शनिवार, 28 अगस्त 2010

व्यंग्य बरखा का अदभुत सौन्दर्य

 डेली न्यूज़ / जयपुर में 28/08/2010 को प्रकाशित व्यन्ग






कहते हैं कि भगवान देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। वाकई आजकल मानसून के साथ यही चल रहा है। कहां दो महीने पहले हम पानी की बूंद-बूंद को तरस रहे थे। और आज आलम यह है कि चारों ओर बारिश का भरपूर नजारा देखने को मिल रहा है। आज इन नजारों को गइराई से देखा जाए तो न जाने कितने मेघदूतों का जन्म हो जाए। वातावरण अत्यन्त सुहाना लग रहा है। चारों ओर गंदे पानी के भरे हुए गडडे मन को मोह लेते हैं। गर्मी के दिनों में सूखे गडडे, जो निरंतर गहराई दिखने के कारण शर्मिंदा थे, अब लबालब भरे हुए पानी ने उन्हें ढक लिया है। जिस तरह झील पर पंछी उडते हुए बहुत सुखद प्रतीत होते हैं।उसी तरह गडडें पर मच्छर के लार्वा पंछियों की तरह क्रीड करते मन को मोह लेते हैं।

सडकें, सडकें न लगकर आईस स्केट का मैदान प्रतीत होती है। यहां पर आदमी चलता कम है और फिसलता अधिक है। इस पर छाया मिटटी और कीचड पर्यावरण चेतना को बढावा देता है। अब पर्यावरणवादी चारों ओर कंक्रीट के जंगल का रोना नहीं रोते। क्योंकि सभी जगहें कीचड और मिटटी से ढकी हुई है। यह भविष्य के प्रति अच्छे संकेत हैं। हम एक सुनहरे कल की ओर बढ रहे हैं। हमारी यह अदभुत सडके कल से न केवल चलने के काम आएगी। बल्कि इन पर छाई मिटटी पर हम खेती भी कर सकेंगे। हो सका तो अगले एशियाड में स्केटिंग के स्टेडियम पर करोड़ों रूपए खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि यह काम द्राहर की सडकों पर बखूबी किया जा सकेगा।

वर्षा ने चारों ओर एक अद्‌भुत माहौल बना दिया है। सब-कुछ सुहाना लग रहा है। आओ फिर हम क्यों घर में चुपचाप बैठे हैं। बाहर सडक में छाए इस अदभुत नजारे से लोग अत्यन्त भावुक हो गए हैं। उनकी आंखे भीगी हुई हैं। उनके आंसू थम नहीं पा रहे हैं। घर-घर में 'आई-फलू' जो हो गया है। यही नहीं, डेंगू और स्वाईन फलू, जिन्हें लोगों ने बिल्कुल ही भुला दिया था। अब पुनः अपने लोगों के बीच पधार आए हैं। यही नहीं, नाना प्रकार के वायरस, जो पूर्व में अत्यन्त गर्मी के कारण विचलित थे। वे अत्यन्त सुहाने मौसम को पाकर फिर से लोगों के बीच में आ गए हैं। पीलियायुक्त लोगों के चेहरे सूर्य के समान दमक रहे हैं। डाक्टर प्रफुल्लित हैं और क्लीनिक पर लगी भीड़ को देखकर फूले नहीं समा रहे हैं। भांति-भांति के मरीज उनके उत्साह में अत्यधिक वृद्धि कर रहे हैं।

पशुओं का सूखा भी अब खत्म हो गया है। नाना प्रकार के पशु जो प्रायः सड कों पर बैठे रहते थे, पूर्व में उन्हें गर्मी दूर करने के लिए पोखर व गडडों की तलाश में न जाने कितने किलोमीटर घूमना पडता था। अब उनकी परेशानियां दूर हो गई हैं। सडकें ही छोटे-मोटे पोखर व गडडों में तब्दील हो गई हैं। वे इतने आराम हैं। कि वहीं चर लेते हैं व वहीं मल-मूत्र विर्सजन कर लेते हैं। उनके इस कर्म से समूचा वातावरण सुगंधमय हो गया है। सड कों पर जगह-जगह हुए गोबर व मिटटी को देखकर गांव के लिपे-पुते आंगन याद आ रहे हैं।

चारों ओर हर्ष का माहौल है। सड के बनाने वाले ठेकेदार अत्यन्त हर्ष की मुद्रा में है। जो सडक स्वाभाविक रूप से टूटने जा रही थी, अब उसका श्रेय वे वर्षा को देकर प्रसन्न हैं। और तो और वे इन टूटी हुई सड कों को निहारकर भविश्य के टेंडर को पाने की कल्पना से फूले नहीं समा रहे हैं।

अधिकारीगण भी खुश हैं। टेंडर खुलेंगे तो उनके घर में भी खुशियों की बहार आएगी। लोग जो पूर्व में सडकों की दुर्दशा से दुखी थे, वे यही सोचकर सुखी है कि भविष्य में एक दिन फिर इन पर डामर की अत्यन्त महीन चादर फिर चदेगी

सो बाहर निकलकर यही गुनगुना लें। 'आज रपट जाऐं तो....' अब साहब बाहर निकलेंगे तो फिसलेंगे तो सही। तो गिरते-गिरते गुनगुनाने में क्या हर्ज है।

कोई टिप्पणी नहीं: