हम लोग डेली न्यूज में 10.01.2010 को प्रकाशित
आखिर बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया। एक दिन सोकर उठा मेरे लेखकीय जीवन की अदभुत घटना घट चुकी थी। मैं पुरस्कृत हो चुका था। बहुत दिनों से मन में इच्छा थी कि पुरस्कृत हो जाउं। लिखते-लिखते इतने दिन हो गए थे। लोग भी शक की निगाह से देखने लग गए थे।
जब भी किसी को पुरस्कार मिलता। परिचित मुझसे व्यंग्यात्मक स्वर में पूछते, ‘क्या बात है, काफी दिनों से आपका नबंर नहीं लग रहा। सबको मिल गया।‘ पत्नी तक नाराज थी। ‘पता नहीं कागज काले-काले कर क्या करते हैं। अब तो कहीं से जुगाड़ कर लो। मायके वाले बार-बार पूछते हैं। मुझे तो बड़ी शर्म लगती है। पापा तक कहते हैं कि किसी से कहलवाना हो तो मैं कहूं क्या।’
मैं क्या जवाब देता। मैं भी बहुत कोशिश में था, पर कोई देने को तैयार ही नहीं था। कई बार बहुत नजदीक तक पहुंचकर भारतीय क्रिकेट टीम की तरह वंचित रहा। शहर में पुरस्कृतों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। जो पुरस्कार पा चुके थे वे मुझे हेय दृष्टि से देखने लगे थे।
इन दिनों मैं खूब लिख रहा था, छप भी रहा था। मैं बार-बार उनके सामने अपनी रचनाऐं लेकर जाता था। पर वे उसे छूते तक नहीं थे। वे अपने लेखन को कालजयी मानते थे। उन्हें मेरा लेखन क्षणिक लगता था। वे सदैव मुझे ऐसा लिखने को कहते थे जो लोगों को जगा सके। पर मेरे बारे में सदैव यही मानते थे कि जब मैं स्वंय ही सोया हुआ हूं तो भला लोगों को कैसे जगा सकता हूं।
पर अंततः वो दिन आ ही गया। मुझे पुरस्कार मिल गया। मुझे लगा मेरी जैविक गतिविधियंा बदल चुकी है। पुरस्कार पाकर मुझे वही
अनुभूति हुई। जो संभवतः बुद्ध को बोधिज्ञान पाने के फलस्वरूप हुई होगी।
पुरस्कृत लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनकी नजर में कल तक तो ऐसा कुछ था नहीं। साहित्य तो कहीं से पुरस्कार मिलने लायक नहीं था। शक्ल से जुगाड़ लायक आदमी भी नहीं लगता। पर हो सकता है। आजकल कुछ कहा नहीं जा सकता। किसी के चेहरे पर लिखा तो नहीं है। कहीं पैसे-वैसे का चक्कर तो चला नहीं लिया। शुरू में वे असहज रहे। पर क्या कर सकते थे, मजबूरी थी, अब मिल ही गया था, सो उन्हें अपनी बिरादरी में शामिल करना ही पड़ा।
इधर मेरे हाव-भाव भी बदल गए। कल तक, मैं भी पुरस्कार को साहित्य का मापदंड नहीं मानता था। जब भी कोई पुरस्कार की बात करता तो मैं फौरन लड़ने वाली स्थिति में आ जाता था। पर अब मुझे लग रहा था कि वाकई पुरस्कार के बिना साहित्यकार का आकलन नहीं हो सकता। एक पुरस्कृत व गैर-पुरस्कृत में तो जमीन-आसमान का अंतर होता है। कल तक मैं पैदल चलता था तो मेरे कदम बड़ी मुश्किल से उठते थे। आज मुझे लगने लगा कि मैं हवा में तैर रहा हूं।
लोग, जो मेरे नजदीक थे, वे और नजदीक आए। लोगों के पास आने से मुझे अपनी गरिमा का बोध हुआ और मैं थोड़ा उपर हो गया। उपर होने से मुझे नीचे के लोग छोटे-छोटे दिखने लगे। जिससे मुझे बड़े होने की गलतफहमी हुई।
अब चूंकि मैं पुरस्कृत हो चुका था। तो लोग मेरे पास आने शुरू हो गए। मेरे साथ वाले भी कहने लगे, ‘अब तो आपका सम्मान हो ही जाना चाहिए।’
मैंने भी उनकी बातों का समर्थन किया। ‘हंा, अब तो हो ही जाना चाहिए।’ बरसों से दूसरों का सम्मान कर-करके परेशान था। दूसरों को माला पहनाते-पहनाते हाथ दुखने लगे थे। अब तो गर्दन में भी खुजली चलने लगी थी।
पत्नी ने भी इसे सहजता से लिया। ‘हंा, मिल गया, अच्छी बात है। बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था। पापा की बात मानते तो बहुत पहले ही दिला देते। इनकी तो आदत ही बहुत खराब है। किसी का अहसान लेना ही नहीं चाहते। खासकर मेरे घरवालों का तो बिल्कुल नहीं।’ अड़ौस-पड़ौस वालों ने भी मान लिया कि मैं भी कुछ हूं।
पर मुझे इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं जान गया हूं। यह शरीर मात्र मिटट्ी है। यह संसार चार दिनों का मेला है। तीन दिन तो पुरस्कार पाने के चक्कर में चले गए। अब एक दिन बचा है, तो क्यों न पुरस्कार रूपी ‘निर्वाण’ का सुख भोग हूं। सो आजकल मैं इसी में मगन हूं। कोई भला कुछ भी कहे।
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