शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

व्यन्ग विवाद के बिना

नई दुनिया में 15-10-10 को प्रकाशित व्यन्ग
 

आजकल कुछ मन नहीं लग रहा है, बिलकुल मजा ही नहीं आ रहा। कुछ भी हमारे मनमाफिक नहीं हो रहा है। अब कोई विवाद ही नहीं चल रहा। अयोध्या प्रकरण में शांति रही। कॉमनवेल्थ गेम्स भी अच्छी तरह निपट गए। भारतीय खिलाड़ी भी ठीकठाक चल गए। फिल्म-जगत में शांति है। नेताओं के बयान भी उधम वाले आ रहे हैं लेकिन फिर भी कोई विवाद नहीं हो रहा। सचमुच ऐसे बुरे दिन तो हमने कभी देखे नहीं।

भई, हम तो शुद्ध हिंदुस्तानी हैं। घर से लेकर राजनीति के मंच पर बिना विवादों के जी नहीं पाते हैं। हमें तो हर चीज में विवाद की आदत पड़ी हुई है। शुरू से संयुक्त परिवार में रहे हैं। यही देखते आ रहे हैं। बचपन से ही मां प्रोत्साहित करती रहती थी कि कैसे चुपके से दादा-दादी की बात सुनी जाए और फिर उन्हें नमक-मिर्च लगाकर पिताजी को सुनाया जाए और मां के पक्ष में एक अच्छा सा विवाद खड़ा किया जाए।

बड़े हुए तो देश की किस्मत भी परिवार की तरह हो गई। सरकारें भी पूरी तरह संयुक्त परिवार पैटर्न पर चलने लगीं। कितने ही दल, कितने ही समर्थन। नाना प्रकार के विवाद, नाना प्रकार की बातें। लोगों की विवादात्मक आत्मा अधिक ही जाग उठी। कभी किसी ने किसी धर्म को कुछ कह दिया और दंगे हो गए। कभी किसी की बात का कोई मतलब निकाल दिया और झट से शहर बंद, राज्य बंद और देश बंद कर दिया। मीडिया की महत्ता अधिक बढ़ी तो भाई लोग सुर्खियों में आने के लिए तरह-तरह के विवाद पैदा करने लगे। साहित्य, कला, फिल्म, पत्रकारिता, खेल, सामाजिक सेवाएं और राजनीति आदि में विवाद घुसने लगे। सभी जगह विवाद। अब तो ऐसी आदत पड़ गई कि सुबह चाय के साथ एक विवाद नहीं मिले, तो हाजमा बिगड़ जाता है। अब ऑफिस में भी कहां तक काम करें। जब तक चाय की दुकानों पर दो-चार घंटे इन चीजों पर बहस नहीं कर लेते थे, तब तक मजा ही नहीं आता।

पर अब तो सब कुछ सूना-सूना लग रहा है। कैसा जमाना आ गया। कहां तो हम एक साधारण-सी बात को पकड़कर पूरे शहर में धूम मचा देते थे। कोई बोले तो विवाद, कोई न बोले तो विवाद। पर अब देख रहे हैं कि सब जगह शांति है। यह देश कैसे चलेगा। हमारा क्या, हम तो ऑफिसों के किस्सों से भी विवाद उठा लेंगे। पर इन राजनीतिक हस्तियों का क्या होगा। ये तो यही मानकर चल रहे हैं कि एक राजनेता का सच्चा कर्तव्य यही है कि वो विवादों को वैज्ञानिक ढंग से उठाए, सामाजिक तौर से प्रस्तुत करे और राजनीतिक ढंग से फायदा उठाए।

इतनी विवाद लायक बातें हो रही हैं। पर जनता के कान पर जूं ही नहीं रेंग रही। पहले तो विवादों से ही सरकार बन और बिगड़ जाती थी। पर अब कुछ नहीं हो रहा। सो कम से कम मेरे लिए नहीं तो उनके लिए तो जरा सोचो। विवादों के बिना जग कितना सूना है
 
   
   


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व्यन्ग सड़क

अमर उजाला में १४-१०-१० को प्रकाशित व्यन्ग



प्यारी सड़क। तुम्हें प्यारी शब्द का संबोधन इसलिए नहीं दे रहा हूं कि तुम रूप और रंग में कैटरीना कैफ को मात दे रही हो। इस शब्द का प्रयोग यहां दार्शनिक रूप में किया जा रहा है, क्योंकि तुम अब अल्लाह को प्यारी हो गई हो।
तुम्हें देखकर भारतीय दर्शन में मेरा विश्वास गहरा हो गया है। दर्शन में कहा गया है कि सब कुछ क्षणिक है। सच ही तो कहा गया है, तुम ठीक से जन्म ले भी नहीं पाती हो कि मौत के नजदीक पहुंच जाती हो। किसी-किसी सड़क को देखकर तो लगता है कि उसकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि एक ही है। कई बार सड़कें प्रसूति काल में ही दम तोड़ देती हैं।

बहुत समय पहले सुना था कि ढाका की मलमल बहुत ही महीन होती है। पर तुम्हारी परत तो उसे भी मात कर देती है। इतनी बारीक लगती हो कि कभी-कभी जमीन और तुममें कोई फर्क ही नहीं लगता। इसी से पता चलता है कि सड़क निर्माण की कला कितनी निपुणता हासिल कर चुकी है।

वर्षा ऋतु जा चुकी है। सभी लोग प्रसन्न हैं। ठेकेदार भी प्रसन्न हैं कि तुम्हारी अकाल मृत्यु के जो इलजाम उन पर लगने वाले थे, वे अब वर्षा को ट्रांस्फर हो जाऐंगे। ठेकेदार न केवल पुरानी सड़क का खून करने के आरोप से मुक्त होंगे, बल्कि नई सड़क के टेंडर से आह्लादित भी होंगे।

हे सड़क, तुम केवल सड़क नहीं हो, गड्ढे, पोखर, चरागाह, सभा-स्थल, निर्माण सामग्री वहन स्थल और न जाने क्या-क्या हो। कीचड़ भरा पोखर तलाशते मवेशी अब तुममें ये सारी विशेषताएं पाकर धन्य हैं। स्वाइन फ्लू और डेंगू के मच्छर तुम्हारी ही शरण में विकास की ओर अग्रसर होते हैं।

आज जहां लोग अलगाववाद की साजिश रच रहे हैं, वहां तुमने अपने एक ही स्वरूप से देश को एकता के अद्भुत सूत्र में बांध रखा है। जम्मू-कश्मीर से कन्याकुमारी तक तुम एक जैसी नजर आती हो। वही डामर और सीमेंट रहित, गड्ढों और कीचड़ से युक्त, उन्मुक्त जानवरों के समूहों से सुसज्जित, कचरों से शोभित।

तुम अपने छोटे से जीवन में दूसरों के लिए जीती हो। सरकार बहुत कम कीमत में सड़क बनवाकर प्रसन्न है, ठेकेदार उस कम कीमत में से भी कमीशन देने के बाद लाभ कमाकर खुश है। जनता भी हर साल नई सड़क पाकर प्रसन्न है।

भारतीय दर्शन के मुताबिक, तुम आत्मा की तरह मरकर भी अजर- अमर हो। बेशक तुम मर चुकी हो, लेकिन जल्दी ही नए टेंडर निकलेंगे। तब तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। बस इसी विश्वास के कारण तुम्हारी बार-बार अकाल मृत्यु मुझे उतना दुखी नहीं करती।

शरद उपाध्याय

व्यंग्य बीवी और सरकार

डेली न्यूज़ में 13-10-10 को प्रकाशित  

सरकार से मुझे हमेश शिकायत रही है। वो हमेशा मेरे लिए कोई न कोई परेशानी खड़ी कर देती है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। सरकार ने कॉमनवेल्थ का आयोजन क्या कर लिया। मेरी तो मुसीबत ही खड़ी हो गई है। बीवी ने नाक में दम कर दिया है। घर आता हूं तो बस वो पीछे पड जाती है। वो यही कहती है कि 'तुमने घर का क्या हाल बना रखा है। कोई भी आता है, इसका हाल देखकर नाक-भौं सिकोड लेता है। मेरे घर वाले भी अब ताने देने लगे हैं। अब तो फर्नीचर बदल दो, कार ले आओ। थोडा स्टेटस ऊँचा करो अब तो सहेलियां भी हंसी बनाने लगी है। मुझे तो बहुत ही शर्म आती है।'

मैं उसे समझाता हूं, बैंक की पासबुक बताता हूं, नाना प्रकार के उधार के बिल पेश करता हूं। यहां तो घर के राशन तक के लाले पड रहे हैं। मुन्ना की फीस का प्रश्न है। मुन्नी को डाक्टर ने खून की कमी बताई है, उसे अच्छी खुराक देनी है। यह भी बताता हूं। कि दो महीने गांव मनीआर्डर नहीं कर पाया। अम्मा-बाउजी मुसीबत में है। गांव का घर साहूकार के पास गिरवी रखकर रोटियां चल रही है। सो तुम्हारी कार, सोफे कैसे ले आउं।'

पर वो हंसती है। कहती है कि अकेले तुम्हारी ही हालत खराब थोड़े ही है। सरकार को भी देखो। वो भी तो कॉमनवेल्थ करा रही है। उससे तो तुम्हारी हालत मुझे बहुत ठीक लगती है।कहीं से भी उधार ले लो।आजकल मुए लोन देने के लिए पीछे ही पड़े रहते हैं। मैं उसे बहुत समझाता हूं, कहता हूं। देख लोन लेना बड़ी बात नहीं है। पर भई लोन चुकाना भी तो पड़ेगा यह सब कैसे होगा।वो फिर झुंझलाती है। 'सारी दुनिया की बातें तुम मुझे ही समझाते हो। सरकार को नहीं देखते। अकेले तुम्हारे साथ ही तो मुसीबत नहीं है। बिचारी सरकार ही कितनी परेशानियों से घिरी रहती है। जरा उसे ही देखो। कितनी मंहगाई बढ़ रही है। लोगों का जीना दुश्वार हो गया है। पर सरकार के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं है। कश्मीर का हाल बुरा हो रहा है। दिन-रात आतंकवादी घटनाऐं पीछा नहीं छोड ती। नक्सलवादी कभी भी उधम कर बैठते हैं। कहीं बाढ है, तो कहीं सूखा हो जाता है। कभी साम्प्रदायिकता सिर उठा लेती है। इतने पर भी बिचारी इतना बड़ा भंडारा कर रही है। नासपीटे मेहमान कितनी हंसी उड़ा रहे हैं, बार-बार धमकी दे रहे हैं, खाने से लेकर सभी चीजों की क्वालिटी में मीनमेख निकाल रहे हैं। पर सरकार कितनी शालीनता से इन्हें झेल रही है।'
मैंने धीरे से यही कहा,' देखो, इतना बड़ा खर्चा करूंगा। तो फिर बाकी चीजों के लिए पैसा कहां से लाउंगा। भई, जो तुम खर्चे बता रही हो और फिर जो जिम्मेदारियां हमारे उपर है। इन्हें देखकर मेरा हार्ट अटैक नहीं हो जाए।'

वो झुंझला गई,' अब जिम्मेदारियां अकेले तुम्हारे उपर ही है। क्या करते हो तुम। असली जिम्मेदारियां देखनी है। तो सरकार को देखो। कितनी बुरी हालत में है। क्या है खजाने में, कर्जा ही कर्जा है। फिर भी इतना बड़ा भंडारा करा रही है। खाने को दाने नहीं है फिर भी पांच पकवान खिला रही है और फर्स्ट क्लास अरेंजमेंट। क्या शाही ठाठ-बाट से अतिथियों की सेवा कर रही है। और एक तुम हो, जरा सा मेरे घर से कोई आ जाए तो तुम्हारा मुंह चढ जाता है। और दिल की बात तो तुम करो ही मत। दिलदार होना तो कोई हमारी सरकार से सीखे।देखो, पाकिस्तान से दिन-रात कलह चल रही है, मुआ आतंकवादी भेजता रहता है और दूसरी ओर सरकार के खींसे में कर्जे के अलावा कुछ नहीं है। खुद के बाढ पीढितों के पास खाने को नहीं है। पर दिल देखो, झट से करोड़ों डालर दान में दे दिए।'कहकर उसने हिकारत भरी नजर से मुझे देखा।

अब मैं क्या करता। फिर भी अंतिम हथियार फेंक ही दिया।,' देखो, घर का हाल बुरा है। मुन्ने की तबियत कभी ठीक नहीं रहती। मुन्नी को डाक्टर ने अच्छी डाईट खिलाने के लिए कहा है। और फिर अम्मा-बाबूजी.......'

पर उसने वाक्य पूरा ही नहीं करने दिया,' बस रहने दो... अकेले तुम्हारे घर में ही बीमारी है। कभी सरकार का हाल देखा है। वो बिचारी कभी कहती नहीं है तो क्या । उसका तो पूरा कुनबा ही बीमार है। कोई स्वान फलू से जूझ रहा है, कोई डेंगू से पीड़ित है। लाखों लोग टी०बी० के शिकार हे , बच्चे कुपोषण से पीडित है। दवाईयों के अभाव में रोजाना हजारों लोग दम तोड देते हैं। पर कभी वो किसी के सामने रोना रोती है। आज तक सरकार के मुंह से एक भी बात नहीं सुनी। क्या शान से जीती है और एक तुम हो.. दो जनों की क्या जिम्मदारी आ गई। बस घबरा गए।' कहकर वो कोपभवन में चली गई।

और मैं.... मेरे पास करने को है ही क्या। मैं तो बस लोन के फार्म लेकर बैंको के चक्कर लगा रहा हूं। बस कहीं से भी कर्जा मिल जाए और बीवी की इच्छा पूरी हो जाए। सरकार की लाईफ स्टाईल ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा.

 

 

 

 

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

व्यंग्य कॉमनवेल्थ नियमावली

नई दुनिया में आज दिनांक 4-10-10 को प्रकाशित व्यंग्य



कॉमनवेल्थ गेम्स केवल खेल नहीं, राष्ट्रीय पर्व हैं और पर्वों को सफल बनाने के लिए हमें कुछ व्रत लेने पड़ते हैं, कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। अतः यह भव्य आयोजन सफल बनाने के लिए हमें भी कुछ करने की जरूरत है। आशा है, आप हमेशा की तरह निराश नहीं करेंगे।

सर्वप्रथम, हमें चेहरे पर मुस्कराहट का स्थायी भाव रखना पड़ेगा। यह जरूरी है क्योंकि हमने सभी मेहमानों से कह दिया है कि "अतिथि देवो भव"। क्या पता वे इसे सही मान बैठे हों। सो आप सभी लोग इस बात का ध्यान रखें। अब हो सकता है कि पीछे से कोई मच्छर आपको काट रहा हो। आपको डेंगू का भय सता रहा हो। लेकिन सावधान, उन्हें बिल्कुल नहीं एहसास दिलाना है। हालांकि यह एक मुश्किल काम है क्योंकि इतनी विषम परिस्थितियों में रहने के कारण तुम मुस्कराना भूल गए हो। पर देश के लिए इतना त्याग तो करना ही पड़ेगा। लगातार मुस्कराने के कारण हो सकता है तुम्हें खांसी आने लगे पर खांसना मत। अतिथियों के नाजुक मन पर स्वाइन फ्लू का भय आ गया तो हमारी तो नाक ही कट जाएगी।

यातायात के नियमों के पालन न करने की तुम्हारी जन्मजात आदत है पर उसे कुछ दिन के लिए सुधार लेना। अगर तुम्हें लगे कि तुम्हारी आजादी पर कुठाराघात है तो घर से ही मत निकलना। मन न माने तो जी कड़ा कर लेना क्योंकि आयोजन को सफल बनाने में लगी भारतीय पुलिस तुम्हें डंडा भी मार सकती है। इस डंडे को प्रेमभाव से स्वीकार करना। विरोध करने पर देश की छवि बिगड़ सकती है। अगर कुछ दिन लाइट व पानी की परेशानी हो तो उसे हंसकर स्वीकार करना। तुम्हें कुछ कहना नहीं है।

हालांकि भारतीय पुलिस सजग है लेकिन फिर भी यदि कोई तुम्हारा पॉकेट मार ले, घर में चोरी कर ले तो खेलों के सफलतापूर्वक संपन्न होने का इंतजार करना। रिपोर्ट की जल्दी मत करना। कोई गुंडा बदमाश छेड़े या लूटपाट करने की कोशिश करे तो दे-लेकर निपटा लेना। लुट जाना, पिट जाना। कहीं पुलिसवाला सामने भी दिख भी जाए तो आवाज मत लगा बैठना। समूची पुलिस एक महत्वपूर्ण समारोह संचालित करने में जुटी है। तुम्हें उसे डिस्टर्ब नहीं करना है। यूं तो भिखारियों को हम पहले ही बाहर भिजवा चुके हैं लेकिन फिर भी घर से बाहर निकलो तो नहा-धोकर, साफ कपड़े पहनकर निकलना, नहीं तो उन्हें लगेगा कि तुम वापस आ गए हो। अगर तुम्हें कोई अतिथि स्लम की ओऱ जाता हुआ दिखाई दे तो उसे उधर जाने मत देना। कुछ भी झूठ बोल देना। घबराना मत। हम भी तो इतने समय से बोल रहे हैं।

हमें कुछ भी करना पड़े। पर इन खेलों को सफल बनाना है। ७० हजार करोड़ रुपए स्वाहा हुए हैं। भूखे मरो, बीमार मरो, असुविधा में जीओ पर हमें देश की छवि का तो खयाल करना ही है

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शनिवार, 25 सितंबर 2010

व्यंग्य जड़ मजबूत करने का दर्शन

नई दुनिया सन्डे में 26-09-10 को प्रकाशित व्यन्ग



आजकल मैं राष्ट्र की जड़ें मजबूत करने में लगा हुआ हूं। बहुत दिनों से सरकार पीछे पडी हुई थी। मान ही नहीं रही थी। बार-बार कह रही थी, भई कर लो। सो क्या करता। मजबूरी में करना पड़ा
हमारी यही आदत है। हम अपने आप कुछ नहीं कर पाते। जब कोई कहता है। तो ही कुछ करते हैं। जनसंखया बढाए जा रहे थे, सरकार ने कहा भई नियंत्रण करो। नारा दिया कि हम दो हमारे दो। तो हमें सोचना पड़ता . नहीं तो दो तो कभी हमारी आदत में ही शामिल नहीं थे। जब तक एक टीम नहीं बना लेते थे, तब तक चैन नहीं लेते थे। ऐसी स्थिति में नियंत्रण करना मुश्किल काम था। पर क्या करते सरकार ने कहा तो करना पडा
पर अभी चैन से बैठे नहीं थे ये राष्ट्र की जड़ें मजबूत करने की बात आ गई। अब हम तो साहब फिर सोच में पड गए। एक अकेला आदमी क्या-क्या करे। पर ठीक है भाई इन कमबखत जड़ों का भी कुछ करते हैं। चाहे कुछ भी करना पड़ें पर मजबूत करके ही दम लेंगे। जब परिवार जैसी चेतन चीज ही कम कर ली तो ये जड तो कहां ठहरती है।
अब परेशानी यही आ गई कि आखिर ये कमबखत जड़ें कमजोर क्यों हुई। क्या बात हो गई। सरकार मजबूत करने के लिए कह रही हैं तो इसका मतलब यही हुआ कि वो मान कर चल रही है कि जड़ें कमजोर है। भई मिटटी-मिटटी पर भी करोंडो रूपए खर्च होते हैं। भांति-भांति की खादें भी दे ही देते हैं। अच्छी-खासी गोंद भी तो डालते हैं फिर ऐसा कैसे हो गया।'
काम करना ही शुरू किया था। कि सरकार भी मिल गई। सरकार हमें काम करते देखकर आशंकित हो गई। गठबंधन सरकारों के जमाने में ऐसा हो जाता है कि हर काम को शक की निगाह से देखा जाता है। हमने आश्वस्त किया कि ऐसी कोई बात नहीं है। हम केवल राष्ट्र की जड़ मजबूत करने के लिए आए हैं और वो भी उसी के कहने पर। सरकार बार-बार कहती रहती है कि राष्ट्र की जड़ें मजबूत करें। सो आ गए।
सरकार वहां बैठी हुई थी। मैंने पूछा,' तुम यहां क्या कर रही हो। क्या तुम भी राष्ट्र की जड़ें मजबूत करने में लगी हो।'वो हंसी,' हां, हमारा ध्यान भी जड़ों की ओर ही है। पर हम इन दिनों पार्टी की जड़ें मजबूत करने में लगे हैं। बस पार्टी की जड़ें थोड़ी ठीक-ठाक सी हो जाऐं। ये गठबंधन वाले कभी भी कुछ कह देते हैं। कभी भी पौधे को हिला देते हैं। पौधा एक ओर लटक जाता है और जड़ें हिल जाती है। और फिर दूसरों की क्या कहें। ये अपने क्या कम है। आते-जाते ही झिंझोड जाते हैं।'
'पर राष्ट्र की जड़ों का क्या करें। इनमें कैसे गड़बड़ी हो गई। सुना है मिटटी में ही मिलावट थी।'
सरकार एक मिनट के लिए सोच में पड गई। 'अब भैया मिटट्‌ी की क्या कहें। अपनी मिटटी क्या कम खराब हो रही है। अब थोड़ी मिलावट हो भी गई होगी। आजकल जमाना ही मिलावट का है। हर चीज में मिलावट है। आदमी को आदत ही मिलावटी चीज खाने की हो रही है। अब बच्चे को शुद्ध दूध दे दो तो दस्त हो जाऐंगे। पचेगा कैसे। सो उसमें भी कहीं मिलावट कर दी होगी।'
'सुना है जड़ों को जो खाद दी है। उसमें नाइट्रोजन थोडा कम था।'
'अब भैया, जब इतनी बड़ी दुनिया में ऑक्सीजन कम हो रहा है। कार्बनडाई आक्साइड बढ रहा है। तो इतने से खाद के कट्टे की बिसात ही क्या है। जो नाईट्रेजन को रोक सके।'
'पर यह सब सरकार को भी तो देखना तो चाहिए।'
'भैया सरकार क्या-क्या देखे। सरकार खुद सरकार को देखे। विपक्षियों को देखे। मंहगाई डायन को देखे। मंत्रियों को देखे, किस-किस को देखें। अब कॉमनवेल्थ कराया था कि विपक्ष में जड़ें मजबूत होगी। पर भाई लोग न जाने कौन से टेन्ट-हाउस में पहुंच गए। कमबखत ने सामान की कीमतों से ज्यादा ही किराया वसूल लिया। तुम भी कुछ करो न प्लीज।'
अब मैं क्या कहता बस आजकल जड़ें मजबूत करने में लगा हुआ हूं। क्या करूं बिचारी सरकार के पास तो समय ही नहीं है।

व्यंग्य हमारा जेल दर्शन

डेली न्यूज़, हम लोग में २६-०९-१० को प्रकाशित व्यन्ग


 
 
भारतीय जेल सेवा आपका हार्दिक स्वागत करती हैं। हम सदैव अपने भाईयों की सेवा को तत्पर है एवं सर्वश्रेष्ठ सेवा देने का वादा करते हैं। विश्व में नाना प्रकार की जेलें हैं। उनमें हमारी जेल अनूठी हैं एवं सर्वश्रेष्ठ हैं।
हम कोई भी काम करते हैं तो सबसे पहले अपनी संस्कृति का ध्यान रखते हैं। इसलिए हमने अपनी सेवा का यही मोटो बना रखा है 'अतिथि देवो भवः'। हमारी जेल में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को हम देवता की संज्ञा ही नहीं देते वरन्‌ देवत्व के आधार पर 'यथासंभव' ध्यान भी रखते हैं। हम सदैव यही मानकर चलते हैं। कि गलती सभी करते हैं, कौन गलती नहीं करता। अब इस अभागे की तो किस्मत ही खराब थी, जो पकड़ा गया, अब पकड़ा गया तो कानून तो इसे सजा देगा, बिल्कुल मानेगा नहीं। बिचारा अबोध प्राणी सबूत तक नहीं मिटा पाया। अब इसने तो कर दिया लडकपन, कानून ने भी दे दी सजा। पर हम ऐसा नहीं कर सकते। भई सीधी सी बात है 'अतिथि देवो भव'।
अब कोई भी हमारे यहां आए। हम तो सदैव सर्वश्रेष्ठ सेवा देने का वादा करते हैं। बेहतर पैकेज, बेहतर सुविधाऐं। हमारा तो यही सिद्धांत हैं। कोई हमारे भरोसे ही अपना घर-बार छोड कर यहां आया है। अब यहां भला मन से कौन आता है। बिचारे मजबूरी में ही आते हैं। उनकी मजबूरी देखकर ही हमने अत्यन्त निम्न दरों पर बेहतर सुविधाऐं प्रदान की है। अब एक भला आदमी, आवेश में आ गया। किसी का सिर फोड दिया, किसी की जेब काट दी, कोई घोटाला कर दिया, बिचारा भला ही तो था इसलिए पकड ाई में आ गया। बुरा होता तो हत्थे चढता क्या।
अब हम भी तो भले आदमी ही हैं। हम तो पूरी कोशिश करते हैं। कि जैसे यह अपने घर में रह रहा था, वैसा ही माहौल उसे यहां दे। अगर वो घर पर चिकन-बिरयानी खाता था। रोजाना सोमरस का पान करता था। जर्दे-सिगरेट का शौकीन था। तो हमें क्या परेशानी है। हमारी जेलें कोई घर से कम है क्या। भई खूब मजे से खा। हम तो पक्के समाजवादी हैं। तू भी खा, हम भी खाऐंगे। दोनों भाई मिलकर खाऐंगे। क्या फर्क पडता है, पूरा देश ही खा रहा है।हमारा देश विकासशील देश है। निरंतर प्रगति की ओर अग्रसर हो रहा है। पुरातन जेल व्यवस्था में जो चिट्टी -पत्री लिखने की तकनीक थी, उसे हमने पीछे छोड़ दिया है। हमारी यह कोशिश रहती है कि यथासंभव सभी कैदी-भाईयों को संचार की नई सुविधाओं से अवगत कराऐं। नाना प्रकार की मोबाईल कंपनियों को हम सेवा का अवसर देते हैं। इससे देश का विकास होता है और कैदियों व अन्य 'सामाजिक' लोगों में मानवीयता और सद्‌भाव पनपता है। नहीं तो व्यक्ति बिचारा पांच साल के लिए जेल आया। तो लोग तो उसे भूल ही जाऐंगे। इसलिए हम कोशिश करते हैं। कि वो मोबाईल पर सभी लोगों के सम्पर्क में रहे।
आजकल तकनीक के अनोखे कमाल देखने को मिल रहे हैं। लोग घर बैठे मोबाईल के जरिए अपना व्यवसाय चला रहे हैं। हमने भी इस तकनीक को अपना लिया है। चूंकि अभी प्रयोग के स्तर पर है इसलिए कुछ 'चुनिंदा' लोगों को ही हम सुविधा देते हैं। अभी केवल बड़े-बड़े 'भाई', कुछ प्रभामंडल वाले नेताओं को ही इसका प्रयोग करने की अनुमति दे दी है। इनकी सफलता से हम इसे आम कैदियों को भी देने की सोच रहे हैं। हम तो यही चाहते हैं कि सरकार इसे नेट से जोड़ें और लोगों को वीडियों क्रांफ्रेस आदि की सुविधाओं से जोड़ा जाए। जिससे सरकार की आय भी बढ सके।
और फिर हम तो कर्म के सिद्धांत पर चलते हैं। अब इतना बड़ा भाई है, बिचारा कितनी मेहनत कर रहा था, मुम्बई से दुबई तक की भाग-दौड में लगा था, स्मगलिंग, सट्टा, फिक्सिंग से लेकर सुपारियां लेने के कर्म उसे करने पडते थे। अब दुर्भाग्यवश वो हमारे हत्ते लग गया तो क्या हम उसकी प्रतिभा को जंग लगने देंगे। नहीं हम ऐसा पाप नहीं करते। उसे मोबाईल सुविधा प्रदान कर उसे कर्म-पथ की ओर अग्रसर करते हैं। उससे इतना अच्छा व्यवहार करते हैं कि उसे लगता ही नहीं कि जेल में है।
और इससे तो हमारी संस्कृति का 'सर्वे भंवतु सुखिनः' का सिद्धांत फलित होता है कि सभी सुखी हों। मामूली दरों पर सुविधा पाकर भाई भी खुश, हम भी खुश सब खुश। अब हम भी खुश होंगे ही। भई 'कुछ' घर पर लेकर जाते हैं। तो बीवी तो खुश होगी ही, बच्चे भी नई-नई चीजें पाकर आह्‌लादित हो उठते हैं। यही सच्चा 'सर्वे भंवतु सुखिनः' का सिद्धांत है।
अब कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं। कि पुलिस के रहते हुए भी कभी-कभी जेलों में कितने भंयकर झगड़े होते हैं। लोग मर तक जाते हैं। तो भैया, झगडे कहां नहीं होते। तुम तो घर में रहते हो। बिल्कुल अलग-अलग, सगे भाई हो, एक ही मां के कोख से जन्मे। तुम भी तो एक-दूसरे के खून के प्यासे हो। तो यहां तो कितना बड़ा संयुक्त परिवार है। कितनी सारी विचारधाराऐं हैं। सो कभी-कभी ऐसा हो भी जाता है।इसलिए इसे अन्यथा नहीं लेना चाहिए।
हम तो इतना अच्छा माहौल देते हैं, सुविधाऐं देते हैं। फिर भी कुछ लोग जेल को अछूत की संज्ञा देते हैं। तो हम उनके लिए भी सोचते हैं। हमारा दिल कितना बड़ा है। वे भले ही हमारी जेलों को अपवित्र मानें। पर हम दया का परिचय देते हैं। उन बिचारों को भी बीमार घोषित कर अस्पताल में भर्ती कराने की सुविधा भी प्रदान करते हैं।
अब आप से तो क्या छिपा है। हमारी जेलों ने इतनी तरक्की की है। कि यहां से सरकार तक चल जाती है। कभी-कभी दुर्भाग्यवश ऐसा हो जाता है कि कोई महान विभूति ऐसे में शिकंजे में आ जाती है। तो हम उन्हें विशिष्ट का दर्जा देकर उन्हें सभी सुविधाऐं प्रदान करते हैं। उनके लिए स्पेशल जेल तक की व्यवस्था तक हो जाती है। बिहार में हमने ऐसा ही किया था।
यह आपके सामने है हमारी विकास की गाथा। पर हम यहीं नहीं रूके हैं। हम निरंतर विकास कर रहे हैं और यथासंभव जेलों को घर की तरह सुविधाऐं देने को तत्पर हैं। हमारी लगातार यही कोशिश हो रही है। कि इसे घर से बेहतर बना सकें। हालांकि मीडिया हमारे विकास में निरंतर बाधा उत्पन्न करता रहता है। लेकिन फिर भी हम पवित्र उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। हमारे विकास की गाथा देखने के लिए हम चाहते हैं कि प्रगति की यह यात्रा स्वंय अपनी आंखों से देखें। एक बार सेवा का अवसर दें। भारतीय जेल आपका हार्दिक स्वागत करती है।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

व्यंग्य प्यारे डेंगू अब चले भी जाओ

 

 

 



 

  नई दुनिया में 25-09-10 को प्रकाशित




 

प्यारे डेंगू,

तुम फिर आ गए। मैं ऐसा कृत्घन नहीं कि तुम्हारे आने से खुश न होउं। पर क्या करूं। तुम भी बस, समय नहीं देखते हो और चले आते हो। तुम सोच रहे होंगे कि मुझे क्या हो गया। मैं क्यों नहीं खुश हूं। तुम हर साल आते हो। भारी भरकम बजट और घोटालों की अपार संभावनाऐं लेकर आते हो। तुम्हें आने में देर होती है तो बच्चे पूछने लग जाते हैं। क्या बात है पापा इस बार डेंगू अंकल नहीं आए। हमारी दीवाली कैसे मनेगी।

पर इस बार तुम बिन बुलाए ही चले आए। तुम भी क्या करो। तुम्हें पता नहीं चला होगा कि हम इस बार घोटाले के मामले में आत्मनिर्भर हो गए। अब भैया हमारे यहां कॉमनवेल्थ गेम हो रहे हैं । हम तो बड़े मगन हैं। छातों से लेकर एयरकंडीशनर सभी में कूट रहे हैं। लोग तोप खरीद में कमाते हैं। हम तो केवल किरायों में ही कमा गए। सब लोग अपनी प्रतिभा के अनुसार जुगाड में लगे हुए थे। सब-कुछ ठीक चल रहा था। कि अचानक तुम आ गए।

तुम आते हो। खैर चले आओ। अच्छी बात है। अतिथि देवो भव। हम अपनी पंरपरा निभाते हैं। हर साल कितने ही लोगों को तुम्हारी भेंट चड़ा देते हैं। पर इस बार तो तुम थोडा ध्यान रखते। तुम्हें पता नहीं था कि इस बार हम कॉमनवेल्थ गेम करा रहे हैं। पता है तुम्हारी वजह से हमारे खेलों का कितना अपमान हुआ। हमारे एक मंत्रीजी तो यह तक कह गए कि खेलों की वजह से तुम आए हो। अब तुम भी बस। क्या तुम हर साल बिना नागा के नहीं आते हो। क्या तुम पहली बार ही आए थे।

तुम भी बस कैसे हो। हमने खेलों के लिए गडडे खोदे और तुमने सोचा कि सरकार तुम्हारे लिए स्वीमिंग पूल बना रही है। तुम वहीं पैदा हो गए। तुम्हें और कोई जगह नहीं मिली। बस कर दिया झट से खेलों को बदनाम। एक तो खेलों की पहले ही वाट लगी हुई है। तुम और कहीं ही चले जाते। तुम्हें भी बस बस दिल्ली के गडडे मिले। अरे हमारा तो पूरा देश ही गडडे में पड़ा हुआ है। जहां जाते, गडडे अपने आप ही पैदा हो जाते।हम खेलों के लिए कितने गंभीर हैं। तुम समझ ही नहीं रहे हो। हमने भिखारियों तक को भेज दिया। कह दिया, जाओ, भारत दर्शन करके आओ। देश की संस्कृति को समझो। फिर समझकर वापस आ जाना। बिचारे खेलों तक वे भ्रमण पर हैं। और तुम जो हो कुंए के मेंढक ही रहोगे। यहीं पड़े हो।

अब तुम कोई नेता भी नहीं हो। यहां कौन सी तुम्हारी पार्लियामेंट हैं। जो तुमसे दिल्ली नहीं छूटती। तुम तो आकर बस गडडे में कूद पड़े अरे कितनी मुश्किल से खेलों के लिए खोदे थे। सोचा था आज कॉमनवेल्थ का छोटा गडडा खोदा है, कल एशियाड का बड़ा गडडा खोदेंगे। और ईश्वर ने चाहा तो एक दिन ओलंपिक का सबसे बड़ा गडडा खोदकर पटक देंगे। चाहे पूरे देश को उसमें धकेलना पड़े

पर इस देश में कुछ अच्छा भला कैसे हो सकता है। अचानक तुम आ धमके। अब क्या करें। पूरे विश्व में फजीहत हो गई। पहले ही क्या कम हो रही थी। अब सब देश सर्टिफिकेट मांग रहे हैं। अब कहां से लाकर दे सर्टिफिकेट। सो भैया तुम अब कहीं चले जाओ। बस खेल करा लेने दो। आजकल तो हम बस एक ही बात चाहते हैं। कि बस किसी तरह यह खेल निपट जावे। तब तक के लिए तुम कहीं भी चले जाओ। समूचा देश खुदा पड़ा है। सब तरफ गडडे हैं। हर जगह गडडे ही गडडे हैं । उनमें भ्रसटाचार का इतना सडा पानी भरा हुआ है। कि तुम्हारी सात पीढियां तर जाऐगी। मरी हुई जनता को जितना चाहे डंक मारो। वो बेजुबान है, कुछ नहीं कहेगी। वो सदा से सहती आई है। सो भैया अब चले भी जाओ।