शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

सरदी का एक दिन

अमर उजाला में 30.12.2009 को प्रकाशित


रोजाना की तरह आज भी लेटा। सबसे पहले रजाई में से मुंह निकाला। लेकिन सर्द हवा के कारण उसे पुनः रजाई में देना पड़ा। पर हर स्थिति का एक अंत होता है, सो उठना ही पड़ा। घर का फर्श बर्फ की चटट्ानों सा प्रतीत हो रहा था। बाहर निकलकर देखा सूरज भी मेरी तरह ठिठुर रहा था।
दो-तीन चाय पीकर शरीर इस हालत में आया कि वो थोड़ा हिल सके। शरीर में हरकत होने से श्रीमतीजी का नहाने संबंधी प्रस्ताव आया, जिसे मूल्यवान जल का महत्व समझाते हुए नकार दिया। मैं अपनी इस उपलब्धि पर बहुत खुश था, लगातार सात दिन न नहाकर मैंने कितने अमूल्य जल की बचत की थी।
तभी पत्नी ने मुझे फ्रिज से आटा व सब्जी निकालने को कहा, मैं कंाप गया। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। सो मैंने शरीर को भली-भंाति कम्बल में लपेटा व सावधानी से फ्रिज का दरवाजा खोला। ढके होने के बावजूद शीतलहर का झोंका शरीर को ठिठुरा गया। मैं फौरन रजाई में घुस गया।
थोड़ी देर बाद श्रीमतीजी नाश्ता लेकर आई। सर्दी के दिनों में डाईनिंग-रूम वीरान पड़ा रहता है। बेडरूम का कार्यभार अधिक बढ़ जाता है। नाश्ते के बाद एक नींद लेकर मैंने खाना भी वहीं खाया। आफिस का सही समय निकले एक घंटा बीत चुका था। श्रीमतीजी दुश्मन की तरह मुझे बार-बार आफिस की याद दिला रही थी। क्या करूं, मजबूरी में जाना ही पड़ा।
नाना प्रकार के वस्त्रों में लद-फदकर मैं आफिस की ओर चल पड़ा। मुझे लग रहा था कि बुलेट प्रूफ कपड़े ऐसे ही होते होंगे। अगर गोली भी घुसेगी तो शरीर को नहीं छू पाएगी।
आफिस पहुंचा तो डेढ़ घंटे लेट हो चुका था। चपरासी वहीं धूप में स्टूल लगाकर बैठा हुआ था।
‘क्या बात है बाबूजी, आज जल्दी आ गए। अभी तो कोई नहीं आया।’
मुझे पत्नी पर गुस्सा आ गया। इतनी जल्दबाजी भी ठीक नहीं है। ये शर्मा व वर्मा तो बिस्तर में दुबके रहे होंगे। और यहंा हम सर्दी में परेशान हो रहे हैं। हम भी कोई कम थोड़े ही है। मैंने चपरासी को आवाज लगाई और कुर्सी धूप में निकालने को कहा। चपरासी निरपेक्ष भाव से मुझे देखता रहा। शायद आवाज उसके कानों तक पहुंचने से पहले जम गई थी। हारकर मैं ही कुर्सी निकाल लाया। लंच टाईम तक काफी लोग आफिस आ चुके थे।
कुछ लोग काम के लिए आए भी, उन्हें शीतलहर खत्म होने के बाद आने को कहा। क्या करें, ठंड के मारे पेन ही नहीं खोला जाता। फाईलों के फीते ठिठुरन के मारे खुल ही नहीं पाते। लोगों को भी चैन नहीं है, भरी सर्दी में काम के लिए चले आते हैं।
जाने कैसे आफिस में टाईम पास होता है। मैं ही जानता हूं। सब कुछ चाय के ही सहारे चल रहा है। चाय नहीं होती, तो कैसे पार पड़ता। सूरज छिपने से पहले ही पंछी घोंसलो की ओर चल दिए। शाम की चाय पीने के बाद फिर बिस्तर में घुस गया। फिर खाने की बात होने लगी। बातों की शुरूआत स्वास्थ्य निखारने की बातों से होती है। हरी सब्जियों से प्रारंभ होती हुई फिर नाना प्रकार के पराठों पर खत्म हो जाती है।
सो इसी तरह चल रहा है। ठंड के मारे सारा देश कंाप रहा है। सारा काम ठप्प पड़ा है, लाख कोशिश कर रहे हैं पर हाथ है कि बाहर निकलने का नाम ही नहीं लेते। क्या कह रहे हैं, आप कोशिश करके देखेंगे। अरे रहने दो, थोड़ी गर्मी आ जाने दो, क्यों परेशान हो रहे हो। थोड़े दिन काम नहीं करेंगे तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। सो बस बैठे हैं।


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