बुधवार, 16 दिसंबर 2009

व्यंग्य चिठठ्ी लीक होना

अमर उजाला : 17.12.09 को प्रकाशित

भारतीय डाक-व्यवस्था को लेकर कभी मेरे दिल में श्रद्धा नहीं रही। क्योंकि एक तो उन्होंने कभी चिठठ्ी समय से नहीं पहुंचाई, दूसरा कभी गोपनीयता नहीं बरती। जब भी बीवी मायके से खत लिखती थी तो डाकिया उसे पिताजी के हाथ सौंपकर चल देता था। उस कमबख्त को कभी यह नहीं दिखता था कि उस पर मेरा नाम लिखा हुआ है और साथ ही ‘पिराईवेट’ भी लिखा हुआ है।
पर अकेले डाक-व्यवस्था को दोषी मानने से काम नहीं चलता। मेरे घर वाले भी उतने ही दोषी है। अल्पशिक्षित होने के बाद भी पत्नी जो ‘पिराइवेट’ लिखकर गोपनीयता को बनाए रखने का प्रयत्न करती थी। वो पत्र मिलने के चंद घंटों बात मां द्वारा पूरे मोहल्ले को पता चल जाती थी। मायके में बैठकर जो उद्गार वो समूचे कुनबे के लिए व्यक्त करती थी। वो कुछ देर में कुनबा जान लेता था।
लेकिन इस व्यवस्था के लिए किसे दोष दिया जाए। यह तो हमारी पंरपंराओं में शामिल हो गया है। मायके में बैठी पत्नी जानती थी कि यह चिठठ्ी ससुराल जा रही है। और उस पर ‘प्राइवेट’ लिखना उसको सार्वजनिक बनाने का खुला आमंत्रण है। पर फिर भी वो लिखती थी। आजकल भी यही हो रहा है। पार्टी का एक महत्वपूर्ण नेता चिठठ्ी लिखता हैं और वो फौरन लीक होकर सार्वजनिक हो जाती है।
यह मैं बचपन से देख रहा हूं। हमेशा यही होता रहा है। आदमी खूब ध्यान से चिठठ्ी लिखता है। आसपास देखता है, कोई देख तो नहीं रहा है। अगर कोई आसपास बैठता है तो आड़ कर लेता है। पर किसी को देखने नहीं और फिर उस पर उत्तम क्वालिटी की गोंद लगाता है और बड़े ध्यान से डाक के डिब्बे में डाल आता है। वो देखता है कि दूर-दूर तक कोई चिड़िया भी उसे नहीं देख रही। पर फिर भी चिटठ्ी लीक हो जाती है।
आजकल यही हो रहा है। बिचारे नेता पार्टी को मजबूत करने के लिए चिटठ्ी लिखते हैं, जिसको लिखते हैं, उसके पास पहुंचने से पहले ही लीक हो जाती है। आखिर ऐसा क्यूृं होता है। हमारे यहंा पिराइवेट से लेकर राजनीतिक स्तर पर चिटठियंा इतनी लीक क्यों होती है। क्यों हमारे यहंा दूसरों की चिठठियों को इतने उत्साह से पढ़ा जाता है। प्यारी पत्नी मुझे इतने प्यार से चिठठ्ी लिखती है। वो मेरे प्रति कितनी गंभीर है। कितना ध्यान है उसे मेरा। अपने दुख-दर्द मुझसे बंाट रही है। और ये मेरे घरवाले जर्बदस्ती बीच में टंाग अड़ा देते हैं। वे चिठठ्ी खोलकर सार्वजनिक कर देते हैं।
बचपन से लेकर आजतक लगातार लीक होती चिठठ्यिों की गणित मुझे समझ नहीं आई है। ऐसा क्यों होता है। बहुत सी बातें दिमाग में घूम रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि चिठठ्ी लिखी ही इसलिए जाती है। कि लीक हो सके। अगर लीक न करवाना हो तो शायद लिखी ही नहीं जाए।
जिन चिठठ्यों के लिए मैं अपने घरवालों से नाराज हो गया, या जिसे मैं पत्नी द्वारा एक पति को प्यार से लिखा जाना समझ रहा था। वो कहीं उसने जान-बूझकर घरवालों को अपने प्यारे उद्गारों से परिचित कराने के लिए तो नहीं लिखा। कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं बीच में कहीं था ही नहीं। कहीं यह बात तो नहीं है कि उसने जानबूझकर ‘पिराइवेट’ इसीलिए लिखा कि उसे जरूर से जरूर मेरे पिताजी ही खोलें। यानी कि मैं उस चिठठ्ी का नायक नहीं अपितु केवल एक माध्यम ही था।
अब मुझे भी विश्वास हो गया है कि ‘लीक-प्रथा’ के पीछे पंरपरा चल रही है। आदमी को अपना दर्द जमाने तक बंाटना होता है और लीक होने वाली चिठठ्ी लिख बैठता है। वो जिसे लिखता है उसे वाकई चिठठ्ी नहीं लिखता बल्कि उसका उदद्ेश्य यही होता है कि उसे वो लोगों तक पहुंचा सके।
यह सब जानकर मैं पीड़ा से भर गया हूं। अब मुझे घरवालों पर बिल्कुल गुस्सा नहीं आ रहा है। वे भी बिचारे क्या करें। उनका भी इस्तेमाल हुआ है। वे उस चिठठ्ी को लीक नहीं करते तो क्या करते। अब मैं भी कुछ करने की सोच रहा हूं। पर क्या करूं। एक कड़ी चिठठ्ी लिखता हूं। पर पेन उठाते ही हाथ कंापने लग जाते हैं। आप सोचते होंगे क्यांे, अरे भई चिठठ्ी लीक हो गई और पत्नी के हाथ पड़ गई तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा। इसलिए बंद करता हूं।

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