अमर उजाला में 12.01.2010 को प्रकाशित व्यंग्य
वो मुझे बहुत अच्छी तरह जानता था। बल्कि यूं कहिए, वो मेरी सात पुश्तों तक से परिचित था। हमारे संबंधों का स्तर इसी बात से पता चलता है कि उसे यह भी मालूम था कि मुझे मूंग व उड़द की दाल की तुलना में अरहर की दाल अच्छी लगती थी। पर जब वो सामने पड़ा तो बिना नमस्कार लिए निकल गया। उसकी इस हरकत से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। यह स्वाभाविक था। अब मैं उस पद पर नहीं रहा था, जिस पर उसका काम पड़ता रहता था।
क्या करंे, पद चीज ही ऐसी है। पद पर रहे तो सब पूजते हैं। पद से उतरे नहीं कि सामने वाले कि सामने वाले की श्रद्वा आदि सब गायब हो जाती है। पूजा-अर्चना, भेंट-चढ़ावा सब इतिहास के अंग बन जाते हैं।
लेकिन केवल पद पर रहना, व्यक्ति को जमीन से उपर नहीं रखता, उसके लिए ‘काम’ का पद होना भी आवश्यक है।
भगवान की दया से और आर्शीवाद से मुझ गरीब के पास भी एक काम का पद था, किन्तु एक दिन अचानक वो पद जाता रहा और मुझे लगा, सब कुछ बदल गया। वो, जो मेरे न चाहते हुए भी निकटस्थ था, अब लाख चाहने के बाद भी ‘दूरस्थ’ हो गया। वो जो मेरे पास घंटों बैठे हुए ‘मन बहलाता‘ रहता था, अब नमस्कार करने के लिए समय का अभाव प्रदर्शित करने लगा।
पहले वो मेरे पास आकर चुपचाप बैठ जाता था। मुझे नाना प्रकार के आदरणीय संबोधनों से महिमामय कर देता था। कभी-कभी उसकी बातों से मुझे लगता था कि मैं ‘स्वर्गमय’ हो गया हूं व मैंने अपने ग्राहकों के लिए देवता का अवतार धारण कर लिया है।
वो मेरा ‘अपनों’ से भी अधिक अपना था। मेरे बच्चों की पढ़ाई की जितनी चिन्ता उसको थी, उतनी स्वंय बच्चों को नहीं थी। कभी मेरा कोई परिवारजन बीमार पड़ता, तो वो खाना-पीना छोड़ देता। कई बार मैंने, उसी के पैसों से प्रायोजित ‘जूस कार्यक्रम’ द्वारा उसका ‘आमरण अनशन’ तुड़वाया। कभी मेरे किसी रिश्तेदार की मृत्यु हो जाती तो मैं उसे संात्वना दिलाते-दिलाते थक जाता। मुझे उसे बतलाना पड़ता कि यह संसार का नियम है, जो व्यक्ति इस संसार में आता है, उसे जाना ही पड़ता है। दुख करने से कोई लौट नहीं सकता, किन्तु वह ‘भौतिकवादी’ बड़ी मुश्किल से मेरे अध्यात्म को समझ पाता।
मेरी पत्नी को कौनसी कंपनी की साड़ियंा अधिक आर्कषित करती थी, यह उसे पता था। अपने सामान्य ज्ञान का प्रदर्शन वो समय-समय पर करता रहता था। बच्चों का वह ‘सर्वप्रिय अंकल’ उनकी गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकार्डस में लगातार ‘सर्वश्रेष्ठ अंकल’ का खिताब जीतता रहता था। बच्चों के सभी खेलों की विस्तृत जानकारी उसके दिमाग में फीड थी। और वो अपने बच्चों को भले ही समय न दे। लेकिन मेरे बच्चों को कभी इस बात की शिकायत नहीं होने दी। बीवी और बच्चों की जन्मतिथि उसे कंठस्थ थी। जन्मदिन पर सबसे पहले बधाई का हक उसी का रहता था और उसके रहते हुए इस अधिकार को कोई भी हासिल नहीं कर पाया था। केक, मोमबत्ती, डेकोरेशन और गिफट सब उसी का काम था।
मुझे चिंता है अपने दादाजी की आयुर्वेदिक दवाइयों की, जिसकी अनवरत आपूर्ति अब उसके अभाव में कैसे संभव हो पाएगी। आज तककभी ऐसा नहीं हुआ। कि दादाजी के इलाज में कोई कोताही हुई हो। दवाईयां लाते-लाते वो खुद ही छोटा-मोटा वैध बन गया था।
किन्तु अब किया क्या जा सकता है। पद जाते ही मन स्वतः दार्शनिक बन गया है। बुद्व कह गए हैं कि परिवर्तन संसार का नियम है। कोई वस्तु अथवा पदार्थ स्थाई नहीं रहता। ‘पद’ भी एक अस्थाई पदार्थ है। अतः उसके लिए क्या दुख करना। जब बड़े-बड़े दिग्गजों के नहीं रहे तो अपन तो क्या हैं।
जब बड़े-बड़े लोग पदों पर रहने के बाद नीचे आते हैं तो वे भी तो अपने आपको संात्वना दिलाते हैं। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री व मंत्री आदि स्तर के लोग भी तो जीते ही हैं। सो इन्हीं महान पुरूषों से शि़क्षा लेकर डटा हुआ हूं। बस अब तो इस आस में जिंदा हूं कि कब पुनः लाभ के पद की प्राप्ति हो और पत्नी, बच्चों व दादाजी के मुरझाऐ हुए चेहरों पर बहार आ सके। कब बच्चों के सर्वप्रिय अंकल उनके लिए दिन-रात सौगातें लेकर आऐंगे। कब बीवी की शापिंग लिस्टें सक्रिय होगीं। कब दादाजी प्यार से उसके हाथों से खुराक का स्वाद चखेंगें। मुझे विश्वास है। यह दिन जल्दी ही आएगा।यदि बसंत के बाद ‘पतझड़’ आती है तो पतझड़ के बाद पुनः एक दिन बसंत आएगी। अब ये कब आएगी, यह कौन बता सकता है। मेरे हाथ में तो इंतजार करना है और वो मैं कर रहा हूं।
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