नवभारत टाईम्स में 5.01.2010 को प्रकाशित व्यंग्य
आजकल कुछ समझ ही नहीं आ रहा। पत्नी का मन करता है। कि कार ले ली जाए। बच्चेका मन करता है कि लैपटाॅप ले लूं। तो मेरा मन करता है कि गरमी बहुत लगती है। तो एक ए.सी. ही लगवा लूं। बच्ची का मन एक वीडियो कैमरा लेने का कर रहा है।
आप सोच रहे होंगे। कि क्या इस बार मेरी कोई लाटरी ही निकल गई। पर ऐसा कुछ नहीं है नहीं जनाब यह सारी महिमा किश्तों की है। जिनकी वजह से आजकल मैं ऐसे सपने देखने की हिम्मत कर पा रहा हूं। मेरी भी हालत अजीब सी है। मेरी जेब में एक भी पैसा नहीं हैं। मैं बहुत समझा रहा हूं। पर बाजार में सुनने वाला नहीं है। मैं कह रहा हूं। भई कहंा से चुकाउंगा। पर वे हंस रहे हैं। अरे सब आ जाएगा। आप तो बस ले जाऐं।
मैं भ्रमित हूं। क्या ले जाउं, क्या नहीं ले जाउं। पत्नी व बच्चों की अलग-अलग फरमाईशें है। मैं परेशान हूं। पर देने वाले परेशान नहीं है। वे कहते हैं। सब ले जाउं। अरे भाभीजी कह रही है, बच्चे कह रहे हैं, उनका दिल मत तोड़ो। भाभीजी तो साक्षात देवी हैं और बच्चे तो भगवान के रूप हैं। आप भला उनका दिल कैसे दुखा सकते हैं।
उनकी बात सुनकर मैं चकरा जाता हूं। पत्नी मेरी है, कभी मैनें इतनी चिन्ता नहीं की। बच्चों के बारे में भी वे सोच रहे हैं। बस ले जाइए। क्या है, मामूली सी किश्तें हैं। चैक दिए और फ्री हो लिए।
मैंने दोनों जेबें उसके सामने खाली कर दी। भई कुछ भी नहीं है। पर वो सुन ही नहीं रहा। कोई बात नहीं हंड्र्ेड परसेंट फाईनेंस करने को तैयार है। वो चीजें ही नहीं बेच रहा, दार्शनिक भी है। अरे ले जाओ भाईसाहब। क्या कहा आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। अजी साहब, आजकल आर्थिक हालत तो पूरी दुनिया की खराब है। आप अपनी बात कर रहे हैं। अब अमरीका को ही लो। साहब जो पूरी दुनिया पर राज करता था। आज लोंगो के सामने हाथ पसारे खड़ा है। पर क्या लोग वहंा नहीं जी रहे। आज भी साहब मजे से जी ही रहे हैं। खूब खा पी रहे हैं। अब भाई साहब, भाभीजी की इतनी इच्छा है। कार लेने की तो ले ही लीजिए। कम से उन्हें सोसायटी में नीचा तो नहीं देखना पड़ेगा।
पत्नियंा, जिन्हें कि प्रायः पति को छोड़कर सारी दुनिया की बात सही लगती है।उसे भी लगने लगा कि कार से सार्थक वस्तु तो इस दुनिया में बनी ही नहीं। पर फिर बात पेट्र्ोल पर आकर अटक जाती है। मैं समझाता हूं। कि कार लेना कोई बड़ी बात नहीं है। पर पेट्र्ोल और रखरखाव में बजट धराशायी हो जाएगा। बीवी भी बिचारी इच्छा होते हुए भी चुप रही। पर बेटी फरमाईश कर बैठी।
फिर क्या था, दुकानदार पीछे ही पड़ गया, ‘अजी साहब, अब तो ले लीजिए, बेटी कह रही है। आज थोड़ा घूम भी लेगी, कल से पराए घर जाना है। वहंा पता नहीं कैसा घर मिले। आज आप के राज में थोड़ा सुख भोग लेगी। कल का किसे पता नहीं।’
पत्नी भावुक हो गई। ‘सच कह रहे हो, पर भाईसाहब। पर ये तो कभी ऐसी बात सोचते भी नहीं।’
मैं भला क्या कहता। चुप रहने में ही भलाई थी।
आधुनिक अर्थव्यवस्था का नया रूप था। सब कुछ जायज था। बस चिन्ता एक ही थी कि किसी तरह माल बिके।
पर पत्नी भी कह उठी,‘ वैसे आप सही कह रहे हो भाई साहब पर बात यह है कि इतने रूपयों की किश्त कैसे अफोर्ड कर पाऐंगे। हमें तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा।’
वो खिल उठा।,’ आप अच्छी चिन्ता कर रही हैं बहिनजी। हम काहे के लिए हैं। हम हैं ना। किश्तों का समय बढ़वा देंगे। एकदम कम बोझ पड़ेगा। अरे बहिनजी किश्त देने वाले हम थोड़े ही हैं। सब भगवान देता है। उसकी मर्जी के बिना आप गाड़ी ले सकते हैं क्या। जिसने चोंच दी है, वो चुग्गा भी देगा।जो गाड़ी दिलाएगा, वो किश्त का भी जुगाड़ करेगा।’
अंततः क्या करते। लेनी ही पड़ी। सो बस आजकल यही चल रहा है। पूरा बाजार पीछे पड़ा है। अखबार इन्हीं चीजों से हुआ है। ‘इतने कम दामों में पहली बार’ ‘टी0वी0 के साथ डी0वी0डी0 फ्री’ या ‘ करोड़ों के ईनाम’ं। आदमी भी कहंा तक संघर्ष करे। किश्तों के सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं। परिवार भी क्या करे। बस कागज-कलम लेकर बैठा है। रोज नई-नई गणित लगाते हैं। तन्खवाह में से इतने पैसे किश्त में गए। तो बाकी में खर्चा चल ही जाएगा। कैसे भी गुजारा कर लेंगे। दो हजार रूपए की तो बात है। दादाजी वाला कमरा किराए पर दे देंगे। उनका सामान दुछत्ती में शिफट कर देंगे। और कुछ खर्चे कम कर देंगे। कम से कम सामान तो आ जाएगा।
सो आजकल सब-कुछ किश्तमय हो रहा है। आप मुझ पर हंस रहे हैं। पर जनाब, आप अपने आपको देखिए। मुझे तो आप भी किश्तों के भंवर में ही डूबते नजर आ रहे हैं।
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