नवभारत टाईम्स 2.12.2009 को प्रकाशित
वे इन दिनों आत्मविश्लेषण कर रहे हैं। यह एक आम तथ्य है। हार के बाद लोग अक्सर ऐसा करते पाए जाते हैं। जीतने का अतिविश्वास था, लेकिन हार गए इसलिए ऐसा सोचना जरूरी भी है। यह सब अकस्मात ही हुआ, जीतना बिल्कुल तय सा लग रहा था कि अचानक यह परिणाम सामने आया। मन है कि मानने को तैयार ही नहीं होता। आखिर कोई इस तरह से कैसे हार सकता है। गीता की इस टिप्पणी पर उन्हें कभी विश्वास नहीं होता था। कि सब-कुछ क्षणिक है, उन्हें लगता था कि यह कथन उनके लिए नहीं बल्कि विपक्षी दलों के लिए बना है। उनकी सत्ता तो स्थाई है, शाश्वत है और चिर्-काल तक चलने वाली है।
पर प्रतिकूल परिणाम आए और वे सत्ता से बाहर हो गए। अब बाहर हो गए तो कुछ करना तो है। बैठे-ठाले क्या करेगें। पहले तोे टाईम नहीं मिलता था। पर अब क्या करें तो आजकल चिंतन प्रारंभ कर दिया है। आखिर कुछ तो करना पड़ेगा नहीं तो लोग तरह-तरह की बातें करेगंे। हालंाकि उन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की। कभी किसी की नहीं सुनी। लोग कहते-कहते थक जाते थे पर उनका ध्यान उनकी तरफ नहीं जाता था। लेकिन वे इसे भी नहीं मानते, वे कहते हैं कि सब-कुछ गलत है। जनता झूठ बोलती है। उन्हें कभी आवाज नहीं सुनाई दी। ऐसी बात नहीं कि उन्होंने कोशिश नहीं की। उन्हें बार-बार बुदबुदाने की आवाज आती थी। पर वो उनके कानों तक आ नहीं पाई। वे इसे कान की बीमारी समझ रहे थे। सोच रहे थे चुनाव जीतते ही इसका आपरेशन करवाऐंगे। दो कान अतिरिक्त लगवाने का भी प्लान था कि इतने में परिणाम आ गए।
हारना हमेशा दुःखद होता है। ऐसा नहीं कि वे पहली बार हारे। पहले भी हारते रहे है पर हमेशा की तरह उन्हें यह हारना बुरा लगा। इन पंाच सालों में उन्होंने कितना सब किया, सभी लोगों को कितने आश्वासन, वादे बंाटे। कितना सुधार किया। इतने अल्प-समय में और हो भी क्या सकता था। वो तो यही सोचे बैठे थे कि पंाच साल और मिलेंगे तो सभी की शिकायतें दूर कर देंगे। पर अब क्या हो सकता है।
हारते ही मन में दर्द उठा। दर्द उठता ही है। क्या करें अब पंाच साल कैसे कटेंगे। अब तो यह पांच साल तो पहाड़ों से लग रहे हैं। पर कोई बात नहीं टाईम तो पास करना ही होगा। आराम भी कहंा तक करें, गप्पें भी कहंा तक हंाकें। फिर ऐसा करने से कहीं जनता यह न समझ बैठे कि वे कुछ नहीं कर रहे। इसलिए चिंतन प्रांरभ कर दिया है।
समूचे राज्य में सभी स्तरों पर यह चिंतन चल रहा है। जब हारने नहीं चाहिए थे तो क्यों हारे। आखिर क्या बिगाड़ा था उन्होंने जनता का जो वोट जैसी तुच्छ चीज नहीं दे पाई। इस भौतिकवादी युग में उन्होंने कौनसा सोना-चांदी मंागा था सिर्फ साधारण सा समर्थन तो मंागा था वो भी जनता नहीं दे पाई।
पर अब भीषण चिंतन प्रारंभ हो गया है। सब लोग सोचने में लग रहे हैं। पंाच साल से कुछ सोचा नहीं तो दिमाग की नसें तनने लगी है। पर वे फिर भी सोच रहे हैं। सभी लोग कहते हैं कि उन्हें नीचे तक झंाकना चाहिए। अरे पर वे भी क्या करते। सत्ता के दिनों में वे अजीब सी बीमारी का शिकार हो गए थे। गर्दन ऊपर के अलावा कहीं घूमती ही नहीं थी। नीचे तक निगाह गई ही नहीं। ऐसा नहीं कि उन्होंने चिन्ता नहीं की। उन्होंने बहुत इलाज कराया। पर कोई फायदा नहीं हुआ। लेकिन अब चुनाव हारते ही यह सब तरफ घूमने लगी है बल्कि ऊपर उठना ही भूल गई।
गली-गली यही बातें हो रही है। एक और महत्वपूर्ण बात सामने आई। कि उन्हें नीचे के कार्यकर्ताओं की ओर ध्यान देना चाहिए। वाकई यह कितनी महत्वपूर्ण बात है। वे अब व्यथित हैं आखिर ऐसी भूल कैसे हो गई। अब ये लोग कितने अपने से लग रहे हैं, पर वे उन दिनों से बेगाने से कैसे लग रहे थे। बिचारे कैसे उनके आस-पास मंडराते रहते थे। छोटे-छोटे कामों के लिए कितने हाथ जोड़े पर वे पता नहीं क्यों नहीं कर पाए। अब उन्हें ग्लानि हो रही है। मन कर रहा है कि उन्हें गले से लगाकर रोंऐ। पर अब कोई गले लगने को तैयार नहीं है। सभी नाराज बैठे हैं। किन्तु उन्हें विश्वास है कि वे सभी को मना लेंगे। अभी वैसे भी पंाच साल पड़े हैं। ये पंाच साल इन्हीं के साथ चिंतन करते-करते ही तो बीतेंगे। थोड़ी बात थोड़ी मनुहार, साथ उठना-बैठना व चिंतन करना सब ठीक कर देगा।
हालांकि सभी इस बात पर एकमत हैं कि जनता से भूल हो गई है। जनता राह भटक गई है। भोली-भाली जनता को बरगलाया गया है। पर उन्हें यह सतत् विश्वास है। कि आगे से वो ऐसी गलती नहीं करेगी। अगली बार वो उन्हें ही वापस लाएगी। आखिर सुबह का भूला शाम को घर लौटता है तो भूला नहीं कहलाता। बस यही विश्वास है। अब और क्या करें इसलिए चिंतन ही प्रारंभ कर दिया हैं सो अब यही सब चल रहा है।
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