नई दुनिया संडे में 6.12.09 को प्रकाशित
आजकल मैं बहुत परेशान हूं। क्या करूं, हाजमा ही ठीक नहीं रहता। थोड़ा सा भी ज्यादा खा लेता हूं। तो पेट दुखने लग जाता है। बहुत से डाक्टरों को दिखाया। पर कोई फायदा नहीं हुआ। सभी यही खाते हैं कि पेट का ध्यान रखो। घर पर बीवी से कहता हूं तो वो मुंह बनाती है। ‘ऐसे निगोड़े पेट का भी क्या फायदा, जिसमें दो रोटी भी नहीं पचती। अब लोगों को देखो, हजारों करोड़ो का घोटाला कर जाते हैं और डकार भी नहीं लेते।’
अब मैं भी क्या करूं। मुझे अपने आप पर बहुत शर्म आती है। वाकई लोग इतने बड़े-बड़े घोटाले कर रहे हैं। हजारों करोड़ रूपए वारे-न्यारे हो जाते हैं। जब भी इनका जिक्र होता है, मैं अपने पेट की ओर देखता हूं। कमबख्त दो सूखी रोटी से ही भर जाता है। पर इनके पेट कितने बड़ें हैं, हजारों करोड़ रूपयों से भी नहीं भर पाते। कितना भी खाते हैं पर सब समा जाता है। जितना घोटाला करते हैं, उतनी ही भूख प्रबल होती चली जाती है। देश में निरंतर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।अभी कोड़ाजी को ही लो। इतनी कम उम्र में उन्होंनंे यह कमाल कर दिखाया है। एक गरीब मजदूर परिवार में जन्में कोडा के नाम दो हजार करोड़ रूपए का घोटाला दर्ज किया गया है। आखिर कितना मजबूत हाजमा चाहिए। यूं ही कोई दो हजार करोड़ रूपए पचा सकता है।
पर अब क्या किया जा सकता है। हमारा देश धीरे-
धीरे मजबूत हाजमे का देश होता जा रहा है। यहंा भंाति-भांति के लोग हैं। तो भंाति-भांति के पेट भी है। सबकी क्षमता अलग-अलग है। कोई हजार रूपयों में चूं बोल जाता हैं। तो कोई हजार रूपए खाने के बाद डकार नहीं लेता। पर लाख रूपयों पर दिक्कत देने लगता है। कई पेट विविधता लिए हुए रहते हैं। वे हर जगह का पानी पचा लेते हैं। यदि कृषि विभाग में रहते हैं, तो बीज से लेकर कीटनाशक, फसलों तक का बजट हजम कर जाते हैं। वो ही रोडवेज में चल जाऐं तो पेट््रोल, डीजल और यदि सिविल में पहुंच जाऐ तो सीमेंट, लोहा व मजदूरों की मजदूरी तक पचा जाते हैं। और तो और यदि देवस्थान विभाग में पहुंच जाए तो देवताओं के प्रसाद तक से परहेज नहीं करते। राजनीतिक पेट इनमें सर्वोपरि है। इनके पाचन की कोई सीमा नहीं है।
और आजकल तो इन पेटों के साथ एक दिक्कत और हो गई है। कि रोजाना खाने की आदत से इनका कोटा बढ़ गया है। एक निश्चित मात्रा में अगर इन्हें खाने को नहीं मिले तो वे कुछ भी कर सकते हैं। राजनीतिक पेटों के साथ यह बीमारी आम है। इसीलिए वे किसी भी कीमत पर सत्ता का प्रसाद चाहते हैं। इसी से उनके पेट की क्षुधा शांत होती है। इसी कारण से जब सत्ता का सवाल होता है। तो वे सारे सिद्धंात, नियम ताक पर रखकर सत्ता वाली पार्टी से जुड़ जाते हैं। बिचारे करें भी क्या। आखिर पापी पेट के लिए इतना तो करना ही पड़ता है। कुर्सी मिल जाए तो फिर पेट हमेशा सही रहता है।
आजकल मैं भी बस इसी फिराक में रहता हूं। कि मेरा हाजमा भी थोड़ा ठीक हो जाए। कम से और कुछ नहीं तो रिश्वत की मिठाई तो पचा सकूं। बीवी का पेट, जो रूखा-सूखा खाकर खराब हो गया है। तो वो तर माल खाने लायक हो जाए। अब कोई अच्छी जगह ट्र्ंासफर की कोशिश कर रहा हूं। थोड़े घोटाले’ के एंजाईम मिलेंगे। तो पाचन-तंत्र अपने-आप सुधर जाएगा। अब अपने हाथ में है ही क्या। बस ईश्वर से यही प्रार्थना कर सकते हैं। जैसे दूसरों की सुनी, वैसे ही मेरी भी सुन ले। अब मंाग भी थोड़ा ही रहा हूं।
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