रविवार, 15 नवंबर 2009
व्यंग्य प्यारी दालों के नाम
प्यारी दालों, तुम ऐसी बेवफा निकल जाओगी। यह मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। तुमसे प्यारा तो मुझे जीवन में और कुछ लगा ही नहीं। क्योंकि मेरा और तुम्हारा तो जनम-जनम का साथ है। जबसे होश संभाला, तुम्हें ही तो इर्द-गिर्द पाया। गरीब की जिन्दगी में भला और हो भी क्या सकता है। कभी बापू को कहते देखता, ‘हंा, बस दाल-रोटी चल रही है।’ या लोगों को गाते सुनता, ‘दाल-रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ।’ इतने बरसों से सब ठीक चल रहा था। हम दोनों का साथ-साथ बिल्कुल ऐसा था। जैसे सूरज और किरन, समुद्र और लहरें। जहंा मैं पाया जाता था, वहां तुम भी बनी रहती थी। सब्जियों ने हमेशा मुझसे एक दूरी बनाए रखी।मैं दूर खड़ा-खड़ा ईष्या-भाव से उन्हें निहारता रहता था। इठलाती-बलखाती भिंडिया, गोल-मटोल आलू, फूल सी खिली हुई गोभी और मनिहारी मटर, अक्सर मुझे आर्कषित करती थी। टमाटर के गुलाबी गालों को देख उन्हें छूने का मन करता। पर दाम देखकर हिम्मत न जुटा पाता। ऐसा नहीं था कि मनमोहक सब्जियंा हमेशा ही इस गरीब की पहुंच के बाहर रही। कभी-कभी मौसम में बहुत ही सस्ती भी हो जाती थी। पर चूंकि आदत न बिगड़ जाए, इसलिए मन होते हुए भी नहीं लाता था। सोचता था, मेरा और तुम्हारा तो जनम-जनम का साथ है। एक पल भर के स्वाद-सुख के बदले भला मैं जन्म-जन्मंातर के संबंधों को दांव पर क्यूं लगा दूं। पर तुमने बदलते हुए ऐसा नहीं सोचा। तुम थोड़ी मंहगी हुई। मैंने सोचा कि प्यार में कभी-कभार ऐसा हो ही जाता है। रूठना-मनाना तो संबंधों में जीवन-भर चलता ही रहता है। पर मैंने तुम्हारी ‘थोड़ी नाराजगी’ की चिन्ता नहीं की। मैंने दाल बनाते समय पानी अधिक मिला लिया। तुम और मंहगी हुई तो और पानी डाल दिया। पर धीरे-धीरे तो तुम मेरी पहंुच से इतनी बाहर हो गई। और सब्जियों के साथ तो क्या तुम उनसे भी आगे जाकर खड़ी हो गई। मैं बस दूर खड़ा-खड़ा देखता रहता हूं। सचमुच जब नमक-मिर्ची के घोल से रोटी खाता हूं। तो तुम्हारी बहुत याद आती है। और फिर तुमक्या गई, जीवन में से सब चला गया। अब सभी ने साथ छोड़ दिया है। गेहूं अंाख दिखाने लगा है, तेल पहले से ही रूठ गया था। सस्ती सब्जियंा तो अब मौसम में भी नहीं रही। हरी मिर्ची, धनिया और लहुसन, जो गरीब की चटनी का सहारा होते थे, वे अब दूर हो गए हैं। शक्कर भी इतनी मंहगी हो गई कि नाम लेते ही मंुह में कड़वाहट घुल जाती है। मजदूरी का काम मिलना और मुश्किल हो गया है। तुम्हारे लिए मैंने क्या-क्या नहीं किया। सरकार के पास भी गया। उसने भी दिलासा दी। कि हम जल्दी ही वापस लाऐंगे। मैंने सोचा मेरी दुनिया फिर से आबाद हो जाएगी। पर अब तो सरकार ने भी हाथ खड़े कर दिए। साफ मना कर दिया। तो क्या हम हरदम के लिए जुदा हो जाएंगे। क्या गरीब और दाल के अमर प्रेम के संबंध हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे। फिर कहावतों का क्या होगा। तुमने तो इतिहास ही बदल दिया। और अब भला मैं क्या कहूं। भले ही मैं गरीबी की रेखा के नीचे बसर करने वाला गरीब हूं। पर हिन्दी फिल्में तो देखता ही हूं। सो चंादी की दीवार न तोड़ने वाली बेवफा। तू अमीरों की थाली में ही खुश रह। और अब इतने के बाद मैं कह भी क्या सकता हूं। सूखी रोटी खाओ और प्रभु के गुण गाओ। -----मोबाईल-- 094142 26981 शरद उपाध्याय, 175 आदित्य आवास गोपाल विहार, कोटा-1 324001
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9 टिप्पणियां:
बहुत उम्दा लेख है वाह
kya yad dila diya.narayan narayan
बढिया है.
durust farmaya aapis daal ne to amiri garibi ka fasla hi mita dia ha...har kisiki pohoch se bahar ho rahi ha...daal hi kya...har ek chiz...
apka vyang kafi rochak ha...aur sadha hua ha..apko padna accha laga..aage b aise hi lekh padna chahungi...kuch aisa hi likhti hu me..dekhiyega mere blog par...
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
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हाहहाहा वाह भाई मज़ा आ गया
.....kahin daal patli hai to kaheen daal gal hi naheen rahee .....!
Becharee dalen...unka astitv to mausam aur insaam pe munhasar hai!
URL ke liye dobara comment kar rahi hun!
http://shamasansmaran.blogspot.com
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