में जाओ। पूरा सौरमंडल ही पड़ा है। बुध, मंगल, शुक्र, शनि, तुम्हारे जंचे जहां मेरी पत्नी की बात में आकर कभी मेरे नल में पानी खोजने की बात मत कर बैठना। नहीं तो फिर तुम्हें भगवान भी नहीं बचा सकता। आगे तुम्हारी मर्जी।